पद्मपुराण - पर्व 97: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>सतानवेवां पर्व</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>सतानवेवां पर्व</p> | ||
<p>अथानंतर किसी तरह एक वस्तु में चिंता को स्थिर कर श्रीराम ने लक्ष्मण को बुलाने के लिए द्वारपाल को आज्ञा दी ॥1॥<span id="2" /><span id="3" /> कार्यों के देखने में जिनका मन लग रहा था ऐसे लक्ष्मण, द्वारपाल के वचन सुन हड़बड़ाहट के साथ चंचल घोड़े पर सवार हो श्रीराम के निकट पहुंचे और हाथ जोड़ नमस्कार कर उनके चरणों में दृष्टि लगाये हुए मनोहर पृथिवी पर बैठ गये ॥2-3।।<span id="4" /> जिनका शरीर विनय से नम्रीभूत था तथा जो परम आज्ञाकारी थे ऐसे लक्ष्मण को स्वयं उठाकर राम ने अर्धासन पर बैठाया ॥4।।<span id="5" /> जिनमें शत्रुघ्न प्रधान था ऐसे विराधित आदि राजा भी आज्ञा लेकर भीतर प्रविष्ट हुए और सब यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये ।।5।।<span id="6" /> पुरोहित, नगर सेठ, मंत्री तथा अन्य सज्जन कुतूहल से युक्त हो यथायोग्य स्थान पर बैठ गये ॥6॥<span id="7" /> </p> | <p>अथानंतर किसी तरह एक वस्तु में चिंता को स्थिर कर श्रीराम ने लक्ष्मण को बुलाने के लिए द्वारपाल को आज्ञा दी ॥1॥<span id="2" /><span id="3" /> कार्यों के देखने में जिनका मन लग रहा था ऐसे लक्ष्मण, द्वारपाल के वचन सुन हड़बड़ाहट के साथ चंचल घोड़े पर सवार हो श्रीराम के निकट पहुंचे और हाथ जोड़ नमस्कार कर उनके चरणों में दृष्टि लगाये हुए मनोहर पृथिवी पर बैठ गये ॥2-3।।<span id="4" /> जिनका शरीर विनय से नम्रीभूत था तथा जो परम आज्ञाकारी थे ऐसे लक्ष्मण को स्वयं उठाकर राम ने अर्धासन पर बैठाया ॥4।।<span id="5" /> जिनमें शत्रुघ्न प्रधान था ऐसे विराधित आदि राजा भी आज्ञा लेकर भीतर प्रविष्ट हुए और सब यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये ।।5।।<span id="6" /> पुरोहित, नगर सेठ, मंत्री तथा अन्य सज्जन कुतूहल से युक्त हो यथायोग्य स्थान पर बैठ गये ॥6॥<span id="7" /> </p> | ||
<p>तदनंतर क्षण भर ठहर कर राम ने यथाक्रम से लक्ष्मण के लिए अपवाद उत्पन्न होने का समाचार सुनाया ॥7॥ सो उसे सुनकर लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने उसी समय योद्धाओं को तैयार होने का आदेश दिया तथा स्वयं कहा कि मैं आज दुर्जनरूपी समुद्र के अंत को प्राप्त होता हूँ और मिथ्यावादी लोगों की जिह्वाओं से पृथिवी को आच्छादित करता हूँ ॥8-6॥<span id="10" /> अनुपम शील के समूह को धारण करने वाली एवं गुणों से गंभीर सीता के प्रति जो द्वेष करते हैं मैं उन्हें आज क्षय को प्राप्त कराता हूँ ॥10॥<span id="11" /><span id="12" /> तदनंतर जो क्रोध के वशीभूत हो दुर्दशनीय अवस्था को प्राप्त हुए थे तथा जिन्होंने सभा को क्षोभ युक्त कर दिया था ऐसे लक्ष्मण को राम ने इन वचनों से शांत किया कि हे सौम्य ! यह समुद्रांत पृथिवी भगवान् ऋषभदेव तथा भरत चक्रवर्ती जैसे उत्तमोत्तम पुरुषों के द्वारा चिरकाल से पालित है ॥11-12॥<span id="13" /> अर्ककीर्ति आदि राजा इक्ष्वाकुवंश के तिलक थे। जिस प्रकार कोई चंद्रमा की पीठ नहीं देख सकता उसी प्रकार इनकी पीठ भी युद्ध में शत्रु नहीं देख सके थे ।।13।।<span id="14" /> चाँदनी रूपी पट के समान सुशोभित उनके यश के समूह से ये तीनों लोक निरंतर सुशोभित हैं ॥14॥<span id="15" /> निष्प्रयोजन प्राणों को धारण करता हुआ मैं, पापी एवं भंगुर स्नेह के लिए उस कुल को मलिन कैसे कर दूँ ? ॥15॥<span id="16" /> अल्प भी अकीर्ति उपेक्षा करने पर वृद्धि को प्राप्त हो जाती है और थोड़ी भी कीर्ति इंद्रों के द्वारा भी प्रयोग में लाई जाती है― गाई जाती है ।।16।।<span id="17" /> जब कि अकीर्ति रूपी अग्नि के द्वारा हरा-भरा कीर्तिरूपी उद्यान जल रहा है तब इन नश्वर विशाल भोगों से क्या प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? ॥17॥<span id="18" /> मैं जानता हूँ कि देवी सीता, सती और शुद्ध हृदय वाली नारी है पर जब तक वह हमारे घर में स्थित रहती है तब तक यह अवर्णवाद शस्त्र और शास्त्रों के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ॥18।।<span id="184" /><span id="16" /> देखो, कमल वन को आनंदित करने वाला सूर्य रात्रि होते ही अस्त हो जाता है सो उसे रोकने वाला कौन है ? ॥16।।<span id="20" /> महाविस्तार को प्राप्त होने वाली अपवाद रूपी रज से मेरी कांति का ह्रास किया जा रहा है सो यह अनिवारित न रहे-इसकी रुकावट होना चाहिए ।।20।।<span id="21" /> हे भाई! चंद्रमा के समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्ति रूपी मेघ की रेखा से आवृत न हो जाय इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ ॥21।।<span id="22" /> जिस प्रकार सूखे ईंधन के समूह में जल के प्रवाह से रहित अग्नि बढ़ती जाती है उस प्रकार उत्पन्न हुआ यह अपयश संसार में | <p>तदनंतर क्षण भर ठहर कर राम ने यथाक्रम से लक्ष्मण के लिए अपवाद उत्पन्न होने का समाचार सुनाया ॥7॥ सो उसे सुनकर लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने उसी समय योद्धाओं को तैयार होने का आदेश दिया तथा स्वयं कहा कि मैं आज दुर्जनरूपी समुद्र के अंत को प्राप्त होता हूँ और मिथ्यावादी लोगों की जिह्वाओं से पृथिवी को आच्छादित करता हूँ ॥8-6॥<span id="10" /> अनुपम शील के समूह को धारण करने वाली एवं गुणों से गंभीर सीता के प्रति जो द्वेष करते हैं मैं उन्हें आज क्षय को प्राप्त कराता हूँ ॥10॥<span id="11" /><span id="12" /> तदनंतर जो क्रोध के वशीभूत हो दुर्दशनीय अवस्था को प्राप्त हुए थे तथा जिन्होंने सभा को क्षोभ युक्त कर दिया था ऐसे लक्ष्मण को राम ने इन वचनों से शांत किया कि हे सौम्य ! यह समुद्रांत पृथिवी भगवान् ऋषभदेव तथा भरत चक्रवर्ती जैसे उत्तमोत्तम पुरुषों के द्वारा चिरकाल से पालित है ॥11-12॥<span id="13" /> अर्ककीर्ति आदि राजा इक्ष्वाकुवंश के तिलक थे। जिस प्रकार कोई चंद्रमा की पीठ नहीं देख सकता उसी प्रकार इनकी पीठ भी युद्ध में शत्रु नहीं देख सके थे ।।13।।<span id="14" /> चाँदनी रूपी पट के समान सुशोभित उनके यश के समूह से ये तीनों लोक निरंतर सुशोभित हैं ॥14॥<span id="15" /> निष्प्रयोजन प्राणों को धारण करता हुआ मैं, पापी एवं भंगुर स्नेह के लिए उस कुल को मलिन कैसे कर दूँ ? ॥15॥<span id="16" /> अल्प भी अकीर्ति उपेक्षा करने पर वृद्धि को प्राप्त हो जाती है और थोड़ी भी कीर्ति इंद्रों के द्वारा भी प्रयोग में लाई जाती है― गाई जाती है ।।16।।<span id="17" /> जब कि अकीर्ति रूपी अग्नि के द्वारा हरा-भरा कीर्तिरूपी उद्यान जल रहा है तब इन नश्वर विशाल भोगों से क्या प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? ॥17॥<span id="18" /> मैं जानता हूँ कि देवी सीता, सती और शुद्ध हृदय वाली नारी है पर जब तक वह हमारे घर में स्थित रहती है तब तक यह अवर्णवाद शस्त्र और शास्त्रों के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ॥18।।<span id="184" /><span id="16" /> देखो, कमल वन को आनंदित करने वाला सूर्य रात्रि होते ही अस्त हो जाता है सो उसे रोकने वाला कौन है ? ॥16।।<span id="20" /> महाविस्तार को प्राप्त होने वाली अपवाद रूपी रज से मेरी कांति का ह्रास किया जा रहा है सो यह अनिवारित न रहे-इसकी रुकावट होना चाहिए ।।20।।<span id="21" /> हे भाई! चंद्रमा के समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्ति रूपी मेघ की रेखा से आवृत न हो जाय इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ ॥21।।<span id="22" /> जिस प्रकार सूखे ईंधन के समूह में जल के प्रवाह से रहित अग्नि बढ़ती जाती है उस प्रकार उत्पन्न हुआ यह अपयश संसार में बढ़ता न रहे ॥22॥<span id="23" /> मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यंत निर्मल एवं उज्ज्वल कुल जब तक कलंकित नहीं होता है तब तक शीघ्र ही इसका उपाय करो ।।23।।<span id="24" /> जो जनता के सुख के लिए अपने आपको अर्पित कर सकता है ऐसा मैं निर्दोष एवं शील से सुशोभित सीता को छोड़ सकता हूँ परंतु कीर्ति को नष्ट नहीं होने दूंगा ॥24॥<span id="25" /> </p> | ||
<p>तदनंतर भाई के स्नेह में तत्पर लक्ष्मण ने कहा कि हे राजन् ! सीता के विषय में शोक नहीं करना चाहिए ॥25॥<span id="26" /> समस्त सतियों के मस्तक पर स्थित एवं सर्व प्रकार से अनिंदित सीता को आप मात्र लोकापवाद के भय से क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥26।।<span id="27" /> दुष्ट मनुष्य शीलवान मनुष्यों की बुराई कहें पर उनके कहने से उनकी परमार्थता नष्ट नहीं हो जाती ॥27॥<span id="28" /> जिनके नेत्र विष से दूषित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य यद्यपि चंद्रमा को अत्यंत काला देखते हैं पर यथार्थ में चंद्रमा शुक्लता नहीं छोड़ देता है ॥28॥<span id="29" /> शीलसंपन्न प्राणी की आत्मा साक्षिता को प्राप्त होती है अर्थात् वह स्वयं ही अपनी वास्तविकता को कहती है । यथार्थ में वस्तु का वास्तविक भाव ही उसकी यथार्थता के लिए पर्याप्त है बाह्यरूप नहीं ॥29॥<span id="30" /> साधारण मनुष्य के कहने से विद्वज्जन क्षोभ को प्राप्त नहीं होते क्योंकि कुत्ता के भौंकने से हाथी लज्जा को प्राप्त नहीं होता ॥30॥<span id="31" /> तरंग के समान चेष्टा को धारण करने वाला यह विचित्र लोक दूसरे के दोष कहने में आसक्त है सो इसका निग्रह स्वयं इनका आत्मा करेगी ॥31॥<span id="32" /> जो मूर्ख मनुष्य शिला उखाड़ कर चंद्रमा को नष्ट करना चाहता है वह नि:संदेह स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है ॥32॥<span id="33" /> चुगली करने में तत्पर एवं दूसरे के गुणों को सहन नहीं करने वाला दुष्कर्मा दुष्ट मनुष्य निश्चित ही दुर्गति को प्राप्त होता है ॥33॥<span id="34" /></p> | <p>तदनंतर भाई के स्नेह में तत्पर लक्ष्मण ने कहा कि हे राजन् ! सीता के विषय में शोक नहीं करना चाहिए ॥25॥<span id="26" /> समस्त सतियों के मस्तक पर स्थित एवं सर्व प्रकार से अनिंदित सीता को आप मात्र लोकापवाद के भय से क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥26।।<span id="27" /> दुष्ट मनुष्य शीलवान मनुष्यों की बुराई कहें पर उनके कहने से उनकी परमार्थता नष्ट नहीं हो जाती ॥27॥<span id="28" /> जिनके नेत्र विष से दूषित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य यद्यपि चंद्रमा को अत्यंत काला देखते हैं पर यथार्थ में चंद्रमा शुक्लता नहीं छोड़ देता है ॥28॥<span id="29" /> शीलसंपन्न प्राणी की आत्मा साक्षिता को प्राप्त होती है अर्थात् वह स्वयं ही अपनी वास्तविकता को कहती है । यथार्थ में वस्तु का वास्तविक भाव ही उसकी यथार्थता के लिए पर्याप्त है बाह्यरूप नहीं ॥29॥<span id="30" /> साधारण मनुष्य के कहने से विद्वज्जन क्षोभ को प्राप्त नहीं होते क्योंकि कुत्ता के भौंकने से हाथी लज्जा को प्राप्त नहीं होता ॥30॥<span id="31" /> तरंग के समान चेष्टा को धारण करने वाला यह विचित्र लोक दूसरे के दोष कहने में आसक्त है सो इसका निग्रह स्वयं इनका आत्मा करेगी ॥31॥<span id="32" /> जो मूर्ख मनुष्य शिला उखाड़ कर चंद्रमा को नष्ट करना चाहता है वह नि:संदेह स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है ॥32॥<span id="33" /> चुगली करने में तत्पर एवं दूसरे के गुणों को सहन नहीं करने वाला दुष्कर्मा दुष्ट मनुष्य निश्चित ही दुर्गति को प्राप्त होता है ॥33॥<span id="34" /></p> | ||
<p>तदनंतर बलदेव ने कहा कि लक्ष्मण ! तुम जैसा कह रहे हो सत्य वैसा ही है और तुम्हारी मध्यस्थ बुद्धि भी शोभा का स्थान है ॥34॥<span id="35" /> परंतु लोक विरुद्ध कार्य का परित्याग करने वाले शुद्धिशाली मनुष्य का कोई दोष दिखाई नहीं देता अपितु उसके विरुद्ध गुण ही एकांत रूप से संभव मालूम होता है ॥35।।<span id="36" /> उस मनुष्य को संसार में क्या सुख हो सकता है ? अथवा जीवन के प्रति उसे क्या आशा हो सकती है जिसकी दिशाएं सब ओर से निंदारूपी दावानल की ज्वालाओं से व्याप्त हैं ॥36॥<span id="40" /><span id="37" /> अनर्थ को उत्पन्न करने वाले अर्थ से क्या प्रयोजन है ? विष सहित औषधि से क्या लाभ है ? और उस पराक्रम से भी क्या मतलब है जिससे भय में पड़े प्राणियों की रक्षा नहीं होती ? ॥37॥<span id="38" /> उस चारित्र से प्रयोजन नहीं है जिससे आत्मा अपना हित करने में उद्यत नहीं होता और उस ज्ञान से क्या लाभ जिससे अध्यात्म का ज्ञान नहीं होता ॥38।।<span id="36" /> उस मनुष्य का जन्म अच्छा नहीं कहा जा सकता जिसकी कीर्ति रूपी उत्तम वधू को अपयश रूपी बलवान् हर ले जाता है। अरे ! इसकी अपेक्षा तो उसका मरना ही अच्छा है ॥36॥<span id="40" /><span id="37" /> लोकापवाद जाने दो, मेरा भी तो यह बड़ा भारी दोष है जो मैं पर पुरुष के द्वारा हरी हुई सीता को फिर से घर ले आया ॥40॥<span id="41" /><span id="42" /><span id="43" /> सीता ने राक्षस के गृहोद्यान में चिरकाल तक निवास किया, कुत्सित वचन बोलने वाली दूतियों ने उससे अभिलषित पदार्थ की याचना की, समीप की भूमि में वर्तमान रावण ने उसे कई बार दुष्ट दृष्टि से देखा तथा इच्छानुसार उससे वार्तालाप किया। ऐसी उस सीता को घर लाते हुए मैंने लज्जा का अनुभव क्यों नहीं किया ? अथवा मूर्ख मनुष्यों के लिए क्या कठिन है ? ॥41-43।।<span id="44" /> कृतांतवक्त्र सेनापति को शीघ्र ही बुलाया जाय और अकेली गर्भिणी सीता आज ही मेरे घर से ले जाई जाय ॥44॥<span id="45" /> </p> | <p>तदनंतर बलदेव ने कहा कि लक्ष्मण ! तुम जैसा कह रहे हो सत्य वैसा ही है और तुम्हारी मध्यस्थ बुद्धि भी शोभा का स्थान है ॥34॥<span id="35" /> परंतु लोक विरुद्ध कार्य का परित्याग करने वाले शुद्धिशाली मनुष्य का कोई दोष दिखाई नहीं देता अपितु उसके विरुद्ध गुण ही एकांत रूप से संभव मालूम होता है ॥35।।<span id="36" /> उस मनुष्य को संसार में क्या सुख हो सकता है ? अथवा जीवन के प्रति उसे क्या आशा हो सकती है जिसकी दिशाएं सब ओर से निंदारूपी दावानल की ज्वालाओं से व्याप्त हैं ॥36॥<span id="40" /><span id="37" /> अनर्थ को उत्पन्न करने वाले अर्थ से क्या प्रयोजन है ? विष सहित औषधि से क्या लाभ है ? और उस पराक्रम से भी क्या मतलब है जिससे भय में पड़े प्राणियों की रक्षा नहीं होती ? ॥37॥<span id="38" /> उस चारित्र से प्रयोजन नहीं है जिससे आत्मा अपना हित करने में उद्यत नहीं होता और उस ज्ञान से क्या लाभ जिससे अध्यात्म का ज्ञान नहीं होता ॥38।।<span id="36" /> उस मनुष्य का जन्म अच्छा नहीं कहा जा सकता जिसकी कीर्ति रूपी उत्तम वधू को अपयश रूपी बलवान् हर ले जाता है। अरे ! इसकी अपेक्षा तो उसका मरना ही अच्छा है ॥36॥<span id="40" /><span id="37" /> लोकापवाद जाने दो, मेरा भी तो यह बड़ा भारी दोष है जो मैं पर पुरुष के द्वारा हरी हुई सीता को फिर से घर ले आया ॥40॥<span id="41" /><span id="42" /><span id="43" /> सीता ने राक्षस के गृहोद्यान में चिरकाल तक निवास किया, कुत्सित वचन बोलने वाली दूतियों ने उससे अभिलषित पदार्थ की याचना की, समीप की भूमि में वर्तमान रावण ने उसे कई बार दुष्ट दृष्टि से देखा तथा इच्छानुसार उससे वार्तालाप किया। ऐसी उस सीता को घर लाते हुए मैंने लज्जा का अनुभव क्यों नहीं किया ? अथवा मूर्ख मनुष्यों के लिए क्या कठिन है ? ॥41-43।।<span id="44" /> कृतांतवक्त्र सेनापति को शीघ्र ही बुलाया जाय और अकेली गर्भिणी सीता आज ही मेरे घर से ले जाई जाय ॥44॥<span id="45" /> </p> | ||
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<p>स्वामी का आदेश पालन करना चाहिए अथवा अपने नियोग के अनुसार यथार्थ बात अवश्य कहना चाहिए इन दो कारणों से जिस किसी तरह रोना रोक कर उसने यथार्थ बात का निरूपण किया ॥107।<span id="108" /><span id="109" /><span id="110" /><span id="111" /><span id="112" /><span id="113" /><span id="114" /><span id="115" /><span id="116" /><span id="117" /><span id="118" /><span id="119" /><span id="120" /><span id="121" /><span id="122" /><span id="123" /><span id="124" /><span id="125" /><span id="126" /><span id="127" /><span id="128" /><span id="129" /><span id="130" /><span id="131" /><span id="132" /><span id="133" /><span id="134" /><span id="135" /><span id="136" /><span id="137" /><span id="138" /><span id="139" /><span id="140" /><span id="141" /><span id="142" /><span id="143" /><span id="144" /><span id="145" /><span id="146" /><span id="147" /><span id="148" /><span id="149" /><span id="150" /><span id="151" /><span id="152" /><span id="153" /><span id="154" /><span id="155" /><span id="156" /><span id="157" /><span id="158" /><span id="159" /><span id="160" /><span id="161" /><span id="162" /><span id="163" /><span id="164" /><span id="165" /><span id="166" /><span id="167" /><span id="168" /><span id="169" /><span id="170" /><span id="171" /><span id="172" /><span id="173" /><span id="174" /><span id="175" /><span id="176" /><span id="177" /><span id="178" /><span id="179" /><span id="180" /><span id="181" /><span id="182" /><span id="183" /><span id="184" /><span id="185" /><span id="186" /><span id="187" /><span id="188" /><span id="189" /><span id="190" /><span id="191" /><span id="192" /><span id="193" /><span id="194" /><span id="195" /><span id="196" /><span id="197" /><span id="198" /><span id="199" /><span id="200" /><span id="201" /><span id="202" /><span id="203" /><span id="204" /><span id="205" /><span id="206" /> उसने कहा कि हे शुभे ! विष, अग्नि अथवा शस्त्र के समान दुर्जनों का कथन सुनकर जो अपकीर्ति से अत्यधिक भयभीत हो गये थे ऐसे श्रीराम ने दुःख से छूटने योग्य स्नेह छोड़कर दोहलों के बहाने हे देवि ! तुम्हें उस तरह छोड़ दिया है जिस तरह कि मुनि रति को छोड़ देते हैं ।।108-206।।<span id="110" /> हे स्वामिनि ! यद्यपि ऐसा कोई प्रकार नहीं रहा जिससे कि लक्ष्मण ने आपके विषय में उन्हें समझाया नहीं हो तथापि उन्होंने अपनी हठ नहीं छोड़ी ॥110॥<span id="111" /> जिस प्रकार धर्म के संबंध से रहित जीव की सुख स्थिति को कहीं शरण नहीं प्राप्त होता उसी प्रकार उन स्वामी के निःस्नेह होने पर आपके लिए कहीं कोई शरण नहीं जान पड़ता ॥111।।<span id="112" /> हे देवि ! तेरे लिए न माता शरण है, न भाई शरण है, और न कुटुंबीजनों का समूह ही शरण है। इस समय तो तेरे लिए मृगों से व्याप्त यह वन ही शरण है ॥112।।<span id="113" /> </p> | <p>स्वामी का आदेश पालन करना चाहिए अथवा अपने नियोग के अनुसार यथार्थ बात अवश्य कहना चाहिए इन दो कारणों से जिस किसी तरह रोना रोक कर उसने यथार्थ बात का निरूपण किया ॥107।<span id="108" /><span id="109" /><span id="110" /><span id="111" /><span id="112" /><span id="113" /><span id="114" /><span id="115" /><span id="116" /><span id="117" /><span id="118" /><span id="119" /><span id="120" /><span id="121" /><span id="122" /><span id="123" /><span id="124" /><span id="125" /><span id="126" /><span id="127" /><span id="128" /><span id="129" /><span id="130" /><span id="131" /><span id="132" /><span id="133" /><span id="134" /><span id="135" /><span id="136" /><span id="137" /><span id="138" /><span id="139" /><span id="140" /><span id="141" /><span id="142" /><span id="143" /><span id="144" /><span id="145" /><span id="146" /><span id="147" /><span id="148" /><span id="149" /><span id="150" /><span id="151" /><span id="152" /><span id="153" /><span id="154" /><span id="155" /><span id="156" /><span id="157" /><span id="158" /><span id="159" /><span id="160" /><span id="161" /><span id="162" /><span id="163" /><span id="164" /><span id="165" /><span id="166" /><span id="167" /><span id="168" /><span id="169" /><span id="170" /><span id="171" /><span id="172" /><span id="173" /><span id="174" /><span id="175" /><span id="176" /><span id="177" /><span id="178" /><span id="179" /><span id="180" /><span id="181" /><span id="182" /><span id="183" /><span id="184" /><span id="185" /><span id="186" /><span id="187" /><span id="188" /><span id="189" /><span id="190" /><span id="191" /><span id="192" /><span id="193" /><span id="194" /><span id="195" /><span id="196" /><span id="197" /><span id="198" /><span id="199" /><span id="200" /><span id="201" /><span id="202" /><span id="203" /><span id="204" /><span id="205" /><span id="206" /> उसने कहा कि हे शुभे ! विष, अग्नि अथवा शस्त्र के समान दुर्जनों का कथन सुनकर जो अपकीर्ति से अत्यधिक भयभीत हो गये थे ऐसे श्रीराम ने दुःख से छूटने योग्य स्नेह छोड़कर दोहलों के बहाने हे देवि ! तुम्हें उस तरह छोड़ दिया है जिस तरह कि मुनि रति को छोड़ देते हैं ।।108-206।।<span id="110" /> हे स्वामिनि ! यद्यपि ऐसा कोई प्रकार नहीं रहा जिससे कि लक्ष्मण ने आपके विषय में उन्हें समझाया नहीं हो तथापि उन्होंने अपनी हठ नहीं छोड़ी ॥110॥<span id="111" /> जिस प्रकार धर्म के संबंध से रहित जीव की सुख स्थिति को कहीं शरण नहीं प्राप्त होता उसी प्रकार उन स्वामी के निःस्नेह होने पर आपके लिए कहीं कोई शरण नहीं जान पड़ता ॥111।।<span id="112" /> हे देवि ! तेरे लिए न माता शरण है, न भाई शरण है, और न कुटुंबीजनों का समूह ही शरण है। इस समय तो तेरे लिए मृगों से व्याप्त यह वन ही शरण है ॥112।।<span id="113" /> </p> | ||
<p>तदनंतर सीता उसके वचन सुन हृदय में वज्र से ताड़ित के समान अत्यधिक दुःख से व्याप्त होती हुई मोह को प्राप्त हो गई ॥113॥<span id="114" /> बड़ी कठिनाई से चेतना प्राप्त कर उसने लड़खड़ाते अक्षरों वाली वाणी में कहा कि कुछ पूछने के लिए मुझे एक बार स्वामी के दर्शन करा दो ॥114।<span id="115" /> इसके उत्तर में कृतांतवक्त्र ने कहा कि हे देवि ! इस समय तो वह नगरी बहुत दूर रह गई है अतः अत्यधिक कठोर आज्ञा देने वाले स्वामी-राम को किस प्रकार देख सकती हो ? ॥115॥<span id="116" /> तदनंतर सीता यद्यपि अश्रुजल की धारा में मुखकमल का प्रक्षालन कर रही थी तथापि अत्यधिक स्नेह रस से आक्रांत हो उसने यह कहा कि ॥116॥<span id="117" /> हे सेनापते ! तुम मेरी ओर से राम से यह कहना कि हे प्रभो ! आपको मेरे त्याग से उत्पन्न हुआ विषाद नहीं करना चाहिए ।।117॥<span id="118" /> हे महापुरुष ! परम धैर्य का अवलंबन कर सदा पिता के समान न्याय वत्सल हो प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना ॥118॥<span id="119" /> क्योंकि जिस प्रकार प्रजा पूर्ण कलाओं को प्राप्त करने वाले शरद् ऋतु के चंद्रमा की सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है उसी प्रकार कलाओं के पार को प्राप्त करने वाले एवं आह्लाद के कारणभूत राजा की प्रजा सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है ॥119॥<span id="120" /> जिस सम्यग्दर्शन के द्वारा भव्य जीव दुःखों से भयंकर संसार से छूट जाते हैं उस सम्यग्दर्शन की अच्छी तरह आराधना करने के योग्य हो ॥120।।<span id="121" /> हे राम ! साम्राज्य की अपेक्षा वह सम्यग्दर्शन ही अधिक माना जाता है क्योंकि साम्राज्य तो नष्ट हो जाता है परंतु सम्यग्दर्शन स्थिर सुख को देने वाला है ॥121॥<span id="122" /> हे पुरुषोत्तम ! अभव्यों के द्वारा की हुई जुगुप्सा से भयभीत होकर तुम्हें वह सम्यग्दर्शन किसी भी तरह नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वह अत्यंत दुर्लभ है ।।122।।<span id="123" /> हथेली में आया रत्न यदि महासागर में गिर जाता है तो फिर वह किस उपाय से प्राप्त हो सकता है ? ॥123॥<span id="124" /> अमृत फल को महा आपत्ति से भयंकर कुएँ में फेंककर पश्चात्ताप से पीड़ित बालक परम दुःख को प्राप्त होता है ॥124॥<span id="125" /> जिसके अनुरूप जो होता है वह उसे बिना किसी प्रतिबंध के कहता ही है क्योंकि इस संसार का मुख बंधन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥125॥<span id="126" /> हे गुणभूषण ! यद्यपि आत्म हित को नष्ट करने वाली अनेक बातें आप श्रवण करेंगे तथापि अहिल (पागल) के समान उन्हें हृदय में नहीं धारण करना; विचारपूर्वक ही कार्य करना ।।126॥<span id="127" /> जिस प्रकार सूर्य यद्यपि अत्यंत तेजस्वी रहता है तथापि संसार के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने से यथाभूत है एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होता इसलिए लोगों को प्रिय है उसी प्रकार यद्यपि आप तीव्र शासन से युक्त हो तथापि जगत् के समस्त पदार्थों को ठीक-ठीक जानने के कारण यथाभूत यथार्थ रूप रहना एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होने से सूर्य के समान सबको प्रिय रहना ॥127॥<span id="128" /> दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर वश करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तम शील अर्थात् निर्दोष आचरण से वश करना और मित्र को सद्भाव पूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना ॥128।।<span id="129" /><span id="130" /> क्षमा से क्रोध को, मार्दव से चाहे जहाँ होने वाले मान को, आर्जव से माया को और धैर्य से लोभ को कृश करना ।।129-130।।<span id="131" /> हे नाथ ! आप तो समस्त शास्त्रों में प्रवीण हो अतः आपको उपदेश देना योग्य नहीं है, यह जो मैंने कहा है वह आपके प्रेम रूपी ग्रह से संयोग रखने वाले मेरे हृदय की चपलता है ॥131॥<span id="132" /> हे स्वामिन् ! आपके वशीभूत होने से अथवा परिहास के कारण यदि मैंने कुछ अविनय किया हो तो उस सबको क्षमा कीजिये ॥132।।<span id="133" /> हे प्रभो ! जान पड़ता है कि आपके साथ मेरा दर्शन इतना ही था इसलिए बार-बार कह रही हूँ कि मेरी प्रवृत्ति उचित हो अथवा अनुचित; सब क्षमा करने योग्य है ॥133।।<span id="134" /></p> | <p>तदनंतर सीता उसके वचन सुन हृदय में वज्र से ताड़ित के समान अत्यधिक दुःख से व्याप्त होती हुई मोह को प्राप्त हो गई ॥113॥<span id="114" /> बड़ी कठिनाई से चेतना प्राप्त कर उसने लड़खड़ाते अक्षरों वाली वाणी में कहा कि कुछ पूछने के लिए मुझे एक बार स्वामी के दर्शन करा दो ॥114।<span id="115" /> इसके उत्तर में कृतांतवक्त्र ने कहा कि हे देवि ! इस समय तो वह नगरी बहुत दूर रह गई है अतः अत्यधिक कठोर आज्ञा देने वाले स्वामी-राम को किस प्रकार देख सकती हो ? ॥115॥<span id="116" /> तदनंतर सीता यद्यपि अश्रुजल की धारा में मुखकमल का प्रक्षालन कर रही थी तथापि अत्यधिक स्नेह रस से आक्रांत हो उसने यह कहा कि ॥116॥<span id="117" /> हे सेनापते ! तुम मेरी ओर से राम से यह कहना कि हे प्रभो ! आपको मेरे त्याग से उत्पन्न हुआ विषाद नहीं करना चाहिए ।।117॥<span id="118" /> हे महापुरुष ! परम धैर्य का अवलंबन कर सदा पिता के समान न्याय वत्सल हो प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना ॥118॥<span id="119" /> क्योंकि जिस प्रकार प्रजा पूर्ण कलाओं को प्राप्त करने वाले शरद् ऋतु के चंद्रमा की सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है उसी प्रकार कलाओं के पार को प्राप्त करने वाले एवं आह्लाद के कारणभूत राजा की प्रजा सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है ॥119॥<span id="120" /> जिस सम्यग्दर्शन के द्वारा भव्य जीव दुःखों से भयंकर संसार से छूट जाते हैं उस सम्यग्दर्शन की अच्छी तरह आराधना करने के योग्य हो ॥120।।<span id="121" /> हे राम ! साम्राज्य की अपेक्षा वह सम्यग्दर्शन ही अधिक माना जाता है क्योंकि साम्राज्य तो नष्ट हो जाता है परंतु सम्यग्दर्शन स्थिर सुख को देने वाला है ॥121॥<span id="122" /> हे पुरुषोत्तम ! अभव्यों के द्वारा की हुई जुगुप्सा से भयभीत होकर तुम्हें वह सम्यग्दर्शन किसी भी तरह नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वह अत्यंत दुर्लभ है ।।122।।<span id="123" /> हथेली में आया रत्न यदि महासागर में गिर जाता है तो फिर वह किस उपाय से प्राप्त हो सकता है ? ॥123॥<span id="124" /> अमृत फल को महा आपत्ति से भयंकर कुएँ में फेंककर पश्चात्ताप से पीड़ित बालक परम दुःख को प्राप्त होता है ॥124॥<span id="125" /> जिसके अनुरूप जो होता है वह उसे बिना किसी प्रतिबंध के कहता ही है क्योंकि इस संसार का मुख बंधन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥125॥<span id="126" /> हे गुणभूषण ! यद्यपि आत्म हित को नष्ट करने वाली अनेक बातें आप श्रवण करेंगे तथापि अहिल (पागल) के समान उन्हें हृदय में नहीं धारण करना; विचारपूर्वक ही कार्य करना ।।126॥<span id="127" /> जिस प्रकार सूर्य यद्यपि अत्यंत तेजस्वी रहता है तथापि संसार के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने से यथाभूत है एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होता इसलिए लोगों को प्रिय है उसी प्रकार यद्यपि आप तीव्र शासन से युक्त हो तथापि जगत् के समस्त पदार्थों को ठीक-ठीक जानने के कारण यथाभूत यथार्थ रूप रहना एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होने से सूर्य के समान सबको प्रिय रहना ॥127॥<span id="128" /> दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर वश करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तम शील अर्थात् निर्दोष आचरण से वश करना और मित्र को सद्भाव पूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना ॥128।।<span id="129" /><span id="130" /> क्षमा से क्रोध को, मार्दव से चाहे जहाँ होने वाले मान को, आर्जव से माया को और धैर्य से लोभ को कृश करना ।।129-130।।<span id="131" /> हे नाथ ! आप तो समस्त शास्त्रों में प्रवीण हो अतः आपको उपदेश देना योग्य नहीं है, यह जो मैंने कहा है वह आपके प्रेम रूपी ग्रह से संयोग रखने वाले मेरे हृदय की चपलता है ॥131॥<span id="132" /> हे स्वामिन् ! आपके वशीभूत होने से अथवा परिहास के कारण यदि मैंने कुछ अविनय किया हो तो उस सबको क्षमा कीजिये ॥132।।<span id="133" /> हे प्रभो ! जान पड़ता है कि आपके साथ मेरा दर्शन इतना ही था इसलिए बार-बार कह रही हूँ कि मेरी प्रवृत्ति उचित हो अथवा अनुचित; सब क्षमा करने योग्य है ॥133।।<span id="134" /></p> | ||
<p>जो रथ के मध्य से पहले ही उतर चुकी थी ऐसी सीता इस प्रकार कहकर तृण तथा पत्थरों से व्याप्त पृथिवी पर गिर पड़ी ।।134।।<span id="535" /> उस पृथिवी पर पड़ी, मूर्च्छा से निश्चल सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो रत्नों का समूह ही बिखर गया हो ॥535॥<span id="136" /> चेष्टाहीन सीता को देखकर सेनापति ने अत्यंत दुःखी हो इस प्रकार विचार किया कि यह प्राणों को बड़ी कठिनाई से धारण कर सकेगी ॥136।।<span id="137" /> हिंसक जीवों के समूह से भरे हुए इस महा भयंकर वन में धीर वीर मनुष्य भी जीवित रहने की आशा नहीं रख सकता ॥137।।<span id="138" /> इस विकट वन में इस मृगनयनी को छोड़कर मैं वह स्थान नहीं देखता जहाँ मुझे शांति प्राप्त हो सकेगी ॥138॥<span id="136" /> इस ओर अत्यंत भयंकर निर्दयता है और उस ओर स्वामी की | <p>जो रथ के मध्य से पहले ही उतर चुकी थी ऐसी सीता इस प्रकार कहकर तृण तथा पत्थरों से व्याप्त पृथिवी पर गिर पड़ी ।।134।।<span id="535" /> उस पृथिवी पर पड़ी, मूर्च्छा से निश्चल सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो रत्नों का समूह ही बिखर गया हो ॥535॥<span id="136" /> चेष्टाहीन सीता को देखकर सेनापति ने अत्यंत दुःखी हो इस प्रकार विचार किया कि यह प्राणों को बड़ी कठिनाई से धारण कर सकेगी ॥136।।<span id="137" /> हिंसक जीवों के समूह से भरे हुए इस महा भयंकर वन में धीर वीर मनुष्य भी जीवित रहने की आशा नहीं रख सकता ॥137।।<span id="138" /> इस विकट वन में इस मृगनयनी को छोड़कर मैं वह स्थान नहीं देखता जहाँ मुझे शांति प्राप्त हो सकेगी ॥138॥<span id="136" /> इस ओर अत्यंत भयंकर निर्दयता है और उस ओर स्वामी की सुदृढ़ आज्ञा है । अहो ! मैं पापी दुःख रूपी महाआवर्त के बीच आ पड़ा हूँ ॥136॥<span id="140" /> जिसमें इच्छा के विरुद्ध चाहे जो करना पड़ता है, आत्मा परतंत्र हो जाती है, और क्षुद्र मनुष्य ही जिसकी सेवा करते हैं ऐसी लोकनिंद्य दासवृत्ति को धिक्कार है ॥140।।<span id="141" /> जो यंत्र की चेष्टाओं के समान है तथा जिसकी आत्मा निरंतर दुःख ही उठाती है ऐसे सेवक के जीवन की अपेक्षा कुक्कुर का जीवन बहुत अच्छा है ॥141॥<span id="142" /> जो नरेंद्र अर्थात राजा (पक्ष में मांत्रिक) की शक्ति के आधीन है तथा निंद्य नाम का धारक है ऐसा सेवक पिशाच के समान क्या नहीं करता है ? और क्या नहीं बोलता है ? ॥142।।<span id="143" /> जो चित्र लिखित धनुष के समान है, जो कार्य रहित गुण अर्थात डोरी (पक्ष में ज्ञानादि ) से सहित है तथा जिसका शरीर निरंतर नम्र रहता है ऐसे भृत्य का जीवन निंद्य जीवन है ॥143॥<span id="144" /> सेवक कचड़ा घर के समान है। जिस प्रकार लोग कचड़ा घर में कचड़ा डालकर पीछे उससे अपना चित्त दूर हटा लेते हैं उसी प्रकार लोग सेवक से काम लेकर पीछे उससे चित्त हटा लेते हैं उसके गौरव को भूल जाते हैं, जिस प्रकार कचड़ा घर निर्माल्य अर्थात् उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है उसी प्रकार सेवक भी स्वामी की उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है। इस प्रकार सेवक नाम को धारण करने वाले मनुष्य के जीवित रहने को बार-बार धिक्कार है ॥144॥<span id="145" /> जो अपने गौरव को पीछे कर देता है तथा पानी प्राप्त करने के लिए भी जिसे झुकना पड़ता है इस प्रकार तुला यंत्र की तुल्यता को धारण करने वाले भृत्य का जीवित रहना धिक्कार पूर्ण है ।।145॥<span id="146" /> जो उन्नति, लज्जा, दीप्ति और स्वयं निज की इच्छा से रहित है तथा जिसका स्वरूप मिट्टी के पुतले के समान क्रियाहीन है ऐसे सेवक का जीवन किसी को प्राप्त न हो ॥146।।<span id="147" /> जो विमान अर्थात् व्योमयान ( पक्ष में मान रहित ) होकर भी गति से रहित है तथा जो गुरुता के साथ-साथ निरंतर नीचे जाता है ऐसे भृत्य के जीवन को धिक्कार है ।।147॥<span id="148" /> जो स्वयं शक्ति से रहित है, अपना मांस भी बेचता है, सदा मद से शून्य है और परतंत्र है ऐसे भृत्य के जीवन को धिक्कार है ।।148॥<span id="149" /> जिसके उदय में भृत्यता करनी पड़ती है ऐसे कर्म से मैं विवश हो रहा हूँ इसीलिए तो इस दारुण अवसर के समय भी इस भृत्यता को नहीं छोड़ रहा हूँ ॥149।।<span id="150" /> इस प्रकार विचार कर धर्म बुद्धि के समान सीता को छोड़कर सेनापति लज्जित होता हुआ अयोध्या के सम्मुख चला गया ॥150॥<span id="151" /> तदनंतर इधर जिसे चेतना प्राप्त हुई थी ऐसी सीता अत्यंत दुःखी होती हुई यूथ से बिछुड़ी हरिणी के समान रोदन करने लगी ॥151॥<span id="152" /> करुण रोदन करनेवाली सीता के दुःख से दुःखी होकर वृक्षों के समूह ने भी मानो पुष्प छोड़ने के बहाने ही रोदन किया था ॥152॥<span id="153" /> तदनंतर महाशोक से वशीभूत सीता स्वभाव सुंदर स्वर से विलाप करने लगी ॥153।।<span id="154" /> वह कहने लगी कि हे कमललोचन ! हा पद्म ! हा नरोत्तम ! हा प्रभो ! हा देव ! उत्तर देओ; मुझे सांत्वना करो ॥154॥<span id="155" /> आप निरंतर उत्तम चेष्टा के धारक हैं, सद्गुणों से सहित हैं, सहृदय हैं और महापुरुषता से युक्त हैं। मेरे त्याग में आपका लेश मात्र भी दोष नहीं है ॥155॥<span id="156" /> मैंने पूर्व भव में जो स्वयं कर्म किया था उसी का यह फल प्राप्त हुआ है अतः यह बहुत भारी दुःख मुझे अवश्य भोगना चाहिए ।।156।।<span id="157" /> जब मेरा अपना किया कर्म उदय में आ रहा है तब पति, पुत्र, पिता, नारायण अथवा अन्य परिवार के लोग क्या कर सकते हैं ॥157।।<span id="158" /> निश्चित ही मैंने पूर्व भव में पाप का उपार्जन किया होगा इसीलिए तो मैं अभागिनी निर्जन वन में परम दुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥158॥<span id="159" /> निश्चित ही मैंने गोष्ठियों में किसी का मिथ्या दोष कहा होगा जिसके उदय से मुझे यह ऐसा संकट प्राप्त हुआ है ।।159।।<span id="160" /> निश्चित ही मैने अन्य जन्म में गुरु के समक्ष व्रत लेकर भग्न किया होगा जिसका यह ऐसा फल प्राप्त हुआ है ॥160॥<span id="161" /> अथवा अन्य भव में मैंने विष फल के समान कठोर वचनों से किसी का तिरस्कार किया होगा इसीलिए मुझे ऐसा दुःख प्राप्त हुआ है ॥161॥<span id="162" /> जान पड़ता है कि मैंने अन्य जन्म में कमलवन में स्थित चकवा-चकवी के युगल को अलग किया होगा इसीलिए तो मैं भर्ता से रहित हुई हूँ ॥162॥<span id="97" /><span id="163" /><span id="164" /><span id="165" /> अथवा जो कमल आदि से विभूषित सरोवर में निवास करता था, जो उत्तम पुरुषों की गमन संबंधी लीला में विलंब उत्पन्न करने वाला था, जो अपने कल-कूजन और सौंदर्य में स्त्रियों की उपमा प्राप्त करता था, जो लक्ष्मण के महल के समान उत्तम कांति से युक्त था, और जिसके मुख तथा चरण कमल के समान लाल थे ऐसे हंस-हंसियों के युगल को मैंने पूर्वभव में अपनी कुचेष्टा से जुदा-जुदा किया होगा इसीलिए तो मैं अभागिनी इस घोर निष्कासन को प्राप्त हुई हूँ― घर से अलग की गई हूँ ॥163-165॥<span id="166" /><span id="167" /><span id="168" /> अथवा गुंजा फल के अर्ध भाग के समान जिसके नेत्र थे, परस्पर एक दूसरे के लिए जिसने अपना हृदय सौंप रक्खा था, जो काला गुरु चंदन से उत्पन्न हुए सघन धूम के समान धूसर वर्ण था, जो सुख से क्रीडा कर रहा था, और कंठ में मनोहर अव्यक्त शब्द विद्यमान था ऐसे कबूतर-कबूतरियों के युगल को मैंने पाप पूर्ण चित्त से जुदा किया होगा। अथवा अनुचित स्थान में उसे रक्खा होगा अथवा बाँधा होगा अथवा मारा होगा, अथवा सन्मान-लालन-पालन आदि से रहित किया होगा इसीलिए मै ऐसे दुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥166-168॥<span id="166" /> अथवा जब सब वृक्ष फूलों से युक्त हो जाते हैं ऐसे रमणीय वसंत के समय कोकिल और कोकिलाओं के युगल को मैंने पृथक् पृथक् किया होगा जिसका यह ऐसा फल प्राप्त हुआ है ॥166॥<span id="170" /> अथवा मैंने क्षमा के धारक, सदाचार के पालक, इंद्रियों को जीतने वाले तथा विद्वानों के द्वारा वंदनीय मुनियों की निंदा की होगी जिसके फलस्वरूप इस महादुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥170।।<span id="171" /></p> | ||
<p>आज्ञा मिलते ही हर्षित होने वाले उत्तम भृत्यों के समूह जिसकी सदा सेवा करते थे ऐसी जो मैं पहले स्वर्ग तुल्य घर में रहती थी वह मैं इस समय बंधुजन से रहित इस सघन वन में कैसे रहूँगी ? मेरे पुण्य का समूह क्षय हो गया है, मैं दुःखों के सागर में डूब रही हूँ तथा मैं अत्यंत पापिनी हूँ ॥171॥<span id="172" /><span id="173" /><span id="174" /> जिस पर नाना रत्नों की किरणों का प्रकाश फैल रहा था, जो उत्तर चादर से आच्छादित था, महा रमणीय था तथा सब प्रकार के उपकरणों से सहित था ऐसे उत्तम शयन पर सुख से निद्रा का सेवन करती थी तथा प्रातःकाल के समय बाँसुरी, त्रिसरिका और वीणा के संगीतमय मधुर स्वर से जागा करती थी ॥172-174॥<span id="175" /><span id="176" /> वही मैं अपयश रूपी दावानल से जली दुःखिनी, श्री रामदेव की प्रधान रानी पापिनी अकेली इस दुःखदायी वन के बीच कीड़े, कठोर डाभ और तीक्ष्ण पत्थरों के समूह से युक्त पृथिवीतल में कैसे रहूँगी? ॥175-176।।<span id="177" /> यदि ऐसी अवस्था पाकर भी ये प्राण मुझमें स्थित हैं तब तो कहना चाहिए कि मेरे प्राण वज्र से निर्मित हैं ॥177॥<span id="178" /> अहो हृदय ! ऐसी अवस्था को पाकर भी जो तुम सौ टुकड़े नहीं हो जाते हो उससे जान पड़ता है कि तुम्हारे समान दूसरा साहसी नहीं है ॥178।।<span id="176" /> क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ! किसका आश्रय लूँ ? कैसे ठहरूँ ? हाय मातः ! यह ऐसा क्यों हुआ ? ॥176।।<span id="180" /> हे सद्गुणों के सागर राम ! हा भक्त लक्ष्मण ! हा पिता! क्या तुम मुझे नहीं जानते हो ? हा मात ! तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करती हो ? ॥180॥<span id="181" /> अहो विद्याधरों के अधीश भाई कुंडलमंडित ! यह मैं कुलक्षणा दुःखरूपी आवर्त में भ्रमण करती यहाँ पड़ी हूँ ॥181॥<span id="182" /> खेद है कि मैं पापिनी पति के साथ बड़े वैभव से, पृथिवी पर जो जिनमंदिर हैं उनमें जिनेंद्र भगवान की पूजा नहीं कर सकी ॥182॥<span id="18" /></p> | <p>आज्ञा मिलते ही हर्षित होने वाले उत्तम भृत्यों के समूह जिसकी सदा सेवा करते थे ऐसी जो मैं पहले स्वर्ग तुल्य घर में रहती थी वह मैं इस समय बंधुजन से रहित इस सघन वन में कैसे रहूँगी ? मेरे पुण्य का समूह क्षय हो गया है, मैं दुःखों के सागर में डूब रही हूँ तथा मैं अत्यंत पापिनी हूँ ॥171॥<span id="172" /><span id="173" /><span id="174" /> जिस पर नाना रत्नों की किरणों का प्रकाश फैल रहा था, जो उत्तर चादर से आच्छादित था, महा रमणीय था तथा सब प्रकार के उपकरणों से सहित था ऐसे उत्तम शयन पर सुख से निद्रा का सेवन करती थी तथा प्रातःकाल के समय बाँसुरी, त्रिसरिका और वीणा के संगीतमय मधुर स्वर से जागा करती थी ॥172-174॥<span id="175" /><span id="176" /> वही मैं अपयश रूपी दावानल से जली दुःखिनी, श्री रामदेव की प्रधान रानी पापिनी अकेली इस दुःखदायी वन के बीच कीड़े, कठोर डाभ और तीक्ष्ण पत्थरों के समूह से युक्त पृथिवीतल में कैसे रहूँगी? ॥175-176।।<span id="177" /> यदि ऐसी अवस्था पाकर भी ये प्राण मुझमें स्थित हैं तब तो कहना चाहिए कि मेरे प्राण वज्र से निर्मित हैं ॥177॥<span id="178" /> अहो हृदय ! ऐसी अवस्था को पाकर भी जो तुम सौ टुकड़े नहीं हो जाते हो उससे जान पड़ता है कि तुम्हारे समान दूसरा साहसी नहीं है ॥178।।<span id="176" /> क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ! किसका आश्रय लूँ ? कैसे ठहरूँ ? हाय मातः ! यह ऐसा क्यों हुआ ? ॥176।।<span id="180" /> हे सद्गुणों के सागर राम ! हा भक्त लक्ष्मण ! हा पिता! क्या तुम मुझे नहीं जानते हो ? हा मात ! तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करती हो ? ॥180॥<span id="181" /> अहो विद्याधरों के अधीश भाई कुंडलमंडित ! यह मैं कुलक्षणा दुःखरूपी आवर्त में भ्रमण करती यहाँ पड़ी हूँ ॥181॥<span id="182" /> खेद है कि मैं पापिनी पति के साथ बड़े वैभव से, पृथिवी पर जो जिनमंदिर हैं उनमें जिनेंद्र भगवान की पूजा नहीं कर सकी ॥182॥<span id="18" /></p> | ||
<p>अथानंतर जब विह्वल चित्त सीता विलाप कर रही थी तब एक वज्रजंघ नामक राजा उस वन के मध्य आया ॥18।।<span id="184" /><span id="16" /> वज्रजंघ पुंडरीकपुर का स्वामी था, हाथी पकड़ने के लिए उस वन में आया था और हाथी पकड़कर बड़े वैभव से लौटकर वापिस आ रहा था ॥184॥<span id="185" /><span id="186" /> उसकी सेना के अग्रभाग में जो सैनिक उछलते हुए जा रहे थे वे यद्यपि अपने हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र लिये थे, सुंदर थे, शूरवीर थे और छुरियाँ बाँधे हुए थे तथापि सीता का वह अतिशय मनोहर रोदन का शब्द सुनकर वे संशय में पड़ गये तथा इतने भयभीत हो गये कि एक डग भी आगे नहीं दे सके ॥185-186॥<span id="187" /> सेना के आगे चलने वाला जो घोड़ों का समूह था वह भी रुक गया तथा उस रोदन का शब्द सुन आशंका से युक्त घुड़सवार भी उसे प्रेरित नहीं कर सके ॥187॥<span id="188" /> वे विचार करने लगे कि जहाँ मृत्यु के कारणभूत अनेक प्राणी विद्यमान हैं ऐसे इस अत्यंत भयंकर वन में यह स्त्री के रोने का मनोहर शब्द हो रहा है सो यह बड़ी विचित्र क्या बात है ? ॥188॥<span id="189" /> जो मृग, भैंसा, भेड़िया, चीता और तेंदुआ से चंचल है जहाँ अष्टापद और सिंह घूम रहे हैं, तथा जो सुअरों की दाँढों से भयंकर है ऐसे इस वन के मध्य में अत्यंत निर्मल चंद्रमा की रेखा के समान यह कौन हृदय के हरने में निपुण रो रही है ? ॥189॥<span id="190" /> क्या यह सौधर्म स्वर्ग से इंद्र के द्वारा छोड़ी और पृथिवीतल पर आई हुई कोई इंद्राणी है अथवा मनुष्यों के सुख संगीत को नष्ट करने वाली एवं प्रलय के कारण को उत्पन्न करने वाली कोई देवी कहीं से आ पहुँची है ? ॥190॥<span id="191" /> इस प्रकार जिसे तर्क उत्पन्न हो रहा था, जिसने अपनी चेष्टा छोड़ दी थी, वेग से चलने वाले मूल पुरुष जिसमें आकर इकट्ठे हो रहे थे, जिसमें अत्यधिक बाजे बज रहे थे, जो किसी बड़ी भँवर के समान जान पड़ती थी और जो आश्चर्य से युक्त थी ऐसी वह विशाल सेना निश्चल खड़ी हो गई ॥191॥<span id="162" /> </p> | <p>अथानंतर जब विह्वल चित्त सीता विलाप कर रही थी तब एक वज्रजंघ नामक राजा उस वन के मध्य आया ॥18।।<span id="184" /><span id="16" /> वज्रजंघ पुंडरीकपुर का स्वामी था, हाथी पकड़ने के लिए उस वन में आया था और हाथी पकड़कर बड़े वैभव से लौटकर वापिस आ रहा था ॥184॥<span id="185" /><span id="186" /> उसकी सेना के अग्रभाग में जो सैनिक उछलते हुए जा रहे थे वे यद्यपि अपने हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र लिये थे, सुंदर थे, शूरवीर थे और छुरियाँ बाँधे हुए थे तथापि सीता का वह अतिशय मनोहर रोदन का शब्द सुनकर वे संशय में पड़ गये तथा इतने भयभीत हो गये कि एक डग भी आगे नहीं दे सके ॥185-186॥<span id="187" /> सेना के आगे चलने वाला जो घोड़ों का समूह था वह भी रुक गया तथा उस रोदन का शब्द सुन आशंका से युक्त घुड़सवार भी उसे प्रेरित नहीं कर सके ॥187॥<span id="188" /> वे विचार करने लगे कि जहाँ मृत्यु के कारणभूत अनेक प्राणी विद्यमान हैं ऐसे इस अत्यंत भयंकर वन में यह स्त्री के रोने का मनोहर शब्द हो रहा है सो यह बड़ी विचित्र क्या बात है ? ॥188॥<span id="189" /> जो मृग, भैंसा, भेड़िया, चीता और तेंदुआ से चंचल है जहाँ अष्टापद और सिंह घूम रहे हैं, तथा जो सुअरों की दाँढों से भयंकर है ऐसे इस वन के मध्य में अत्यंत निर्मल चंद्रमा की रेखा के समान यह कौन हृदय के हरने में निपुण रो रही है ? ॥189॥<span id="190" /> क्या यह सौधर्म स्वर्ग से इंद्र के द्वारा छोड़ी और पृथिवीतल पर आई हुई कोई इंद्राणी है अथवा मनुष्यों के सुख संगीत को नष्ट करने वाली एवं प्रलय के कारण को उत्पन्न करने वाली कोई देवी कहीं से आ पहुँची है ? ॥190॥<span id="191" /> इस प्रकार जिसे तर्क उत्पन्न हो रहा था, जिसने अपनी चेष्टा छोड़ दी थी, वेग से चलने वाले मूल पुरुष जिसमें आकर इकट्ठे हो रहे थे, जिसमें अत्यधिक बाजे बज रहे थे, जो किसी बड़ी भँवर के समान जान पड़ती थी और जो आश्चर्य से युक्त थी ऐसी वह विशाल सेना निश्चल खड़ी हो गई ॥191॥<span id="162" /> </p> | ||
<p>घोड़ों के समूह ही जिसमें मगर थे, तेजस्वी पैदल सैनिक ही जिसमें मीन थे, हाथियों के समूह ही जिसमें ग्राह थे, जो प्रचंड शब्द से युक्त थी और सूर्य की किरणों के पड़ने से चमकती हुई तलवार रूपी तरंगों से जो भय उत्पन्न करने वाली थी ऐसी वह सेना समुद्र के समान जान पड़ती थी ॥162॥<span id="97" /><span id="163" /><span id="164" /><span id="165" /></p> | <p>घोड़ों के समूह ही जिसमें मगर थे, तेजस्वी पैदल सैनिक ही जिसमें मीन थे, हाथियों के समूह ही जिसमें ग्राह थे, जो प्रचंड शब्द से युक्त थी और सूर्य की किरणों के पड़ने से चमकती हुई तलवार रूपी तरंगों से जो भय उत्पन्न करने वाली थी ऐसी वह सेना समुद्र के समान जान पड़ती थी ॥162॥<span id="97" /><span id="163" /><span id="164" /><span id="165" /></p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा विरचित श्री पद्मपुराण में सीता के निर्वासन, विलाप और वज्रजंघ के आगमन का वर्णन | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा विरचित श्री पद्मपुराण में सीता के निर्वासन, विलाप और वज्रजंघ के आगमन का वर्णन करने वाला सतानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥97॥<span id="98" /></p> | ||
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Latest revision as of 18:13, 15 September 2024
सतानवेवां पर्व
अथानंतर किसी तरह एक वस्तु में चिंता को स्थिर कर श्रीराम ने लक्ष्मण को बुलाने के लिए द्वारपाल को आज्ञा दी ॥1॥ कार्यों के देखने में जिनका मन लग रहा था ऐसे लक्ष्मण, द्वारपाल के वचन सुन हड़बड़ाहट के साथ चंचल घोड़े पर सवार हो श्रीराम के निकट पहुंचे और हाथ जोड़ नमस्कार कर उनके चरणों में दृष्टि लगाये हुए मनोहर पृथिवी पर बैठ गये ॥2-3।। जिनका शरीर विनय से नम्रीभूत था तथा जो परम आज्ञाकारी थे ऐसे लक्ष्मण को स्वयं उठाकर राम ने अर्धासन पर बैठाया ॥4।। जिनमें शत्रुघ्न प्रधान था ऐसे विराधित आदि राजा भी आज्ञा लेकर भीतर प्रविष्ट हुए और सब यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये ।।5।। पुरोहित, नगर सेठ, मंत्री तथा अन्य सज्जन कुतूहल से युक्त हो यथायोग्य स्थान पर बैठ गये ॥6॥
तदनंतर क्षण भर ठहर कर राम ने यथाक्रम से लक्ष्मण के लिए अपवाद उत्पन्न होने का समाचार सुनाया ॥7॥ सो उसे सुनकर लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने उसी समय योद्धाओं को तैयार होने का आदेश दिया तथा स्वयं कहा कि मैं आज दुर्जनरूपी समुद्र के अंत को प्राप्त होता हूँ और मिथ्यावादी लोगों की जिह्वाओं से पृथिवी को आच्छादित करता हूँ ॥8-6॥ अनुपम शील के समूह को धारण करने वाली एवं गुणों से गंभीर सीता के प्रति जो द्वेष करते हैं मैं उन्हें आज क्षय को प्राप्त कराता हूँ ॥10॥ तदनंतर जो क्रोध के वशीभूत हो दुर्दशनीय अवस्था को प्राप्त हुए थे तथा जिन्होंने सभा को क्षोभ युक्त कर दिया था ऐसे लक्ष्मण को राम ने इन वचनों से शांत किया कि हे सौम्य ! यह समुद्रांत पृथिवी भगवान् ऋषभदेव तथा भरत चक्रवर्ती जैसे उत्तमोत्तम पुरुषों के द्वारा चिरकाल से पालित है ॥11-12॥ अर्ककीर्ति आदि राजा इक्ष्वाकुवंश के तिलक थे। जिस प्रकार कोई चंद्रमा की पीठ नहीं देख सकता उसी प्रकार इनकी पीठ भी युद्ध में शत्रु नहीं देख सके थे ।।13।। चाँदनी रूपी पट के समान सुशोभित उनके यश के समूह से ये तीनों लोक निरंतर सुशोभित हैं ॥14॥ निष्प्रयोजन प्राणों को धारण करता हुआ मैं, पापी एवं भंगुर स्नेह के लिए उस कुल को मलिन कैसे कर दूँ ? ॥15॥ अल्प भी अकीर्ति उपेक्षा करने पर वृद्धि को प्राप्त हो जाती है और थोड़ी भी कीर्ति इंद्रों के द्वारा भी प्रयोग में लाई जाती है― गाई जाती है ।।16।। जब कि अकीर्ति रूपी अग्नि के द्वारा हरा-भरा कीर्तिरूपी उद्यान जल रहा है तब इन नश्वर विशाल भोगों से क्या प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? ॥17॥ मैं जानता हूँ कि देवी सीता, सती और शुद्ध हृदय वाली नारी है पर जब तक वह हमारे घर में स्थित रहती है तब तक यह अवर्णवाद शस्त्र और शास्त्रों के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ॥18।। देखो, कमल वन को आनंदित करने वाला सूर्य रात्रि होते ही अस्त हो जाता है सो उसे रोकने वाला कौन है ? ॥16।। महाविस्तार को प्राप्त होने वाली अपवाद रूपी रज से मेरी कांति का ह्रास किया जा रहा है सो यह अनिवारित न रहे-इसकी रुकावट होना चाहिए ।।20।। हे भाई! चंद्रमा के समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्ति रूपी मेघ की रेखा से आवृत न हो जाय इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ ॥21।। जिस प्रकार सूखे ईंधन के समूह में जल के प्रवाह से रहित अग्नि बढ़ती जाती है उस प्रकार उत्पन्न हुआ यह अपयश संसार में बढ़ता न रहे ॥22॥ मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यंत निर्मल एवं उज्ज्वल कुल जब तक कलंकित नहीं होता है तब तक शीघ्र ही इसका उपाय करो ।।23।। जो जनता के सुख के लिए अपने आपको अर्पित कर सकता है ऐसा मैं निर्दोष एवं शील से सुशोभित सीता को छोड़ सकता हूँ परंतु कीर्ति को नष्ट नहीं होने दूंगा ॥24॥
तदनंतर भाई के स्नेह में तत्पर लक्ष्मण ने कहा कि हे राजन् ! सीता के विषय में शोक नहीं करना चाहिए ॥25॥ समस्त सतियों के मस्तक पर स्थित एवं सर्व प्रकार से अनिंदित सीता को आप मात्र लोकापवाद के भय से क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥26।। दुष्ट मनुष्य शीलवान मनुष्यों की बुराई कहें पर उनके कहने से उनकी परमार्थता नष्ट नहीं हो जाती ॥27॥ जिनके नेत्र विष से दूषित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य यद्यपि चंद्रमा को अत्यंत काला देखते हैं पर यथार्थ में चंद्रमा शुक्लता नहीं छोड़ देता है ॥28॥ शीलसंपन्न प्राणी की आत्मा साक्षिता को प्राप्त होती है अर्थात् वह स्वयं ही अपनी वास्तविकता को कहती है । यथार्थ में वस्तु का वास्तविक भाव ही उसकी यथार्थता के लिए पर्याप्त है बाह्यरूप नहीं ॥29॥ साधारण मनुष्य के कहने से विद्वज्जन क्षोभ को प्राप्त नहीं होते क्योंकि कुत्ता के भौंकने से हाथी लज्जा को प्राप्त नहीं होता ॥30॥ तरंग के समान चेष्टा को धारण करने वाला यह विचित्र लोक दूसरे के दोष कहने में आसक्त है सो इसका निग्रह स्वयं इनका आत्मा करेगी ॥31॥ जो मूर्ख मनुष्य शिला उखाड़ कर चंद्रमा को नष्ट करना चाहता है वह नि:संदेह स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है ॥32॥ चुगली करने में तत्पर एवं दूसरे के गुणों को सहन नहीं करने वाला दुष्कर्मा दुष्ट मनुष्य निश्चित ही दुर्गति को प्राप्त होता है ॥33॥
तदनंतर बलदेव ने कहा कि लक्ष्मण ! तुम जैसा कह रहे हो सत्य वैसा ही है और तुम्हारी मध्यस्थ बुद्धि भी शोभा का स्थान है ॥34॥ परंतु लोक विरुद्ध कार्य का परित्याग करने वाले शुद्धिशाली मनुष्य का कोई दोष दिखाई नहीं देता अपितु उसके विरुद्ध गुण ही एकांत रूप से संभव मालूम होता है ॥35।। उस मनुष्य को संसार में क्या सुख हो सकता है ? अथवा जीवन के प्रति उसे क्या आशा हो सकती है जिसकी दिशाएं सब ओर से निंदारूपी दावानल की ज्वालाओं से व्याप्त हैं ॥36॥ अनर्थ को उत्पन्न करने वाले अर्थ से क्या प्रयोजन है ? विष सहित औषधि से क्या लाभ है ? और उस पराक्रम से भी क्या मतलब है जिससे भय में पड़े प्राणियों की रक्षा नहीं होती ? ॥37॥ उस चारित्र से प्रयोजन नहीं है जिससे आत्मा अपना हित करने में उद्यत नहीं होता और उस ज्ञान से क्या लाभ जिससे अध्यात्म का ज्ञान नहीं होता ॥38।। उस मनुष्य का जन्म अच्छा नहीं कहा जा सकता जिसकी कीर्ति रूपी उत्तम वधू को अपयश रूपी बलवान् हर ले जाता है। अरे ! इसकी अपेक्षा तो उसका मरना ही अच्छा है ॥36॥ लोकापवाद जाने दो, मेरा भी तो यह बड़ा भारी दोष है जो मैं पर पुरुष के द्वारा हरी हुई सीता को फिर से घर ले आया ॥40॥ सीता ने राक्षस के गृहोद्यान में चिरकाल तक निवास किया, कुत्सित वचन बोलने वाली दूतियों ने उससे अभिलषित पदार्थ की याचना की, समीप की भूमि में वर्तमान रावण ने उसे कई बार दुष्ट दृष्टि से देखा तथा इच्छानुसार उससे वार्तालाप किया। ऐसी उस सीता को घर लाते हुए मैंने लज्जा का अनुभव क्यों नहीं किया ? अथवा मूर्ख मनुष्यों के लिए क्या कठिन है ? ॥41-43।। कृतांतवक्त्र सेनापति को शीघ्र ही बुलाया जाय और अकेली गर्भिणी सीता आज ही मेरे घर से ले जाई जाय ॥44॥
इस प्रकार कहने पर लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर विनम्र भाव से कहा कि हे देव ! सीता को छोड़ना उचित नहीं है ॥45॥। जिसके चरण कमल अत्यंत कोमल हैं, जो कृशांगी है, भोली है और सुखपूर्वक जिसका लालन-पालन हुआ है ऐसी अकेली सीता उपद्रव पूर्ण मार्ग से कहाँ जायगी ? ॥46॥ जो गर्भ के भार से आक्रांत है ऐसी सीता तुम्हारे द्वारा त्यक्त होने पर अत्यंत खेद को प्राप्त होती हुई किसकी शरण में जायगी ? ॥4॥ रावण ने सीता को देखा यह कोई अपराध नहीं है क्योंकि दूसरे के द्वारा देखे हुए वलि पुष्प आदिक को क्या भक्तजन जिनेंद्रदेव के लिए अर्पित नहीं करते ? अर्थात् करते हैं अतः दूसरे के देखने में क्या दोष है ? ॥48॥ हे नाथ ! हे वीर ! प्रसन्न होओ कि जो निर्दोष है, जिसने कभी सूर्य भी नहीं देखा है, जो अत्यंत कोमल है, तथा आपके लिए जिसने अपना हृदय अर्पित कर दिया है ऐसी सीता को मत छोड़ो ॥49॥
तदनंतर जिनका विद्वेष अत्यंत दृढ़ हो गया था, जो क्रोध के भार को प्राप्त थे, और जिनका मुख अप्रसन्न था ऐसे राम ने छोटे भाई-लक्ष्मण से कहा कि हे लक्ष्मीधर ! अब तुम्हें इसके आगे कुछ भी नहीं कहना चाहिए । मैंने जो निश्चय कर लिया है वह अवश्य किया जाएगा चाहे उचित हो चाहे अनुचित ।।50-51।। निर्जन वन में सीता अकेली छोड़ी जायगी । वहाँ वह अपने कर्म से जीवित रहे अथवा मरे ॥52॥ दोष की वृद्धि करने वाली सीता भी मेरे इस देश में अथवा किसी उत्तम संबंधी के नगर में अथवा किसी घर में क्षण भर के लिए निवास न करे ॥53॥
अथानंतर जो चार घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर जा रहा था, सेना से घिरा था, वंदीजन 'जय' 'नंद' आदि शब्दों के द्वारा जिसकी पूजा कर रहे थे, जिसके शिर पर सफेद छत्र लगा हुआ था, जो धनुष को धारण कर रहा था तथा कवच और कुंडलों से युक्त था ऐसा कृतांतवक्त्र सेनापति स्वामी के समीप चला ॥54-55॥ उसे उस प्रकार आता देख, जिनके चित्त तर्क वितर्क में लग रहे थे ऐसी नगर की स्त्रियों में अनेक प्रकार की चर्चा होने लगी ॥56॥ यह क्या है ? यह किस कारण उतावला दिखाई देता है ? किसके प्रति यह कुपित है ? आज किसका क्या होने वाला है ? हे मात ! जो शस्त्रों के अंधकार के मध्य में स्थित है तथा जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान तेज से युक्त है ऐसा यह कृतांतवक्त्र यमराज के समान भयंकर है ॥57-58।। इत्यादि कथा में आसक्त नगर की स्त्रियाँ जिसे देख रही थीं ऐसा सेनापति श्रीराम के समीप आया ॥56॥
तदनंतर उसने पृथिवी का स्पर्श करने वाले शिर से स्वामी को प्रणाम कर हाथ जोड़ते हुए यह कहा कि हे देव ! मुझे आज्ञा दीजिए ॥60॥ राम ने कहा कि जाओ, सीता को शीघ्र ही छोड़ आओ । उसने जिनमंदिरों के दर्शन करने का दोहला प्रकट किया था इसलिए मार्ग में जो जिनमंदिर मिलें उनके दर्शन कराते जाना। तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि सम्मेदाचल पर निर्मित, एवं आशाओं के पूर्ण करने में निपुण जो प्रतिमाओं के समूह हैं उनके भी उसे दर्शन कराते जाना । इस प्रकार दर्शन कराने के बाद इसे सिंहनाद नाम की निर्जन अटवी में ले जाकर तथा वहाँ ठहरा कर हे सौम्य ! तुम शीघ्र ही वापिस आ जाओ ॥61-63।।
तदनंतर विना किसी तर्क-वितर्क के 'जो आज्ञा' यह कह कर सेनापति सीता के पास गया और इस प्रकार बोला कि हे देवि ! उठो, रथ पर सवार होओ, इच्छित कार्य कर जिनमंदिरों के दर्शन करो और इच्छानुकूल फल का अभ्युदय प्राप्त करो ॥64-65।। इस प्रकार सेनापति जिसे मधुर शब्दों द्वारा प्रसन्न कर रहा था तथा जिसका हृदय अत्यंत हर्षित हो रहा था ऐसी सीता रथ के समीप आई ।।66।। रथ के समीप आकर उसने कहा कि सदा चतुर्विध संघ की जय हो तथा उत्तम आचार के पालन करने में एकनिष्ठ जिनभक्त रामचंद्र भी सदा जयवंत रहें ॥67।। यदि हमसे प्रमादवश कोई असुंदर चेष्टा हो गई है तो जिनालय में निवास करने वाले देव मेरे उस समस्त अपराध को क्षमा करें ॥68॥ अत्यंत उत्सुक हृदय को धारण करने वाली सीता ने पति में लगे हुए हृदय से समस्त सखीजनों को यह कह कर लौटा दिया कि हे उत्तम सखियो ! तुम लोग सुख से रहो । मैं जिनालयों को नमस्कार कर अभी आती हूँ, अधिक उत्कंठा करना योग्य है ॥66-70।। इस प्रकार सीता के कहने से तथा पति का आदेश नहीं होने से सुंदर भाषण करने वाली अन्य स्त्रियों ने उसके साथ जाने को इच्छा नहीं की थी ॥71॥
तदनंतर परम प्रमोद को प्राप्त, प्रसन्नमुखी सीता, सिद्धों की नमस्कार कर उज्ज्वल रथ पर आरूढ़ हो गई ॥72॥ रत्न तथा सुवर्ण निर्मित रथ पर आरूढ़ हुई सीता उस समय इस तरह सुशोभित हो रही थी जिस तरह कि विमान पर आरूढ़ हुई रत्नमाला से अलंकृत देवांगना सुशोभित होती है ॥73॥ कृतांतवक्त्र सेनापति के द्वारा प्रेरित, उत्तम घोड़ों से जुता हुआ वह रथ भरत चक्रवर्ती के द्वारा छोड़े हुए बाण के समान बड़े वेग से जा रहा था ॥74॥ उस समय सूखे वृक्ष पर अत्यंत व्याकुल कौआ, पंख तथा मस्तक को बार-बार कँपाता हुआ विरस शब्द कर रहा था ॥75।। जो महाशोक से संतप्त थी, जिसने अपने बाल कंपित कर छोड़ दिये थे, तथा जो विलाप कर रही थी ऐसी एक स्त्री सामने आकर रोने लगी ।।76।। यद्यपि सीता इन सब अशकुनों को देख रही थी तथापि जिनेंद्र भगवान में आसक्त चित्त होने के कारण वह दृढ़ निश्चय के साथ आगे चली जा रही थी ॥77॥ पर्वतों के शिखर, गड्ढे, गुफाएँ और वन इन सब से ऊँची नीची भूमि को उल्लंघन कर वह रथ निमेष मात्र में एक योजन आगे बढ़ जाता था ॥78।। जिसमें गरुड़ के समान वेगशाली घोड़े जुते थे, जो सफेद पताकाओं से सुशोभित तथा जो कांति में सूर्य के रथ के समान था ऐसा वह रथ विना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ता जाता था ।।79।। जिस पर रामरूपी इंद्र की प्रिया-इंद्राणी आरूढ़ थी, जिसका वेग मनोरथ के समान तीव्र था, और जिसके घोड़े कृतांतवक्त्र रूपी मातलि के द्वारा प्रेरित थे ऐसा वह रथ अत्यधिक शोभित हो रहा था ॥80॥ वहाँ जो तकिया के सहारे उत्तम आसन से बैठी थी ऐसी सीता नाना प्रकार की भूमि को इस प्रकार देखती हुई जा रही थी ।।81।। वह कहीं गाँव में, कहीं नगर में और कहीं जंगल में कमल आदि के फूलों से अत्यंत मनोहर तालाबों को बड़ी उत्सुकता से देखती जाती थी ॥82॥ वह कहीं वृक्षों की उस विशाल झुरमुट को देखती जाती थी जहाँ मेघरूपी पट से आच्छादित आकाश वाली रात्रि के समान सघन अंधकार था और जिसका पृथकपना बडी कठिनाई से दिखाई पड़ता था ।।83॥ कहीं जिसके फल फूल और पत्ते गिर गये थे, जो कृश थी जिसकी जड़े विरली विरली थी, तथा जो छाया (पक्ष में कांति) से रहित थी ऐसी कुलीन विधवा के समान अटवी को देखती जाती थी ॥84॥ उसने देखा कि कहीं आम्रवृक्ष से लिपटी सुंदर माधवी लता, चपल वेश्या के समान निकटवर्ती अशोक वृक्ष पर अभिलाषा कर रही है ॥85॥ उसने देखा कि कहीं दावानल से नाश को प्राप्त हुए बड़े-बड़े वृक्षों का समूह दुर्जन के वाक्यों से ताड़ित साधु के हृदय के समान सुशोभित नहीं हो रहा है ।।86। कहीं उसने देखा कि मंद मंद वायु से हिलते हुए उत्तम पल्लवों वाली लताओं के समूह से वनराजी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो वसंत की पत्नी नृत्य ही कर रही हो ॥87॥ कहीं उसने देखा कि भीलों के समूह की तीव्र कल-कल ध्वनि से जिसने पक्षियों को उड़ा दिया है ऐसी हरिणों की श्रेणी बहुत दूर आगे निकल गई है।॥88॥ वह कहीं विचित्र धातुओं से निर्मित, कौतुकपूर्ण नेत्रों से, मस्तक ऊपर उठा पर्वत की ऊँची चोटी को देख रही थी ॥89।। कहीं उसने देखा कि स्वच्छ तथा अल्प जल वाली नदियों से यह अटवी उस संतापवती विरहिणी स्त्री के समान जान पड़ती है कि जिसका पति परदेश गया है और जिसके नेत्र आँसुओं से परिपूर्ण हैं ॥90॥ यह अटवी कहीं तो ऐसी जान पड़ती है मानो नाना पक्षियों के शब्द के बहाने मनोहर वार्तालाप ही कर रही हो और कहीं उज्ज्वल निर्झरों से युक्त होने के कारण ऐसी विदित होती है मानो हर्ष से अट्टहास ही कर रही हो ।।91।। कहीं मकरंद की लोभी भ्रमरियों से ऐसी जान पड़ती है मानो मद से मंथर ध्वनि में भ्रमरियाँ उसकी स्तुति ही कर रही हों और फलों के भार से वह संकोचवश नम्र हुई जा रही हो ॥92॥ कहीं उसने देखा कि वायु से हिलते हुए उत्तमोत्तम पल्लवों और महाशाखाओं से युक्त वृक्षों के द्वारा यह अटवी विनय प्रदर्शित करने में संलग्न की तरह पुष्पवृष्टि छोड़ रही है ॥93॥ जिसका मन राम की अपेक्षा कर रहा था ऐसी सीता उपर्युक्त क्रियाओं में आसक्त एवं वन्य पशुओं से युक्त अटवी को देखती हुई आगे जा रही थी ।।94।।
तदनंतर उसी समय अत्यंत पुष्ट मधुर शब्द सुनकर वह विचार करने लगी कि क्या यह राम के दुंदुभि का विशाल शब्द है ? ॥95।। इस प्रकार का तर्क कर तथा आगे गंगा नदी को देखकर उसने जान लिया कि यह अन्य दिशा में सुनाई देने वाला इसी का शब्द है ॥96॥ उसने देखा कि यह गंगानदी कहीं तो भीतर क्रीड़ा करने वाले नाके, मच्छ तथा मकर आदि से विघट्टित है, कहीं उठती हुई बड़ी-बड़ी तरंगों के संसर्ग से इसमें कमल कंपित हो रहे हैं ॥97॥ कहीं इसने किनारे पर स्थित ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को जड़ से उखाड़ डाला है, कहीं इसके वेग ने बड़े-बड़े पर्वतों की चट्टानों के समूह को विदारित कर दिया है ।।98।। यह समुद्र की गोद में फैली है, राजा सगर के पुत्रों द्वारा निर्मित है, रसातल तक गहरी है, सफेद पुलिनों से शोभित है ।।99।। फेन के समूह से सहित बड़ी-बड़ी भँवरों से भयंकर है, और समीप में स्थित पक्षियों के समूह से सुशोभित है ॥100॥ पवन के समान वेगशाली वे घोड़े उस गंगानदी को उस तरह पार कर गये जिस तरह कि साधु सम्यग्दर्शन के सार पूर्ण योग से संसार को पार कर जाते हैं ।।101॥
तदनंतर कृतांतवक्त्र सेनापति यद्यपि मेरु के समान सदा निश्चल चित्त रहता था तथापि उस समय वह दया सहित होता हुआ परम विषाद को प्राप्त हो गया ॥102।। कुछ भी कहने के लिए जिसकी आत्मा अशक्त थी, जो महादुःख से ताड़ित हो रहा था, तथा जिसके बलात् आँसू निकल रहे थे ऐसा कृतांतवक्त्र अपने आप पर नियंत्रण करने तथा खड़े होने के लिए असमर्थ हो गया ॥103।। तदनंतर जिसका समस्त शरीर ढीला पड़ गया था और जिसकी कांति नष्ट हो गई थी ऐसा सेनापति रथ खड़ा कर और मस्तक पर दोनों हाथ रखकर जोर-जोर से रुदन करने लगा ।।104।। तत्पश्चात् जिसका हृदय टूट रहा था ऐसी सती सीता ने कहा कि हे कृतांतवक्त्र ! तू अत्यंत दुःखी मनुष्य के समान इस तरह क्यों रो रहा है ? ॥105।। तू इस अत्यधिक हर्ष के अवसर में मुझे भी विषाद युक्त कर रहा है। बता तो सही कि तू इस निर्जन महावन में क्यों रो रहा है ॥106।।
स्वामी का आदेश पालन करना चाहिए अथवा अपने नियोग के अनुसार यथार्थ बात अवश्य कहना चाहिए इन दो कारणों से जिस किसी तरह रोना रोक कर उसने यथार्थ बात का निरूपण किया ॥107। उसने कहा कि हे शुभे ! विष, अग्नि अथवा शस्त्र के समान दुर्जनों का कथन सुनकर जो अपकीर्ति से अत्यधिक भयभीत हो गये थे ऐसे श्रीराम ने दुःख से छूटने योग्य स्नेह छोड़कर दोहलों के बहाने हे देवि ! तुम्हें उस तरह छोड़ दिया है जिस तरह कि मुनि रति को छोड़ देते हैं ।।108-206।। हे स्वामिनि ! यद्यपि ऐसा कोई प्रकार नहीं रहा जिससे कि लक्ष्मण ने आपके विषय में उन्हें समझाया नहीं हो तथापि उन्होंने अपनी हठ नहीं छोड़ी ॥110॥ जिस प्रकार धर्म के संबंध से रहित जीव की सुख स्थिति को कहीं शरण नहीं प्राप्त होता उसी प्रकार उन स्वामी के निःस्नेह होने पर आपके लिए कहीं कोई शरण नहीं जान पड़ता ॥111।। हे देवि ! तेरे लिए न माता शरण है, न भाई शरण है, और न कुटुंबीजनों का समूह ही शरण है। इस समय तो तेरे लिए मृगों से व्याप्त यह वन ही शरण है ॥112।।
तदनंतर सीता उसके वचन सुन हृदय में वज्र से ताड़ित के समान अत्यधिक दुःख से व्याप्त होती हुई मोह को प्राप्त हो गई ॥113॥ बड़ी कठिनाई से चेतना प्राप्त कर उसने लड़खड़ाते अक्षरों वाली वाणी में कहा कि कुछ पूछने के लिए मुझे एक बार स्वामी के दर्शन करा दो ॥114। इसके उत्तर में कृतांतवक्त्र ने कहा कि हे देवि ! इस समय तो वह नगरी बहुत दूर रह गई है अतः अत्यधिक कठोर आज्ञा देने वाले स्वामी-राम को किस प्रकार देख सकती हो ? ॥115॥ तदनंतर सीता यद्यपि अश्रुजल की धारा में मुखकमल का प्रक्षालन कर रही थी तथापि अत्यधिक स्नेह रस से आक्रांत हो उसने यह कहा कि ॥116॥ हे सेनापते ! तुम मेरी ओर से राम से यह कहना कि हे प्रभो ! आपको मेरे त्याग से उत्पन्न हुआ विषाद नहीं करना चाहिए ।।117॥ हे महापुरुष ! परम धैर्य का अवलंबन कर सदा पिता के समान न्याय वत्सल हो प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना ॥118॥ क्योंकि जिस प्रकार प्रजा पूर्ण कलाओं को प्राप्त करने वाले शरद् ऋतु के चंद्रमा की सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है उसी प्रकार कलाओं के पार को प्राप्त करने वाले एवं आह्लाद के कारणभूत राजा की प्रजा सदा इच्छा करती है-उसे चाहती है ॥119॥ जिस सम्यग्दर्शन के द्वारा भव्य जीव दुःखों से भयंकर संसार से छूट जाते हैं उस सम्यग्दर्शन की अच्छी तरह आराधना करने के योग्य हो ॥120।। हे राम ! साम्राज्य की अपेक्षा वह सम्यग्दर्शन ही अधिक माना जाता है क्योंकि साम्राज्य तो नष्ट हो जाता है परंतु सम्यग्दर्शन स्थिर सुख को देने वाला है ॥121॥ हे पुरुषोत्तम ! अभव्यों के द्वारा की हुई जुगुप्सा से भयभीत होकर तुम्हें वह सम्यग्दर्शन किसी भी तरह नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वह अत्यंत दुर्लभ है ।।122।। हथेली में आया रत्न यदि महासागर में गिर जाता है तो फिर वह किस उपाय से प्राप्त हो सकता है ? ॥123॥ अमृत फल को महा आपत्ति से भयंकर कुएँ में फेंककर पश्चात्ताप से पीड़ित बालक परम दुःख को प्राप्त होता है ॥124॥ जिसके अनुरूप जो होता है वह उसे बिना किसी प्रतिबंध के कहता ही है क्योंकि इस संसार का मुख बंधन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥125॥ हे गुणभूषण ! यद्यपि आत्म हित को नष्ट करने वाली अनेक बातें आप श्रवण करेंगे तथापि अहिल (पागल) के समान उन्हें हृदय में नहीं धारण करना; विचारपूर्वक ही कार्य करना ।।126॥ जिस प्रकार सूर्य यद्यपि अत्यंत तेजस्वी रहता है तथापि संसार के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने से यथाभूत है एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होता इसलिए लोगों को प्रिय है उसी प्रकार यद्यपि आप तीव्र शासन से युक्त हो तथापि जगत् के समस्त पदार्थों को ठीक-ठीक जानने के कारण यथाभूत यथार्थ रूप रहना एवं कभी विकार को प्राप्त नहीं होने से सूर्य के समान सबको प्रिय रहना ॥127॥ दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर वश करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तम शील अर्थात् निर्दोष आचरण से वश करना और मित्र को सद्भाव पूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना ॥128।। क्षमा से क्रोध को, मार्दव से चाहे जहाँ होने वाले मान को, आर्जव से माया को और धैर्य से लोभ को कृश करना ।।129-130।। हे नाथ ! आप तो समस्त शास्त्रों में प्रवीण हो अतः आपको उपदेश देना योग्य नहीं है, यह जो मैंने कहा है वह आपके प्रेम रूपी ग्रह से संयोग रखने वाले मेरे हृदय की चपलता है ॥131॥ हे स्वामिन् ! आपके वशीभूत होने से अथवा परिहास के कारण यदि मैंने कुछ अविनय किया हो तो उस सबको क्षमा कीजिये ॥132।। हे प्रभो ! जान पड़ता है कि आपके साथ मेरा दर्शन इतना ही था इसलिए बार-बार कह रही हूँ कि मेरी प्रवृत्ति उचित हो अथवा अनुचित; सब क्षमा करने योग्य है ॥133।।
जो रथ के मध्य से पहले ही उतर चुकी थी ऐसी सीता इस प्रकार कहकर तृण तथा पत्थरों से व्याप्त पृथिवी पर गिर पड़ी ।।134।। उस पृथिवी पर पड़ी, मूर्च्छा से निश्चल सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो रत्नों का समूह ही बिखर गया हो ॥535॥ चेष्टाहीन सीता को देखकर सेनापति ने अत्यंत दुःखी हो इस प्रकार विचार किया कि यह प्राणों को बड़ी कठिनाई से धारण कर सकेगी ॥136।। हिंसक जीवों के समूह से भरे हुए इस महा भयंकर वन में धीर वीर मनुष्य भी जीवित रहने की आशा नहीं रख सकता ॥137।। इस विकट वन में इस मृगनयनी को छोड़कर मैं वह स्थान नहीं देखता जहाँ मुझे शांति प्राप्त हो सकेगी ॥138॥ इस ओर अत्यंत भयंकर निर्दयता है और उस ओर स्वामी की सुदृढ़ आज्ञा है । अहो ! मैं पापी दुःख रूपी महाआवर्त के बीच आ पड़ा हूँ ॥136॥ जिसमें इच्छा के विरुद्ध चाहे जो करना पड़ता है, आत्मा परतंत्र हो जाती है, और क्षुद्र मनुष्य ही जिसकी सेवा करते हैं ऐसी लोकनिंद्य दासवृत्ति को धिक्कार है ॥140।। जो यंत्र की चेष्टाओं के समान है तथा जिसकी आत्मा निरंतर दुःख ही उठाती है ऐसे सेवक के जीवन की अपेक्षा कुक्कुर का जीवन बहुत अच्छा है ॥141॥ जो नरेंद्र अर्थात राजा (पक्ष में मांत्रिक) की शक्ति के आधीन है तथा निंद्य नाम का धारक है ऐसा सेवक पिशाच के समान क्या नहीं करता है ? और क्या नहीं बोलता है ? ॥142।। जो चित्र लिखित धनुष के समान है, जो कार्य रहित गुण अर्थात डोरी (पक्ष में ज्ञानादि ) से सहित है तथा जिसका शरीर निरंतर नम्र रहता है ऐसे भृत्य का जीवन निंद्य जीवन है ॥143॥ सेवक कचड़ा घर के समान है। जिस प्रकार लोग कचड़ा घर में कचड़ा डालकर पीछे उससे अपना चित्त दूर हटा लेते हैं उसी प्रकार लोग सेवक से काम लेकर पीछे उससे चित्त हटा लेते हैं उसके गौरव को भूल जाते हैं, जिस प्रकार कचड़ा घर निर्माल्य अर्थात् उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है उसी प्रकार सेवक भी स्वामी की उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है। इस प्रकार सेवक नाम को धारण करने वाले मनुष्य के जीवित रहने को बार-बार धिक्कार है ॥144॥ जो अपने गौरव को पीछे कर देता है तथा पानी प्राप्त करने के लिए भी जिसे झुकना पड़ता है इस प्रकार तुला यंत्र की तुल्यता को धारण करने वाले भृत्य का जीवित रहना धिक्कार पूर्ण है ।।145॥ जो उन्नति, लज्जा, दीप्ति और स्वयं निज की इच्छा से रहित है तथा जिसका स्वरूप मिट्टी के पुतले के समान क्रियाहीन है ऐसे सेवक का जीवन किसी को प्राप्त न हो ॥146।। जो विमान अर्थात् व्योमयान ( पक्ष में मान रहित ) होकर भी गति से रहित है तथा जो गुरुता के साथ-साथ निरंतर नीचे जाता है ऐसे भृत्य के जीवन को धिक्कार है ।।147॥ जो स्वयं शक्ति से रहित है, अपना मांस भी बेचता है, सदा मद से शून्य है और परतंत्र है ऐसे भृत्य के जीवन को धिक्कार है ।।148॥ जिसके उदय में भृत्यता करनी पड़ती है ऐसे कर्म से मैं विवश हो रहा हूँ इसीलिए तो इस दारुण अवसर के समय भी इस भृत्यता को नहीं छोड़ रहा हूँ ॥149।। इस प्रकार विचार कर धर्म बुद्धि के समान सीता को छोड़कर सेनापति लज्जित होता हुआ अयोध्या के सम्मुख चला गया ॥150॥ तदनंतर इधर जिसे चेतना प्राप्त हुई थी ऐसी सीता अत्यंत दुःखी होती हुई यूथ से बिछुड़ी हरिणी के समान रोदन करने लगी ॥151॥ करुण रोदन करनेवाली सीता के दुःख से दुःखी होकर वृक्षों के समूह ने भी मानो पुष्प छोड़ने के बहाने ही रोदन किया था ॥152॥ तदनंतर महाशोक से वशीभूत सीता स्वभाव सुंदर स्वर से विलाप करने लगी ॥153।। वह कहने लगी कि हे कमललोचन ! हा पद्म ! हा नरोत्तम ! हा प्रभो ! हा देव ! उत्तर देओ; मुझे सांत्वना करो ॥154॥ आप निरंतर उत्तम चेष्टा के धारक हैं, सद्गुणों से सहित हैं, सहृदय हैं और महापुरुषता से युक्त हैं। मेरे त्याग में आपका लेश मात्र भी दोष नहीं है ॥155॥ मैंने पूर्व भव में जो स्वयं कर्म किया था उसी का यह फल प्राप्त हुआ है अतः यह बहुत भारी दुःख मुझे अवश्य भोगना चाहिए ।।156।। जब मेरा अपना किया कर्म उदय में आ रहा है तब पति, पुत्र, पिता, नारायण अथवा अन्य परिवार के लोग क्या कर सकते हैं ॥157।। निश्चित ही मैंने पूर्व भव में पाप का उपार्जन किया होगा इसीलिए तो मैं अभागिनी निर्जन वन में परम दुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥158॥ निश्चित ही मैंने गोष्ठियों में किसी का मिथ्या दोष कहा होगा जिसके उदय से मुझे यह ऐसा संकट प्राप्त हुआ है ।।159।। निश्चित ही मैने अन्य जन्म में गुरु के समक्ष व्रत लेकर भग्न किया होगा जिसका यह ऐसा फल प्राप्त हुआ है ॥160॥ अथवा अन्य भव में मैंने विष फल के समान कठोर वचनों से किसी का तिरस्कार किया होगा इसीलिए मुझे ऐसा दुःख प्राप्त हुआ है ॥161॥ जान पड़ता है कि मैंने अन्य जन्म में कमलवन में स्थित चकवा-चकवी के युगल को अलग किया होगा इसीलिए तो मैं भर्ता से रहित हुई हूँ ॥162॥ अथवा जो कमल आदि से विभूषित सरोवर में निवास करता था, जो उत्तम पुरुषों की गमन संबंधी लीला में विलंब उत्पन्न करने वाला था, जो अपने कल-कूजन और सौंदर्य में स्त्रियों की उपमा प्राप्त करता था, जो लक्ष्मण के महल के समान उत्तम कांति से युक्त था, और जिसके मुख तथा चरण कमल के समान लाल थे ऐसे हंस-हंसियों के युगल को मैंने पूर्वभव में अपनी कुचेष्टा से जुदा-जुदा किया होगा इसीलिए तो मैं अभागिनी इस घोर निष्कासन को प्राप्त हुई हूँ― घर से अलग की गई हूँ ॥163-165॥ अथवा गुंजा फल के अर्ध भाग के समान जिसके नेत्र थे, परस्पर एक दूसरे के लिए जिसने अपना हृदय सौंप रक्खा था, जो काला गुरु चंदन से उत्पन्न हुए सघन धूम के समान धूसर वर्ण था, जो सुख से क्रीडा कर रहा था, और कंठ में मनोहर अव्यक्त शब्द विद्यमान था ऐसे कबूतर-कबूतरियों के युगल को मैंने पाप पूर्ण चित्त से जुदा किया होगा। अथवा अनुचित स्थान में उसे रक्खा होगा अथवा बाँधा होगा अथवा मारा होगा, अथवा सन्मान-लालन-पालन आदि से रहित किया होगा इसीलिए मै ऐसे दुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥166-168॥ अथवा जब सब वृक्ष फूलों से युक्त हो जाते हैं ऐसे रमणीय वसंत के समय कोकिल और कोकिलाओं के युगल को मैंने पृथक् पृथक् किया होगा जिसका यह ऐसा फल प्राप्त हुआ है ॥166॥ अथवा मैंने क्षमा के धारक, सदाचार के पालक, इंद्रियों को जीतने वाले तथा विद्वानों के द्वारा वंदनीय मुनियों की निंदा की होगी जिसके फलस्वरूप इस महादुःख को प्राप्त हुई हूँ ॥170।।
आज्ञा मिलते ही हर्षित होने वाले उत्तम भृत्यों के समूह जिसकी सदा सेवा करते थे ऐसी जो मैं पहले स्वर्ग तुल्य घर में रहती थी वह मैं इस समय बंधुजन से रहित इस सघन वन में कैसे रहूँगी ? मेरे पुण्य का समूह क्षय हो गया है, मैं दुःखों के सागर में डूब रही हूँ तथा मैं अत्यंत पापिनी हूँ ॥171॥ जिस पर नाना रत्नों की किरणों का प्रकाश फैल रहा था, जो उत्तर चादर से आच्छादित था, महा रमणीय था तथा सब प्रकार के उपकरणों से सहित था ऐसे उत्तम शयन पर सुख से निद्रा का सेवन करती थी तथा प्रातःकाल के समय बाँसुरी, त्रिसरिका और वीणा के संगीतमय मधुर स्वर से जागा करती थी ॥172-174॥ वही मैं अपयश रूपी दावानल से जली दुःखिनी, श्री रामदेव की प्रधान रानी पापिनी अकेली इस दुःखदायी वन के बीच कीड़े, कठोर डाभ और तीक्ष्ण पत्थरों के समूह से युक्त पृथिवीतल में कैसे रहूँगी? ॥175-176।। यदि ऐसी अवस्था पाकर भी ये प्राण मुझमें स्थित हैं तब तो कहना चाहिए कि मेरे प्राण वज्र से निर्मित हैं ॥177॥ अहो हृदय ! ऐसी अवस्था को पाकर भी जो तुम सौ टुकड़े नहीं हो जाते हो उससे जान पड़ता है कि तुम्हारे समान दूसरा साहसी नहीं है ॥178।। क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ! किसका आश्रय लूँ ? कैसे ठहरूँ ? हाय मातः ! यह ऐसा क्यों हुआ ? ॥176।। हे सद्गुणों के सागर राम ! हा भक्त लक्ष्मण ! हा पिता! क्या तुम मुझे नहीं जानते हो ? हा मात ! तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करती हो ? ॥180॥ अहो विद्याधरों के अधीश भाई कुंडलमंडित ! यह मैं कुलक्षणा दुःखरूपी आवर्त में भ्रमण करती यहाँ पड़ी हूँ ॥181॥ खेद है कि मैं पापिनी पति के साथ बड़े वैभव से, पृथिवी पर जो जिनमंदिर हैं उनमें जिनेंद्र भगवान की पूजा नहीं कर सकी ॥182॥
अथानंतर जब विह्वल चित्त सीता विलाप कर रही थी तब एक वज्रजंघ नामक राजा उस वन के मध्य आया ॥18।। वज्रजंघ पुंडरीकपुर का स्वामी था, हाथी पकड़ने के लिए उस वन में आया था और हाथी पकड़कर बड़े वैभव से लौटकर वापिस आ रहा था ॥184॥ उसकी सेना के अग्रभाग में जो सैनिक उछलते हुए जा रहे थे वे यद्यपि अपने हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र लिये थे, सुंदर थे, शूरवीर थे और छुरियाँ बाँधे हुए थे तथापि सीता का वह अतिशय मनोहर रोदन का शब्द सुनकर वे संशय में पड़ गये तथा इतने भयभीत हो गये कि एक डग भी आगे नहीं दे सके ॥185-186॥ सेना के आगे चलने वाला जो घोड़ों का समूह था वह भी रुक गया तथा उस रोदन का शब्द सुन आशंका से युक्त घुड़सवार भी उसे प्रेरित नहीं कर सके ॥187॥ वे विचार करने लगे कि जहाँ मृत्यु के कारणभूत अनेक प्राणी विद्यमान हैं ऐसे इस अत्यंत भयंकर वन में यह स्त्री के रोने का मनोहर शब्द हो रहा है सो यह बड़ी विचित्र क्या बात है ? ॥188॥ जो मृग, भैंसा, भेड़िया, चीता और तेंदुआ से चंचल है जहाँ अष्टापद और सिंह घूम रहे हैं, तथा जो सुअरों की दाँढों से भयंकर है ऐसे इस वन के मध्य में अत्यंत निर्मल चंद्रमा की रेखा के समान यह कौन हृदय के हरने में निपुण रो रही है ? ॥189॥ क्या यह सौधर्म स्वर्ग से इंद्र के द्वारा छोड़ी और पृथिवीतल पर आई हुई कोई इंद्राणी है अथवा मनुष्यों के सुख संगीत को नष्ट करने वाली एवं प्रलय के कारण को उत्पन्न करने वाली कोई देवी कहीं से आ पहुँची है ? ॥190॥ इस प्रकार जिसे तर्क उत्पन्न हो रहा था, जिसने अपनी चेष्टा छोड़ दी थी, वेग से चलने वाले मूल पुरुष जिसमें आकर इकट्ठे हो रहे थे, जिसमें अत्यधिक बाजे बज रहे थे, जो किसी बड़ी भँवर के समान जान पड़ती थी और जो आश्चर्य से युक्त थी ऐसी वह विशाल सेना निश्चल खड़ी हो गई ॥191॥
घोड़ों के समूह ही जिसमें मगर थे, तेजस्वी पैदल सैनिक ही जिसमें मीन थे, हाथियों के समूह ही जिसमें ग्राह थे, जो प्रचंड शब्द से युक्त थी और सूर्य की किरणों के पड़ने से चमकती हुई तलवार रूपी तरंगों से जो भय उत्पन्न करने वाली थी ऐसी वह सेना समुद्र के समान जान पड़ती थी ॥162॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा विरचित श्री पद्मपुराण में सीता के निर्वासन, विलाप और वज्रजंघ के आगमन का वर्णन करने वाला सतानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥97॥