पद्मपुराण - पर्व 93: Difference between revisions
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<p>पहले तो नारद ने विस्तार के साथ लक्ष्मण के लिए समस्त संसार की वार्ता सुनाई और उसके बाद मनोरमा कन्या की वार्ता विशेष रूप से बतलाई । उसी समय कौतुक के चिह्न प्रकट करते हुए नारद ने चित्रपट में अंकित वह अद्भुत कन्या दिखाई। वह कन्या नेत्र तथा हृदय को हरने वाली थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन लोक को सुंदरियों की शोभा को एकत्रित कर ही बनाई गई हो ॥15-16॥<span id="17" /> उस कन्या को देखकर जिसके नेत्र मृण्मय पुतले के समान निश्चल हो गये थे ऐसा लक्ष्मण वीर होने पर भी काम के वशीभूत हो गया ॥17॥<span id="18" /> वह विचार करने लगा कि यदि यह स्त्रीरत्न मुझे नहीं प्राप्त होता है तो मेरा यह राज्य निष्फल है तथा यह जीवन भी सूना है ॥18॥<span id="19" /> आदर को धारण करते हुए लक्ष्मण ने नारद से कहा कि हे भगवन् ! मेरे गुणों का निरूपण करते हुए आपको उन कुमारों ने दुःखी क्यों किया ? ॥19॥<span id="20" /> कार्य का विचार नहीं करने वाले उन हृदयहीन पापी क्षुद्र पुरुषों की इस प्रचंडता को मैं अभी हाल नष्ट करता हूँ ॥20॥<span id="21" /> हे महामुने ! उन कुमारों ने जो पादप्रहार किया है सो उसकी धूलि आपके मस्तक का आश्रय पाकर शुद्ध हो गई है और उस पादप्रहार को मैं समझता हूँ कि वह मेरे मस्तक पर ही किया गया है अतः आप स्वस्थता को प्राप्त हों ॥21॥<span id="22" /> इतना कहकर क्रोध से भरे लक्ष्मण ने विराधित नामक विद्याधरों के राजा को बुलाकर कहा कि मुझे शीघ्र ही रत्नपुर पर चढ़ाई करनी है ।।22।।<span id="23" /> इसलिए मार्ग दिखाओ। इस प्रकार कहने पर कठिन आज्ञा को धारण करने वाले उस रणवीर विराधित ने पत्र लिखकर समस्त विद्याधर राजाओं को बुला लिया ॥23॥<span id="24" /> </p> | <p>पहले तो नारद ने विस्तार के साथ लक्ष्मण के लिए समस्त संसार की वार्ता सुनाई और उसके बाद मनोरमा कन्या की वार्ता विशेष रूप से बतलाई । उसी समय कौतुक के चिह्न प्रकट करते हुए नारद ने चित्रपट में अंकित वह अद्भुत कन्या दिखाई। वह कन्या नेत्र तथा हृदय को हरने वाली थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन लोक को सुंदरियों की शोभा को एकत्रित कर ही बनाई गई हो ॥15-16॥<span id="17" /> उस कन्या को देखकर जिसके नेत्र मृण्मय पुतले के समान निश्चल हो गये थे ऐसा लक्ष्मण वीर होने पर भी काम के वशीभूत हो गया ॥17॥<span id="18" /> वह विचार करने लगा कि यदि यह स्त्रीरत्न मुझे नहीं प्राप्त होता है तो मेरा यह राज्य निष्फल है तथा यह जीवन भी सूना है ॥18॥<span id="19" /> आदर को धारण करते हुए लक्ष्मण ने नारद से कहा कि हे भगवन् ! मेरे गुणों का निरूपण करते हुए आपको उन कुमारों ने दुःखी क्यों किया ? ॥19॥<span id="20" /> कार्य का विचार नहीं करने वाले उन हृदयहीन पापी क्षुद्र पुरुषों की इस प्रचंडता को मैं अभी हाल नष्ट करता हूँ ॥20॥<span id="21" /> हे महामुने ! उन कुमारों ने जो पादप्रहार किया है सो उसकी धूलि आपके मस्तक का आश्रय पाकर शुद्ध हो गई है और उस पादप्रहार को मैं समझता हूँ कि वह मेरे मस्तक पर ही किया गया है अतः आप स्वस्थता को प्राप्त हों ॥21॥<span id="22" /> इतना कहकर क्रोध से भरे लक्ष्मण ने विराधित नामक विद्याधरों के राजा को बुलाकर कहा कि मुझे शीघ्र ही रत्नपुर पर चढ़ाई करनी है ।।22।।<span id="23" /> इसलिए मार्ग दिखाओ। इस प्रकार कहने पर कठिन आज्ञा को धारण करने वाले उस रणवीर विराधित ने पत्र लिखकर समस्त विद्याधर राजाओं को बुला लिया ॥23॥<span id="24" /> </p> | ||
<p>तदनंतर महेंद्र, विंध्य, किष्किंध और मलय आदि पर्वतों पर बसे नगरों के अधिपति, विमानों के द्वारा आकाश को आच्छादित करते हुए अयोध्या आ पहुँचे ॥24।।<span id="25" /> बहुत भारी सेना से सहित उन विद्याधर राजाओं के द्वारा घिरा हुआ लक्ष्मण विजय के सम्मुख हो रामचंद्रजी को आगे कर उस प्रकार चला जिस प्रकार कि लोकपालों से घिरा हुआ देव चलता है ॥25॥<span id="26" /> जिन्होंने नाना शस्त्रों के समूह से सूर्य की किरणें आच्छादित कर ली थीं तथा जो सफेद छत्रों से सुशोभित थे ऐसे राजा रत्नपुर पहुँचे ॥26।।<span id="27" /></p> | <p>तदनंतर महेंद्र, विंध्य, किष्किंध और मलय आदि पर्वतों पर बसे नगरों के अधिपति, विमानों के द्वारा आकाश को आच्छादित करते हुए अयोध्या आ पहुँचे ॥24।।<span id="25" /> बहुत भारी सेना से सहित उन विद्याधर राजाओं के द्वारा घिरा हुआ लक्ष्मण विजय के सम्मुख हो रामचंद्रजी को आगे कर उस प्रकार चला जिस प्रकार कि लोकपालों से घिरा हुआ देव चलता है ॥25॥<span id="26" /> जिन्होंने नाना शस्त्रों के समूह से सूर्य की किरणें आच्छादित कर ली थीं तथा जो सफेद छत्रों से सुशोभित थे ऐसे राजा रत्नपुर पहुँचे ॥26।।<span id="27" /></p> | ||
<p>तदनंतर परचक्र को आया जान, रत्नपुर का युद्ध निपुण राजा समस्त सामंतों के साथ बाहर निकला ॥27।।<span id="28" /> महावेग को धारण करने वाले उस राजा ने निकलते ही दक्षिण की समस्त सेना को क्षण भर में ग्रस्त जैसा कर लिया ॥28।।<span id="29" /> तदनंतर चक्र, क्रकच, बाण, खड्ग, कुंत, पाश, गदा आदि शस्त्रों के द्वारा उन सबका उद्दंडता के कारण गहन युद्ध हुआ ॥29॥<span id="30" /> आकाश में योग्य स्थान पर स्थित अप्सराओं का समूह आश्चर्य से युक्त स्थानों पर पुष्पांजलियाँ छोड़ रहे थे ।।30।।<span id="31" /> तत्पश्चात् जो योद्धारूपी जल जंतुओं का क्षय करने वाला था ऐसा लक्ष्मणरूपी | <p>तदनंतर परचक्र को आया जान, रत्नपुर का युद्ध निपुण राजा समस्त सामंतों के साथ बाहर निकला ॥27।।<span id="28" /> महावेग को धारण करने वाले उस राजा ने निकलते ही दक्षिण की समस्त सेना को क्षण भर में ग्रस्त जैसा कर लिया ॥28।।<span id="29" /> तदनंतर चक्र, क्रकच, बाण, खड्ग, कुंत, पाश, गदा आदि शस्त्रों के द्वारा उन सबका उद्दंडता के कारण गहन युद्ध हुआ ॥29॥<span id="30" /> आकाश में योग्य स्थान पर स्थित अप्सराओं का समूह आश्चर्य से युक्त स्थानों पर पुष्पांजलियाँ छोड़ रहे थे ।।30।।<span id="31" /> तत्पश्चात् जो योद्धारूपी जल जंतुओं का क्षय करने वाला था ऐसा लक्ष्मणरूपी बड़वानल पर-चक्ररूपी समुद्र के बीच अपना विस्तार करने के लिए उद्यत हुआ ॥31॥<span id="32" /> रथ, उत्तमोत्तम घोड़े, तथा मदरूपी जल को बहाने वाले हाथी, उसके वेग से तृण के समान दशों दिशाओं में भाग गये ॥32॥<span id="33" /> कहीं इंद्र के समान शक्ति को धारण करने वाले राम युद्ध-क्रीड़ा करते थे तो कहीं वानर रूप चिह्न से उत्कृष्ट सुग्रीव युद्ध की क्रीड़ा कर रहे थे ॥33॥<span id="34" /> और किसी एक जगह प्रभाजाल से युक्त, महावेगशाली, उग्र हृदय एवं नाना प्रकार की अद्भुत चेष्टाओं को करने वाला हनूमान् युद्ध क्रीड़ा का अनुभव कर रहा था ॥34॥<span id="35" /> जिस प्रकार शरदऋतु के प्रातःकालीन मेघ वायु के द्वारा कहीं ले जाये जाते हैं― तितर-बितर कर दिये जाते हैं उसी प्रकार इन महा योद्धाओं के द्वारा विजयार्ध पर्वत की बड़ी भारी सेना कहीं ले जाई गई थी― पराजित कर इधर उधर खदेड़ दी गई थी ॥35॥<span id="36" /> तदनंतर जिनके युद्ध के मनोरथ नष्ट हो गये थे ऐसे विजयार्ध पर्वत पर के राजा अपने अधिपति-स्वामी के साथ अपने-अपने स्थानों की ओर भाग गये ॥36॥<span id="37" /><span id="38" /></p> | ||
<p>तीव्र क्रोध से भरे, रत्नरथ के उन वीर पुत्रों को भागते हुए देख कर जिन्होंने आकाश में ताली पीटने का बड़ा शब्द किया था, जिनका शरीर चश्चल था, मुख हास्य से युक्त था, तथा नेत्र खिल रहे थे ऐसे कलहप्रिय नारद ने कल-कल शब्द कर कहा कि ॥37-38॥<span id="36" /> अहो ! ये वे ही चपल, क्रोधी, दुष्ट चेष्टा के धारक तथा मंदबुद्धि से युक्त रत्नरथ के पुत्र भागे जा रहे हैं जिन्होंने कि लक्ष्मण के गुणों की उन्नति सहन नहीं की थी ॥36।।<span id="40" /> अरे मानवो ! इन उद्दंड लोगों को शीघ्र ही बलपूर्वक पकड़ो। उस समय मेरा अनादर कर अब कहाँ भागना हो रहा है ? ॥40॥<span id="41" /> इतना कहने पर जिन्होंने जीत का यश प्राप्त किया था तथा जो प्रताप से श्रेष्ठ थे, ऐसे कितने ही धीर-वीर उन्हें पकड़ने के लिए उद्यत हो उनके पीछे दौड़े ॥41।।<span id="42" /> उस समय उन सबके निकटस्थ होने पर रत्नपुर नगर उस वन के समान हो गया था जिसके कि समीप बहुत बड़ा दावानल लग रहा था ॥42॥<span id="43" /><span id="44" /></p> | <p>तीव्र क्रोध से भरे, रत्नरथ के उन वीर पुत्रों को भागते हुए देख कर जिन्होंने आकाश में ताली पीटने का बड़ा शब्द किया था, जिनका शरीर चश्चल था, मुख हास्य से युक्त था, तथा नेत्र खिल रहे थे ऐसे कलहप्रिय नारद ने कल-कल शब्द कर कहा कि ॥37-38॥<span id="36" /> अहो ! ये वे ही चपल, क्रोधी, दुष्ट चेष्टा के धारक तथा मंदबुद्धि से युक्त रत्नरथ के पुत्र भागे जा रहे हैं जिन्होंने कि लक्ष्मण के गुणों की उन्नति सहन नहीं की थी ॥36।।<span id="40" /> अरे मानवो ! इन उद्दंड लोगों को शीघ्र ही बलपूर्वक पकड़ो। उस समय मेरा अनादर कर अब कहाँ भागना हो रहा है ? ॥40॥<span id="41" /> इतना कहने पर जिन्होंने जीत का यश प्राप्त किया था तथा जो प्रताप से श्रेष्ठ थे, ऐसे कितने ही धीर-वीर उन्हें पकड़ने के लिए उद्यत हो उनके पीछे दौड़े ॥41।।<span id="42" /> उस समय उन सबके निकटस्थ होने पर रत्नपुर नगर उस वन के समान हो गया था जिसके कि समीप बहुत बड़ा दावानल लग रहा था ॥42॥<span id="43" /><span id="44" /></p> | ||
<p>अथानंतर उसी समय, जो दृष्टि में आये हुए मनुष्यमात्र के मन को आनंदित करने वाली थी, घबड़ाई हुई थी, घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थी, तथा महाप्रेम के वशीभूत थी ऐसी रत्नस्वरूप मनोरमा कन्या वहाँ लक्ष्मण के समीप उस प्रकार आई जिस प्रकार कि इंद्राणी इंद्र के पास जाती है ।।43-44॥<span id="4" /> जो प्रसाद करने वाले लोगों से सहित थी तथा जो स्वयं प्रसाद कराने के योग्य थी ऐसी उस कन्या को पाकर लक्ष्मण की कलुषता शांत हो गई तथा उसका मुख भृकुटियों से रहित हो गया ।।4।।<span id="46" /><span id="47" /> तत्पश्चात् जिसका मान नष्ट हो गया था, जो देशकाल की विधि को जानने वाला था, जिसने अपना-पराया पौरुष देख लिया था और जो योग्य भेंट से सहित था ऐसे राजा रत्नरथ ने प्रीतिपूर्वक पुत्रों के साथ नगर से बाहर निकल कर सिंह और गरुड की पताकाओं को धारण करने वाले राम-लक्ष्मण की अच्छी तरह स्तुति की ॥46-47।।</p> | <p>अथानंतर उसी समय, जो दृष्टि में आये हुए मनुष्यमात्र के मन को आनंदित करने वाली थी, घबड़ाई हुई थी, घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थी, तथा महाप्रेम के वशीभूत थी ऐसी रत्नस्वरूप मनोरमा कन्या वहाँ लक्ष्मण के समीप उस प्रकार आई जिस प्रकार कि इंद्राणी इंद्र के पास जाती है ।।43-44॥<span id="4" /> जो प्रसाद करने वाले लोगों से सहित थी तथा जो स्वयं प्रसाद कराने के योग्य थी ऐसी उस कन्या को पाकर लक्ष्मण की कलुषता शांत हो गई तथा उसका मुख भृकुटियों से रहित हो गया ।।4।।<span id="46" /><span id="47" /> तत्पश्चात् जिसका मान नष्ट हो गया था, जो देशकाल की विधि को जानने वाला था, जिसने अपना-पराया पौरुष देख लिया था और जो योग्य भेंट से सहित था ऐसे राजा रत्नरथ ने प्रीतिपूर्वक पुत्रों के साथ नगर से बाहर निकल कर सिंह और गरुड की पताकाओं को धारण करने वाले राम-लक्ष्मण की अच्छी तरह स्तुति की ॥46-47।।</p> | ||
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Latest revision as of 18:28, 15 September 2024
तेरानवेवां पर्व
अथानंतर विजयार्ध पर्वत की दक्षिण दिशा में रत्नपुर नाम का नगर है । वहाँ विद्याधरों का राजा रत्नरथ राज्य करता था ॥1॥ उसकी पूर्ण चंद्रानना नाम की रानी के उदर से उत्पन्न मनोरमा नाम की रूपवती पुत्री थी ॥2॥ पुत्री का नव-यौवन देख विचारवान् राजा वर के अन्वेषण की बुद्धि से परम आकुल हुआ ॥3॥ यह कन्या किस योग्य वर के लिए देवें, इस प्रकार उसने मंत्रियों के साथ मिलकर विचार किया ॥4॥ इस तरह राजा के चिंता कुल रहते हुए जब कितने ही दिन बीत गये तब किसी समय नारद आये और राजा से उन्होंने सन्मान प्राप्त किया ॥5॥
जिनकी बुद्धि समस्त लोक की चेष्टा को जानने वाली थी ऐसे नारद जब सुख से बैठ गये तब राजा ने आदर के साथ उनसे प्रकृत बात कही ॥6॥ इसके उत्तर में अवद्वार नाम के धारक नारद ने कहा कि हे राजन्! क्या आप इस युग के प्रधान पुरुष श्रीराम के भाई लक्ष्मण को नहीं जानते ? वह लक्ष्मण उत्कृष्ट लक्ष्मी को धारण करने वाला है, सुंदर लक्षणों से सहित है तथा चक्र के प्रभाव से उसने समस्त शत्रुओं को नतमस्तक कर दिया है ॥7-8॥ सो जिस प्रकार चंद्रिका कुमुदवन को आनंद देने वाली है उसी प्रकार हृदय को आनंद देने वाली यह परम सुंदरी कन्या उसके अनुरूप है ॥9॥
नारद के इस प्रकार कहने पर रत्नरथ के हरिवेग, मनोवेग तथा वायुवेग आदि अभिमानी पुत्र कुपित हो उठे ॥10॥ आत्मीय जनों के घात से उत्पन्न अत्यधिक नूतन वैर का स्मरण कर वे प्रलय काल को अग्नि के समान प्रदीप्त हो उठे तथा उनके शरीर क्रोध से काँपने लगे। उन्होंने कहा कि जिस दुष्ट को आज ही जाकर तथा शीघ्र ही बुलाकर हम लोगों को मारना चाहिए उसके लिए कन्या नहीं दी जाती है ॥11-12॥ इतना कहने पर राजपुत्रों की भौंहों के विकार से प्रेरित हुए किंकरों के समूह ने नारद के पैर पकड़ कर खींचना चाहा परंतु उसी समय देवर्षि नारद शीघ्र ही आकाश तल में उड़ गये और बड़े आदर के साथ अयोध्या नगरी में लक्ष्मण के समीप जा पहुँचे ॥13-14॥
पहले तो नारद ने विस्तार के साथ लक्ष्मण के लिए समस्त संसार की वार्ता सुनाई और उसके बाद मनोरमा कन्या की वार्ता विशेष रूप से बतलाई । उसी समय कौतुक के चिह्न प्रकट करते हुए नारद ने चित्रपट में अंकित वह अद्भुत कन्या दिखाई। वह कन्या नेत्र तथा हृदय को हरने वाली थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन लोक को सुंदरियों की शोभा को एकत्रित कर ही बनाई गई हो ॥15-16॥ उस कन्या को देखकर जिसके नेत्र मृण्मय पुतले के समान निश्चल हो गये थे ऐसा लक्ष्मण वीर होने पर भी काम के वशीभूत हो गया ॥17॥ वह विचार करने लगा कि यदि यह स्त्रीरत्न मुझे नहीं प्राप्त होता है तो मेरा यह राज्य निष्फल है तथा यह जीवन भी सूना है ॥18॥ आदर को धारण करते हुए लक्ष्मण ने नारद से कहा कि हे भगवन् ! मेरे गुणों का निरूपण करते हुए आपको उन कुमारों ने दुःखी क्यों किया ? ॥19॥ कार्य का विचार नहीं करने वाले उन हृदयहीन पापी क्षुद्र पुरुषों की इस प्रचंडता को मैं अभी हाल नष्ट करता हूँ ॥20॥ हे महामुने ! उन कुमारों ने जो पादप्रहार किया है सो उसकी धूलि आपके मस्तक का आश्रय पाकर शुद्ध हो गई है और उस पादप्रहार को मैं समझता हूँ कि वह मेरे मस्तक पर ही किया गया है अतः आप स्वस्थता को प्राप्त हों ॥21॥ इतना कहकर क्रोध से भरे लक्ष्मण ने विराधित नामक विद्याधरों के राजा को बुलाकर कहा कि मुझे शीघ्र ही रत्नपुर पर चढ़ाई करनी है ।।22।। इसलिए मार्ग दिखाओ। इस प्रकार कहने पर कठिन आज्ञा को धारण करने वाले उस रणवीर विराधित ने पत्र लिखकर समस्त विद्याधर राजाओं को बुला लिया ॥23॥
तदनंतर महेंद्र, विंध्य, किष्किंध और मलय आदि पर्वतों पर बसे नगरों के अधिपति, विमानों के द्वारा आकाश को आच्छादित करते हुए अयोध्या आ पहुँचे ॥24।। बहुत भारी सेना से सहित उन विद्याधर राजाओं के द्वारा घिरा हुआ लक्ष्मण विजय के सम्मुख हो रामचंद्रजी को आगे कर उस प्रकार चला जिस प्रकार कि लोकपालों से घिरा हुआ देव चलता है ॥25॥ जिन्होंने नाना शस्त्रों के समूह से सूर्य की किरणें आच्छादित कर ली थीं तथा जो सफेद छत्रों से सुशोभित थे ऐसे राजा रत्नपुर पहुँचे ॥26।।
तदनंतर परचक्र को आया जान, रत्नपुर का युद्ध निपुण राजा समस्त सामंतों के साथ बाहर निकला ॥27।। महावेग को धारण करने वाले उस राजा ने निकलते ही दक्षिण की समस्त सेना को क्षण भर में ग्रस्त जैसा कर लिया ॥28।। तदनंतर चक्र, क्रकच, बाण, खड्ग, कुंत, पाश, गदा आदि शस्त्रों के द्वारा उन सबका उद्दंडता के कारण गहन युद्ध हुआ ॥29॥ आकाश में योग्य स्थान पर स्थित अप्सराओं का समूह आश्चर्य से युक्त स्थानों पर पुष्पांजलियाँ छोड़ रहे थे ।।30।। तत्पश्चात् जो योद्धारूपी जल जंतुओं का क्षय करने वाला था ऐसा लक्ष्मणरूपी बड़वानल पर-चक्ररूपी समुद्र के बीच अपना विस्तार करने के लिए उद्यत हुआ ॥31॥ रथ, उत्तमोत्तम घोड़े, तथा मदरूपी जल को बहाने वाले हाथी, उसके वेग से तृण के समान दशों दिशाओं में भाग गये ॥32॥ कहीं इंद्र के समान शक्ति को धारण करने वाले राम युद्ध-क्रीड़ा करते थे तो कहीं वानर रूप चिह्न से उत्कृष्ट सुग्रीव युद्ध की क्रीड़ा कर रहे थे ॥33॥ और किसी एक जगह प्रभाजाल से युक्त, महावेगशाली, उग्र हृदय एवं नाना प्रकार की अद्भुत चेष्टाओं को करने वाला हनूमान् युद्ध क्रीड़ा का अनुभव कर रहा था ॥34॥ जिस प्रकार शरदऋतु के प्रातःकालीन मेघ वायु के द्वारा कहीं ले जाये जाते हैं― तितर-बितर कर दिये जाते हैं उसी प्रकार इन महा योद्धाओं के द्वारा विजयार्ध पर्वत की बड़ी भारी सेना कहीं ले जाई गई थी― पराजित कर इधर उधर खदेड़ दी गई थी ॥35॥ तदनंतर जिनके युद्ध के मनोरथ नष्ट हो गये थे ऐसे विजयार्ध पर्वत पर के राजा अपने अधिपति-स्वामी के साथ अपने-अपने स्थानों की ओर भाग गये ॥36॥
तीव्र क्रोध से भरे, रत्नरथ के उन वीर पुत्रों को भागते हुए देख कर जिन्होंने आकाश में ताली पीटने का बड़ा शब्द किया था, जिनका शरीर चश्चल था, मुख हास्य से युक्त था, तथा नेत्र खिल रहे थे ऐसे कलहप्रिय नारद ने कल-कल शब्द कर कहा कि ॥37-38॥ अहो ! ये वे ही चपल, क्रोधी, दुष्ट चेष्टा के धारक तथा मंदबुद्धि से युक्त रत्नरथ के पुत्र भागे जा रहे हैं जिन्होंने कि लक्ष्मण के गुणों की उन्नति सहन नहीं की थी ॥36।। अरे मानवो ! इन उद्दंड लोगों को शीघ्र ही बलपूर्वक पकड़ो। उस समय मेरा अनादर कर अब कहाँ भागना हो रहा है ? ॥40॥ इतना कहने पर जिन्होंने जीत का यश प्राप्त किया था तथा जो प्रताप से श्रेष्ठ थे, ऐसे कितने ही धीर-वीर उन्हें पकड़ने के लिए उद्यत हो उनके पीछे दौड़े ॥41।। उस समय उन सबके निकटस्थ होने पर रत्नपुर नगर उस वन के समान हो गया था जिसके कि समीप बहुत बड़ा दावानल लग रहा था ॥42॥
अथानंतर उसी समय, जो दृष्टि में आये हुए मनुष्यमात्र के मन को आनंदित करने वाली थी, घबड़ाई हुई थी, घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थी, तथा महाप्रेम के वशीभूत थी ऐसी रत्नस्वरूप मनोरमा कन्या वहाँ लक्ष्मण के समीप उस प्रकार आई जिस प्रकार कि इंद्राणी इंद्र के पास जाती है ।।43-44॥ जो प्रसाद करने वाले लोगों से सहित थी तथा जो स्वयं प्रसाद कराने के योग्य थी ऐसी उस कन्या को पाकर लक्ष्मण की कलुषता शांत हो गई तथा उसका मुख भृकुटियों से रहित हो गया ।।4।। तत्पश्चात् जिसका मान नष्ट हो गया था, जो देशकाल की विधि को जानने वाला था, जिसने अपना-पराया पौरुष देख लिया था और जो योग्य भेंट से सहित था ऐसे राजा रत्नरथ ने प्रीतिपूर्वक पुत्रों के साथ नगर से बाहर निकल कर सिंह और गरुड की पताकाओं को धारण करने वाले राम-लक्ष्मण की अच्छी तरह स्तुति की ॥46-47।।
इसी बीच में नारद ने आकर बहुत बड़ी भीड़ के मध्य में स्थित रत्नरथ को मंद हास्यपूर्ण वचनों से इस प्रकार लज्जित किया कि अहो ! अब तेरा क्या हाल है ? तू रत्नरथ था अथवा रजोरथ ? तू बहुत बड़े योद्धाओं के कारण गर्जना कर रहा था सो अब तेरी कुशल तो है ? ॥48-46।। जान पड़ता है कि तू गर्व का महा पर्वत स्वरूप वह रत्नरथ नहीं है किंतु नारायण के चरणों की सेवा में स्थित रहने वाला कोई दूसरा ही राजा है ॥50॥ तदनंतर कहकहा शब्द कर तथा एक हाथ से दूसरे हाथ की ताली पीटते हुए कहा कि अहो ! रत्नरथ के पुत्रो ! सुख से तो हो ? ॥51॥ यह वही नारायण है कि जिसके विषय में उस समय अपने घर में ही उद्धत चेष्टा दिखाने वाले आप लोगों ने उस तरह हृदय को पकड़ने वाली बात कही थी ॥52।। इस प्रकार यह होने पर भी उन सबने कहा कि हे नारद ! तुम्हें कुपित किया उसी का यह फल है कि हम लोगों को जिसका मिलना अत्यंत दुर्लभ था ऐसा महापुरुषों का संपर्क प्राप्त हुआ ॥53।।
इस प्रकार विनोदपूर्ण कथाओं से वहाँ क्षणभर ठहर कर सब लोगों ने बड़े वैभव के साथ नगर में प्रवेश किया ॥54॥ उसी समय जो रति के समान रूप की धारक थी तथा देवों को भी आनंदित करने वाली थी ऐसी श्रीदामा नाम की कन्या राम के लिए दी गई। ऐसी स्त्री को पाकर जिनका मेरु के समान प्रभाव था तथा जिन्होंने उसका पाणिग्रहण किया था ऐसे श्रीराम अत्यधिक प्रसन्न हुए ॥55।। तदनंतर राजा रत्नरथ ने रावण का क्षय करने वाले लक्ष्मण के लिए सार्थक नाम वाली मनोरमा कन्या दी और उन दोनों का उत्तम पाणिग्रहण हुआ ॥56॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि यतश्च इस तरह मनुष्यों के पुण्य प्रभाव से अत्यंत क्रोधी मनुष्य भी शांति को प्राप्त हो जाते हैं और अमूल्य रत्न उन्हें प्राप्त होते रहते हैं इसलिए हे भव्यजनो ! सूर्य के समान निर्मल पुण्य का संचय करो ॥57॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मनोरमा की प्राप्ति का कथन करने वाला तेरानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥93॥