पद्मपुराण - पर्व 99: Difference between revisions
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निन्यानवेवां पर्व
अथानंतर राजा वज्रजंघ ने क्षण भर में एक ऐसी पालकी बुलाई जिसमें उत्तम खंभे लगे हुए थे, जो नाना प्रकार के बेल-बूटों से सुशोभित थी, विमान के समान थी, रमणीय थी, योग्य प्रमाण से बनाई गई थी, उत्तम दर्पण, फन्नूस, तथा चंद्रमा के समान उज्ज्वल चमरों से मनोहर थी, हार के बुदबुदों से सहित थी, रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुशोभित थी, जिस पर बड़ी-बड़ी मालाएँ फैलाकर लगाई गई थीं, जो चित्र रचना से सुंदर थी, और उत्तमोत्तम झरोखों से युक्त थी। ऐसी पालकी पर सवार हो सीता ने प्रस्थान किया। उस समय सीता उत्कृष्ट संपदा से सहित थी, महा सैनिकों के मध्य चल रही थी, कर्मों की विचित्रता का चिंतन कर रही थी तथा आश्चर्य से चकित थी ॥1-4॥ उत्तम चेष्टा को धारण करने वाली सीता, तीन दिन में उस भयंकर अटवी को पारकर पुंडरीक देश में प्रविष्ट हुई ॥5॥ समस्त प्रकार की धान्य संपदाओं से जिसकी भूमि आच्छादित थी, तथा कुक्कुट संपात्य अर्थात् निकट-निकट बसे हुए पुर और नगरों से जो सुशोभित था ॥6॥ स्वर्गपुर के समान कांति वाले नगरों से जो इतना अधिक सुंदर था कि देखते-देखते तृप्ति ही नहीं होती थी, तथा जो बाग-बगीचे आदि से विभूषित था ऐसे पुंडरीक देश को देखती हुई वह आगे जा रही थी ।॥7॥ हे मान्ये ! हे भगवति ! हे श्लाघ्ये ! तुम्हारे दर्शन से हम संसार के प्राणी निष्पाप एवं कृतकृत्य हो गये ।।8॥ इस प्रकार राजा की कांति को धारण करने वाले गाँव के बड़े-बूढ़े लोग भेंट ले लेकर उसकी बार-बार वंदना करते थे ।।9।। अर्घ आदि के द्वारा सम्मान करने वाले देव तुल्य राजा उसे प्रणाम कर पद-पद पर उसकी अत्यधिक प्रशंसा करते जाते थे ॥10॥ अनुक्रम से वह अत्यंत मनोहर तथा पुरवासी लोगों से सेवित पुंडरीकपुर के समीप पहुँची ॥11॥
सीता का आगमन सुन स्वामी के आदेश से अधिकारी लोगों ने शीघ्र ही नगर में बहुत भारी सजावट की ॥12॥ तिराहों और चौराहों से सहित बड़े-बड़े मार्ग सब ओर से सजाये गये, सुगंधित जल से सींचे गये तथा फूलों से आच्छादित किये गये ।।13।। इंद्रधनुष के समान रंग-बिरंगे तोरण खड़े किये गये, द्वारों पर जल से भरे तथा मुखों पर पल्लवों से सुशोभित कलश रखे गये ॥14॥ जो फहराती हुई ध्वजाओं और मालाओं से सहित था, तथा जहाँ शुभ शब्द हो रहा था ऐसा वह नगर आनंद-विभोर हो मानो नृत्य करने के लिए ही तत्पर था ॥15॥ गोपुर के साथ साथ जिस पर बहुत भारी लोग चढ़कर बैठे हुए थे ऐसा नगर का कोट इस प्रकार जान पड़ता था मानो हर्ष के कारण कोलाहल करता हुआ परम वृद्धि को ही प्राप्त हो गया हो ॥16॥ भीतर बाहर सब जगह सीता के दर्शन की इच्छा करने वाले चलते-फिरते जन-समूह से उस नगर का प्रत्येक स्थान ऐसा जान पड़ता था मानो जंगमपना को हो प्राप्त हो गया हो अर्थात् चलने-फिर लगा हो ॥17॥
तदनंतर शंखों के शब्द से मिश्रित एवं वंदीजनों के विरदगान से पल नाना प्रकार के वादित्रों का शब्द जब दिग्दिगंत को व्याप्त कर रहा था तब सीता ने नगर में उस तह प्रवेश किया जिस तरह कि लक्ष्मी स्वर्ग में प्रवेश करती है। उस समय आश्चर्य से जिनका चित्त व्याप्त हो रहा था ऐसे नगरवासी लोग सीता का बार-बार दर्शन कर रहे थे ॥18-19।। तत्पश्चात् जो उद्यान से घिरा हुआ था, वापिकाओं से अलंकृत था, मेरु के शिखर के समान ऊँचा था और बलदेव की कांति के समान सफेद था ऐसे वज्रजंघ के घर के समीप स्थित अत्यंत सुंदर महल में राजा की स्त्रियों से पूजित होती हुई सीता ने प्रवेश किया ।।20-21॥ वहाँ परम संतोष को धारण करने वाला, बुद्धिमान एवं उत्तम हृदय का धारक राजा वज्रजंघ, भाई भामंडल के समान जिसकी पूजा करता था ॥22॥ 'हे ईशाने ! हे देवते ! हे पूज्ये ! हे स्वामिनि ! तुम्हारी जय हो, जीवित रहो, आनंदित होओ, बढ़ती रहो और आज्ञा देओ, इस प्रकार जिसका निरंतर विरदगान होता रहता था ॥23॥ परम संभ्रम के धारक, हाथ जोड़, मस्तक झुका आज्ञा प्राप्त करने के इच्छुक सुंदर परिजन सदा जिसके साथ रहते थे, तथा इच्छा करते ही जिसके मनोरथ पूर्ण होते थे ऐसी सीता वहाँ निरंतर धर्म संबंधी तथा राम संबंधी कथाएँ करती हुई निवास करती थी। ॥24-25॥ राजा वज्रजंघ के पास सामंतों की ओर से जितनी भेंट आती थी वह सब सीता के लिए दे देता था और उसी से वह धर्मकार्य का सेवन करती थी ॥26॥
अथानंतर जिसका मन अत्यंत संतप्त हो रहा था, जो अत्यधिक खेद से युक्त था, जो थके हुए घोड़ों को विश्राम देने वाला था और जिसे शीघ्रता करने वाले राजाओं ने सब ओर से घेर लिया था ऐसा कृतांतवक्त्र सेनापति, मुख को नीचा किये हुए श्रीरामदेव के समीप गया ॥27-28।। और बोला कि हे प्रभो ! हे राजन् ! आपके कहने से मैं एक गर्भ ही जिसका सहायक था ऐसी सीता को भयंकर वन में ठहरा आया हूँ ॥26॥ हे देव ! आपके कहने से मैं सीता को उस वन में छोड़ आया हूँ जो नाना प्रकार के अत्यंत भयंकर शब्द करने वाले वन्य पशुओं के समूह से सेवित है, वेतालों का आकार धारण करने वाले दुर्दृश्य वृक्षों के समूह से जहाँ घोर अंधकार व्याप्त है, जहाँ स्वाभाविक द्वेष से निरंतर युद्ध करने वाले व्याघ्र और जंगली भैंसा अधिक हैं, जहाँ कोटर में टकराने वाली वायु से निरंतर दुंदुभि का शब्द होता रहता है, जहाँ गुफाओं के भीतर सिंहों के शब्द की प्रतिध्वनि बढ़ती रहती है, जहाँ सोये हुए अजगरों का शब्द लकड़ी पर चलने वाली करोंत से उत्पन्न शब्द के समान भयंकर है, जहाँ प्यासे भेड़ियों के द्वारा हरिणों के लटकते हुए पोते नष्ट कर डाले गये हैं । जहाँ रुधिर की आशंका करने वाले सिंह धातकी वृक्ष के गुच्छों को चाटते रहते हैं और जो यमराज के लिए भी भय का समूह उत्पन्न करने में निपुण है ॥30-34॥ हे देव ! जिसका मुख अश्रुओं की वर्षा से दुर्दिन के समान हो रहा था तथा जो महाशोक से अत्यंत प्रज्वलित थी ऐसा सीता का संदेश मैं कहता हूँ सो सुनो ॥35॥
सीता देवी ने आपसे कहा है कि यदि अपना हित चाहते हों तो जिस प्रकार मुझे छोड़ दिया है उस प्रकार जिनेंद्रदेव में भक्ति को नहीं छोड़ना ॥36।। स्नेह तथा अनुराग से युक्त जो मानी राजा मुझे छोड़ सकता है निश्चय ही वह जिनेंद्रदेव में भक्ति भी छोड़ सकता है ॥37॥ वचन बल को धारण करने वाला दुष्ट मनुष्य बिना विचारे चाहे जिसके विषय में चाहे जो निंदा की बात कह देता है परंतु बुद्धिमान् मनुष्य को उसका विचार करना चाहिए ॥38॥ साधारण मनुष्य मुझ निर्दोष के दोष उस प्रकार नहीं कहते जिस प्रकार कि सम्यग्ज्ञान से रहित मनुष्य सद्धर्म रूपी रत्न के दोष कहते फिरते हैं। भावार्थ― दूसरे के कहने से जिस प्रकार आपने मुझे छोड़ दिया है उस प्रकार सद्धर्म रूपी रत्न को नहीं छोड़ देना क्योंकि मेरी अपेक्षा सद्धर्म रूपी रत्न की निंदा करने वाले अधिक हैं ॥39॥ हे राम ! आपने मुझे भयंकर निर्जन वन में छोड़ दिया है सो इसमें क्या दोष है ? परंतु इस तरह आप सम्यग्दर्शन की शुद्धता को छोड़ने के योग्य नहीं हैं ॥40॥ क्योंकि मेरे साथ वियोग को प्राप्त हुए आपको इसी एक भव में दुःख होगा परंतु सम्यग्दर्शन के छूट जाने पर तो भव-भव में दुःख होगा ।।41॥ संसार में मनुष्य को खजाना स्त्री तथा वाहन आदि का मिलना सुलभ है परंतु सम्यग्दर्शन रूपी रत्न साम्राज्य से भी कहीं अधिक दुर्लभ है ॥42॥ राज्य में पाप करने से मनुष्य का नियम से नरक में पतन होता है परंतु उसी राज्य में यदि सम्यग्दर्शन साथ रहता है तो एक उसी के तेज से ऊर्ध्वगमन होता है― स्वर्ग की प्राप्ति होती है ॥43॥ जिसकी आत्मा सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से अलंकृत है । उसके दोनों लोक कृतकृत्यता को प्राप्त होते हैं ॥44।। इस प्रकार स्नेह पूर्ण चित्त को धारण करने वाली सीता ने जो संदेश दिया है उसे सुनकर किस वीर के उत्तम बुद्धि उत्पन्न नहीं होती ? ॥45॥ जो स्वभाव से ही भीरु है यदि उसे दूसरे भय उत्पन्न कराते हैं तो उसके भीर होने में क्या आश्चर्य ? परंतु उग्र एवं भयंकर विभीषिकाओं से तो पुरुष भी भयभीत हो जाते हैं। भावार्थ― जो भयंकर विभीषिकाएँ स्वभाव-भीरु सीता को प्राप्त हैं वे पुरुष को भी प्राप्त न हों ॥46॥
हे देव ! जो अत्यंत देदीप्यमान― दुष्ट हिंसक जंतुओं के समूह से यमराज को भी भय उत्पन्न करने वाला है, जहाँ अर्ध शुष्क तालाब की दल-दल में फँसे हाथी शूत्कार कर रहे हैं, जहाँ बेरी के काँटों से पूँछ के उलझ जाने से सुरा गायों का समूह दुःखी हो रहा है, जहाँ मृगमरीचि में जल की श्रद्धा से दौड़ने वाले हरिणों के समूह व्याकुल हो रहे हैं, जहाँ करेंच की रज के संग से वानर अत्यंत चश्चल हो उठे हैं, जहाँ लंबी-लंबी जटाओं से मुख ढंक जाने के कारण रीछ चिल्ला रहे हैं, जहाँ प्यास से पीड़ित भेड़ियों के समूह अपनी जिह्वा रूपी पल्लवों को बाहर निकाल रहे हैं, जहाँ गुमची की फलियों के चटकने तथा उनके दाने ऊपर पड़ने से साँप कुपित हो रहे हैं, जहाँ वृक्षों का आश्रय लेने वाले जंतु, तीव्र वायु के संचार से 'कहीं वृक्ष टूट कर ऊपर न गिर पड़े, इस भय से क्रूर क्रंदन कर रहे हैं, जहाँ क्षण एक में उत्पन्न वघरूले में धूलि और पत्तों के समूह एकदम उड़ने लगते है, जहाँ बड़े-बड़े अजगरों के संचार से अनेक वृक्ष चूर-चूर हो गये हैं, जहाँ उद्दंड मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा भयंकर प्राणी नष्ट कर दिये गये हैं, जो सूकरों के समूह से खोदे गये तालाबों के मध्य भाग से कठोर है, जहाँ का भूतल काँटे, गड्ड, वयाठे और मिट्टी के टीलों से व्याप्त है, जहाँ फूलों का रस सूख जाने से घाम से पीड़ित भौंरें छटपटाते हुए इधर-उधर उड़ रहे हैं और जो कुपित सेहियों के द्वारा छोड़े हुए काँटों से भयंकर है ऐसे महावन में छोड़ी हुई सीता क्षणभर भी प्राण धारण करने के लिए समर्थ नहीं है ऐसा मैं समझता हूँ ॥47-55॥
तदनंतर जो शत्रु से भी अधिक कठोर थे ऐसे सेनापति के वचन सुनकर राम विषाद को प्राप्त हुए और उतने से ही उन्हें अपने आपका बोध हो गया― अपनी त्रुटि अनुभव में आ गई ।।56।। वे विचार करने लगे कि मुझ मूर्ख हृदय ने दुर्जनों के वचनों के वशीभूत हो यह अत्यंत निंदित कार्य क्यों कर डाला ? ॥57।। कहाँ वह वैसी राजपुत्री ? और कहाँ यह ऐसा दुःख ? इस प्रकार विचार कर राम नेत्र बंद कर मूर्छित हो गये ॥58।। तदनंतर जिनको हृदय स्त्री में लग रहा था ऐसे राम उपाय करने से चिरकाल बाद सचेत हो अत्यंत दु:खी होते हुए परम विलाप करने लगे ॥59॥ वे कहने लगे कि हाय सीते ! तेरे नेत्र तीन रंग के कमल के समान हैं, तू निर्मल गुणों का सागर है, तूने अपने मुख से चंद्रमा को जीत लिया है, तू कमल के भीतरी भाग के समान कोमल है ।।60॥ हे वैदेहि ! हे वैदेहि ! शीघ्र ही वचन देओ । यह तो तू जानती ही है कि मेरा हृदय तेरे बिना अत्यंत कातर है ॥61।। तू अनुपम शील को धारण करने वाली है, सुंदरी है, तेरा वार्तालाप हितकारी तथा प्रिय है। तेरा मन पाप से रहित है ॥62॥ तू अपराध से रहित थी फिर भी निर्दय होकर मैंने तुझे छोड़ दिया। हे मेरे हृदय में वास करने वाली ! तू किस दशा को प्राप्त हुई होगी ? ॥63।। हे देवि ! महाभयदायक एवं दुष्ट वन्य पशुओं से भरे हुए वन में छोड़ी गई तू भोगों से रहित हो किस प्रकार रहेगी ? ॥64॥ तेरे नेत्र मदोन्मत्त चकोर के समान हैं, तू सौंदर्य रूपी जल की वापिका है, लज्जा और विनय से संपन्न है। हाय मेरी देवि ! तू कहाँ गई ? ॥65॥ हाय देवि ! श्वासोच्छ्वास की सुगंधि से भ्रमर तेरे मुख के समीप इकट्ठे होकर झंकार करते होंगे उन्हें कर कमल से दूर हटाती हुई तू अवश्य ही खेद को प्राप्त होगी ॥66।। जो विचार करने पर भी अत्यंत दुःसह है ऐसे भयंकर वन में झुंड से बिछुड़ी मृगी के समान तू अकेली शून्य हृदय हो कहाँ जायगी ? ॥67॥ कमल के भीतरी भाग के समान कोमल एवं सुंदर लक्षणों से युक्त तेरे पैर कठोर भूमि के साथ समागम को किस प्रकार सहन करेंगे ? ॥68॥ अथवा जिनका मन, कृत्य और अकृत्य के विवेक से बिल्कुल ही रहित है ऐसे म्लेच्छ लोग तुझे पकड़ कर अत्यंत भयंकर पल्ली में ले गये होंगे ॥69॥ हे प्रिये ! हे साध्वि ! मुझ दुष्ट ने तुझे वन में छोड़ा है अतः अब की बार पहले दुःख से भी कहीं अधिक दुःख को प्राप्त हुई है ॥70॥ अथवा तू खेदखिन्न एवं वन की धूली से व्याप्त हो रात्रि के सघन अंधकार में सो रही होगी सो तुझे हाथी ने दबा दिया होगा ॥71।। जो गीध रीछ भालू शृंगाल खरगोश और उल्लुओं से व्याप्त है तथा जहाँ मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता ऐसे बीहड़ वन में दु:खी होती हुई तू कैसे रहेगी ? ॥72॥ अथवा हे प्रिये ! जिसका मुख दांढों से भयंकर है, अंगड़ाई लेने से जिसका शरीर कंपित है तथा जो तीव्र भूख से युक्त है ऐसे किसी व्याघ्र ने तुम्हें शब्दागोचर अवस्था को प्राप्त करा दिया है ? ।।73।। अथवा जिसकी जिह्वा लप-लपा रही है और जिसकी गरदन के बालों का समूह सुशोभित है ऐसे किसी सिंह ने तुम्हें शब्दातीत दशा को प्राप्त करा दिया है क्योंकि ऐसा कौन है जो स्त्रियों के विषय में शक्तिशाली न हो ? ॥74॥ अथवा हे देवि ! ज्वालाओं के समूह से युक्त, तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का अभाव करने वाले दावानल के द्वारा तू क्या अशोभन अवस्था को प्राप्त कराई गई है ? ॥75।। अथवा तू छाया में जाने के लिए असमर्थ रही होगी इसलिए क्या सूर्य की अत्यंत दुःसह किरणों से मरण को प्राप्त हो गई है ।।76।। अथवा तू प्रशस्त शील की धारक थी और मैं अत्यंत क्रूर प्रकृति का था। फिर भी तूने मुझमें अपना चित्त लगाया। क्या इसी असमंजस भाव से तेरा हृदय विदीर्ण हो गया होगा और तू मृत्यु को प्राप्त हुई होगी ।।77।। हनूमान् और रत्नजटी के समान इस समय कौन है ? जो सीता की कुशल वार्ता प्राप्त करा देगा ? ।।78।। हा प्रिये ! हा महाशीलवति ! हा मनस्विनि ! हा शुभे ! तू कहाँ है ? कहाँ चली गई ? क्या कर रही है। क्या कुछ भी नहीं जानती ? ।।79।। अहो कृतांतवक्त्र ! क्या सचमुच ही तुमने प्रिया को अत्यंत भयानक वन में छोड़ दिया है ? नहीं, नहीं, तुम ऐसा कैसे करोगे ? ॥80॥ इस मुखचंद्र से अमृत के समूह को झराते हुए के समान तुम कहो, कहो कि मैंने तुम्हारी उस कांता को नहीं छोड़ा है ॥81॥ इस प्रकार कहने पर लज्जा के भार से जिसका मुख नीचा हो गया था, जिसकी प्रभा समाप्त हो गई थी, और जो स्वीकृति से रहित था ऐसा सेनापति व्याकुल हो गया ॥82॥ जब कृतांतवक्त्र चुप खड़ा रहा तब अत्यंत दुःख से युक्त सीता का ध्यान कर राम पुनः मूर्च्छा को प्राप्त हो गये और बड़ी कठिनाई से सचेत किये गये ।।83।।
इसी बीच में लक्ष्मण ने आकर हृदय में शोक धारण करने वाले राम का स्पर्श करते हुए कहा कि हे देव ! इस तरह व्याकुल क्यों होते हो ? धैर्य धारण करो ॥84॥ यह पूर्वोपार्जित कर्म का फल समस्त लोक को प्राप्त हुआ है न केवल राजपुत्री को ही ।।85॥ संसार में जिसे जो दुःख अथवा सुख प्राप्त करना है वह उसे किसी निमित्त से स्वयमेव प्राप्त करता है ॥86॥ यह प्राणी चाहे आकाश में ले जाया जाय, चाहे वन्य पशुओं से व्याप्त वन में ले जाया जाय और चाहे पर्वत की चोटी पर ले जाया जाय सर्वत्र अपने पुण्य से ही रक्षित होता है ।।87॥ हे देव ! सीता के परित्याग का समाचार सुनकर इस भरतक्षेत्र की समस्त वसुधा में साधारण से साधारण मनुष्यों के भी मन में दुःख ने अपना स्थान कर लिया है ॥88॥ दुःख से संतप्त एवं सब ओर से द्रवीभूत प्रजाजनों के हृदय अश्रुधारा के बहाने मानो गल-गलकर बह रहे हैं ॥89॥ राम से इतना कहकर अत्यंत व्याकुल हो लक्ष्मण स्वयं विलाप करने लगे और उनका मुख हिम से ताड़ित कमल-वन के समान निष्प्रभ हो गया ।।90॥ वे कहने लगे कि हाय सीते ! तेरा शरीर दुष्टजनों के वचन रूपी अग्नि से प्रज्वलित हो रहा है, तू गुणरूपी धान्य की उत्पत्ति के लिए भूमि स्वरूप है तथा उत्तम भावना से युक्त है ॥91॥ हे राजपुत्रि! तू कहाँ गई ? तेरे चरण-किसलय अत्यंत सुकुमार थे । तु शीलरूपी पर्वत को धारण करने के लिए पृथिवी रूप थी, हे सीते ! तू बड़ी ही सौम्य और मनस्विनी थी ॥92॥ हे मातः ! देख, दुष्ट मनुष्यों के वचनरूपी तुषार से गुणों से सुशोभित तथा राजहंसों से निषेवित यह कमलिनी सब ओर से दग्ध हो गई है। भावार्थ― यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार द्वारा विसिनी शब्द से सीता का उल्लेख किया गया है। जिस प्रकार कमलिनी गुण अर्थात् तंतुओं से सुशोभित होती है उसी प्रकार सीता भी गुण अर्थात् दया दाक्षिण्य आदि गुणों से सुशोभित थी और जिस प्रकार कमलिनी राजहंस पक्षियों से सेवित होती है उसी प्रकार सीता भी राजहंस अर्थात् राजशिरोमणि रामचंद्र से सेवित थी ॥93॥ हे उत्तमे ! तू सुभद्रा के समान भद्र और सर्व आचार के पालन करने में निपुण थी तथा समस्त लोक को मूर्तिधारिणी सुख स्थिति स्वरूप थी। तू कहाँ गई ? ॥94॥ सूर्य के बिना आकाश क्या ? और चंद्रमा के बिना रात्रि क्या? उसी प्रकार उस स्त्री रत्न के बिना अयोध्या कैसी ? भावार्थ― जिस प्रकार सूर्य के बिना आकाश की और चंद्रमा के बिना रात्रि की शोभा नहीं है उसी प्रकार सीता के बिना अयोध्या की शोभा नहीं है ॥95॥ हे देव ! समस्त नगरी बाँसुरी वीणा तथा मृदंग आदि के शब्द से रहित तथा करुण क्रंदन से पूर्ण हो रही है । ॥96॥ गलियों में, बाग-बगीचों के प्रदेशों में, वनों में, नदियों में, तिराहों चौराहों में, महलों में और बाजारों में निरंतर निकलने वाली समस्त लोगों की अश्रुधाराओं से वर्षा ऋतु के समान कीचड़ उत्पन्न हो गया है ।।97-98॥ यद्यपि जानकी परोक्ष हो गई है तथापि उसी एक में जिसका मन लग रहा है ऐसा समस्त संसार उससे गद्गद वाणी के द्वारा बड़ी कठिनाई से उच्चारण करता हुआ गुणरूप फूलों की वर्षा से उसकी पूजा करता है सो ठीक ही है क्योंकि गुणों से उज्ज्वल रहने वाली उस जानकी ने समस्त सती स्त्रियों के मस्तक पर स्थान किया था अर्थात् समस्त सतियों में शिरोमणि थी ॥99-100। स्वयं सीतादेवी ने जिनका पालन किया था तथा जो उसके अभाव में उत्कंठा से विवश हैं ऐसे शुक आदि चतुर पक्षी भी शरीर को कँपाते हुए अत्यंत दीन रुदन करते रहते हैं ॥101।। इस प्रकार समस्त मनुष्यों के चित्त के साथ जिसके गुणों का संबंध था ऐसी जानकी के लिए किस मनुष्य को भारी शोक नहीं है ? ॥102॥ किंतु हे विद्वन् ! पश्चात्ताप करना इच्छित वस्तु के प्राप्त करने का उपाय नहीं है ऐसा विचार कर धैर्य धारण करना योग्य है ।।103॥
इस प्रकार लक्ष्मण के वचन से प्रसन्न राम ने कुछ शोक छोड़कर कर्तव्य करने योग्य कार्य में मन लगाया ॥104॥ उन्होंने जानकी के मरणोत्तर कार्य के विषय में आदर सहित लोगों को आदेश दिया तथा भद्रकलश नामक खजान्ची को शीघ्र ही बुलाकर यह आदेश दिया कि हे भद्र ! सीता ने तुझे पहले जिस विधि से दान देने का आदेश दिया था उसी विधि से उसे लक्ष्य कर अब भी दान दिया जाय ॥105-106॥ 'जैसी आज्ञा हो' यह कहकर शुद्ध हृदय को धारण करने वाला कोषाध्यक्ष नौ मास तक याचकों के लिए इच्छित दान देता रहा ॥107॥ यद्यपि आठ हजार स्त्रियाँ निरंतर राम की सेवा करती थीं तथापि राम पल भर के लिए भी मन से सीता को नहीं छोड़ते थे ॥108।। उनका सदा सीता शब्द रूप ही समालाप होता था अर्थात् वे सदा 'सीता-सीता' कहते रहते थे और उसके गुणों से आकृष्ट चित्त हो सबको सीतारूप ही देखते थे अर्थात् उन्हें सर्वत्र सीता-सीता ही दिखाई देती थी ॥106।। पृथिवी की धूलि से जिसका शरीर व्याप्त है, जो पर्वत की गुफा में वास कर रही है तथा अश्रुओं की जो लगातार वर्षा कर रही है ऐसी सीता को वे स्वप्न में देखते थे ।।110॥ अत्यधिक शोक को धारण करने वाले राम जब जागते थे तब सशल्य मन से आंसुओं से नेत्रों को आच्छादित करते हुए सू-सू शब्द के साथ चिंता करने लगते थे कि अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि सुंदर चेष्टा को धारण करने वाली सीता लोकांतर में स्थित होने पर भी मुझे नहीं छोड़ रही है । वह साध्वी पूर्व संस्कार से सहित होने के कारण अब भी मेरा हित करने में उद्यत है ॥111-112॥
तदनंतर धीरे-धीरे सीता का शोक विरल होने पर राम अवशिष्ट स्त्रियों से धैर्य को प्राप्त हुए ॥113॥ जो परम न्याय से सहित थे, अविरल प्रीति से युक्त थे, प्रशस्त गुणों के सागर थे, और समुद्रांत पृथिवी का अच्छी तरह पालन करते थे ऐसे हल और चक्र नामक दिव्य अस्त्र को धारण करनेवाले राम-लक्ष्मण सौधर्मेंद्र के समान अत्यधिक सुशोभित होते थे ॥114-115॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जहाँ देवों के समान मनुष्य थे ऐसी उस अयोध्या नगरी में उत्तम कांति को धारण करने वाले दोनों पुरुषोत्तम, इंद्रों के समान परम भोगों को प्राप्त हुए थे ॥116।। अपने द्वारा किये हुए पुण्य कर्म के उदय से जिनका चरित समस्त मनुष्यों के लिए आनंद देने वाला था, तथा जो सूर्य के समान कांति वाले थे ऐसे राम लक्ष्मण अज्ञात काल तक सुखसागर में निमग्न रहे ॥11॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा रचित पद्मपुराण में राम के शोक का वर्णन करने वाला निन्यानवेवां पर्व समाप्त हुआ ॥99॥