अगुरुलघु: Difference between revisions
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जड़ या चेतन प्रत्येक | <p class="HindiText">जड़ या चेतन प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु नाम का एक सूक्ष्म गुण स्वीकार किया गया है जिसके कारण वह प्रतिक्षण सूक्ष्म परिणमन करते हुए भी ज्यों का त्यों बना रहता है। संयोगी अवस्था में वह परिणमन स्थूल रूपसे दृष्टिगत होता है। शरीरधारी जीव भी हलके-भारीपने की कल्पना से युक्त हो जाता है। इस कल्पना का कारण अगुरुलघु नाम का एक कर्म स्वीकार किया गया है। इन दोनों का ही परिचय इस अधिकार में दिया गया है।</p> | ||
<p class="HindiText"><b>1. अगुरुलघु गुण का लक्षण (षट् गुण हानि वृद्धि)</b></p> | |||
<span class="GRef">आलापपद्धति अधिकार 6</span> <p class="SanskritText">अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्। सूक्ष्मावागगोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः। </p> | |||
<p class="HindiText">= अगुरुलघु भाव अगुरुलघुपन है। अर्थात् जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा बना रहे अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुण रूप हो सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में तथा उसके गुणों में समय-समय प्रति षट्गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे अगुरुलघु गुण कहते हैं। अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर है, केवल आगम प्रमाणगम्य है।</p> | |||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ठ/शक्ति नं.17</span> <p class="SanskritText">षट्स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः। </p> | |||
<p class="HindiText">= षट्स्थान पतित वृद्धि-हानिरूप परिणत हुआ जो वस्तु के निज स्वभाव की प्रतिष्ठा का कारण विशेष अगुरुलघुत्व नामा गुण-स्वरूप अगुरुलघुत्व नामा सत्रहवीं शक्ति है।</p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 80/101</span><p class="SanskritText"> अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः। </p> | |||
<p class="HindiText">= अगुरुलघु गुण की षड्गुणहानि वृद्धि रूप से प्रतिक्षण प्रवर्तमान अर्थ पर्याय होती है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>2. सिद्धों के अगुरुलघु गुण का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/43</span> <p class="SanskritText">यदि सर्वथा गुरुत्वं भवति तदा लोहपिंडवदधःपतनं यदि च सर्वथा लघुत्वं भवति तदा वाताहतार्कतूलवत्सर्वदैव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभिधीयते। </p> | |||
<p class="HindiText">= यदि उनका स्वरूप सर्वथा गुरु हो तो लोहें के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि वह सर्वथा लघु हो तो वायु से प्रेरित आक की रूई को तरह वह सदा इधर-उधर घूमता रहेगा, किंतु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है इस कारण उनके `अगुरुलघु' गुण कहा जाता है।</p> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/61/62 </span><p class="SanskritText">सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम्। गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनित महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति। </p> | |||
<p class="HindiText">= सिद्धवस्था के योग्य विशेष अगुरुलघुगुण, नाम कर्म के उदय से अथवा गोत्रकर्म के उदय से ढँक गया है। क्योंकि गोत्र कर्म के उदय से जब नीच गोत्र पाया, तब तुच्छ या लघु कहलाया और उच्च गोत्रमें बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>3. अगुरुलघु नामकर्म का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/11/391</span><p class="SanskritText"> यस्योदयादयःपिंडवद् गुरुत्वान्नाधः पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वं गच्छति तद्गुरुलघु नाम। </p> | |||
<p class="HindiText">= जिसके उदय से लोहे के पिंड के समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। </p> | |||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 8/11/12/577/31)</span> <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./33/29/12)</span>।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/58/1</span><p class="PrakritText"> अणंताणंतेहि पोग्गलेहि आऊरियस्स जीवस्स जेहि कम्मक्खंधेहिंतो अगुरुअलहुअत्तं होदि, तेसिमअगुरुअलहुअं त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। जदि अगुरुअलहुवकम्मं जीवस्स ण होज्ज, तो जीवो लोहगोलओ व्व गरुअओ अक्कतूलं व हलुओ वा होज्ज। ण च एवं अणुवलभादो। </p> | |||
<p class="HindiText">= अनंतानंत पुद्गलों से भरपूर जीव के जिन कर्मस्कंधों के द्वारा अगुरुलघुपना होता है, उन पुद्गल स्कंधों की `अगुरुलघु' यह संज्ञा कारणमें कार्य के उपचारसे की गयी है। यदि जीवके अगुरुलघु कर्म न हो, तो या तो जीव लोहे के गोले के समान भारी हो जायेगा, अथवा आकके तूलके समान हलका हो जायेगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(धवला पुस्तक 13/5,5,101/364/10)</span>।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-2,79/114/3</span> <p class="PrakritText">अण्णहा गरुअसरीरेणोट्ठद्धो जीवो उट्ठेदुं पिण सक्केज्ज। ण च एवं, सरीरस्स-अगुरु-अलहु अत्ताणमणुवलंभा। </p> | |||
<p class="HindiText">= यदि ऐसा (इस कर्मको पुद्गल विपाकी) न माना जाये, तो गुरु भार वाले शरीर से संयुक्त यह जीव उठने के लिए भी न समर्थ होगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर के केवल हलकापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता है।</p> | |||
<p class="HindiText">• अगुरुलघु नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ तत्संबंधी नियम आदि – देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>4. अगुरुलघु गुण अनिर्वचनीय है</b></p> | |||
<span class="GRef">आलापपद्धति अधिकार 6</span> <p class="SanskritText">सूक्ष्मावाग्गोचराः आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः। </p> | |||
<p class="HindiText">= अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर है। आगम प्रमाण के ही गम्य है। </p> | |||
<p><span class="GRef">( नयचक्र / श्रुत भवन दीपक अधिकार /57)</span>।</p> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 192</span> <p class="SanskritText">किंत्वस्ति च कोऽपि गुणोऽनिर्वचनीयः स्वतःसिद्धः। नाम्ना चागुरुलघुरिति गुरुलक्ष्यः स्वानुभूतिलक्ष्यो वा। </p> | |||
<p class="HindiText">= किंतु स्वत सिद्ध और प्रत्यक्षदर्शियों के लक्ष्यमें आने योग्य अर्थात् केवलज्ञानगम्य अथवा ज्ञानुभूति के द्वारा जानने के योग्य तथा नामसे अगुरुलघु ऐसा कोई वचनों के अगोचर गुण है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>5. जीव के अगुरुलघु गुण व अगुरुलघु नाम कर्मोदयकृत अगुरुलघु में अंतर</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-2,78/113/11</span> <p class="PrakritText">अगुरुलअलहुअत्तं णाम सव्वजीवाणं पारिणामियमत्थि, सिद्धेसु खीणासेसकम्मेसु वि तस्सुवलंभा। तदो अगुरुअलहुअकम्मस्स फलाभावा तस्साभावो इदि। एत्थ परिहारो उच्चदे-होज्ज एसो दोसो, जदि अगुरुअलहुअं जीवविवाई होदि । किंतु एवं पोग्गलविवाई, अणंताणंतपोग्गलेहि गुरुपासेहि आरद्धस्स अलहुअत्तुप्पायणादो। अण्णहा गरुअसरीरेणोट्ठद्धो जीवो उट्ठेवुंपि ण सक्केज्ज। ण च एवं, सरीरस्स अगुरु-अलहुअत्ताणमणुवलंभा। </p> | |||
<p class="HindiText">= शंका-अगुरुलघु नामका गुण सर्व जीवों में पारिणामिक है, क्योंकि अशेष कर्मों से रहित सिद्धों में भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुलघु नामकर्म का कोई फल न होनेसे उसका अभाव मानना चाहिए? <b>उत्तर</b> - यहाँपर उक्त शंका का परिहार करते हैं। यह उपर्युक्त दोष प्राप्त होता, यदि अगुरुलघु नाम-कर्म जीवविपाकी होता। किंतु यह कर्म पुद्गलविपाकी है, क्योंकि गुरुस्पर्शवाले अनंतानंत पुद्गल वर्गणाओं के द्वारा आरब्ध शरीर के अगुरुलघुता की उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न माना जाये, तो गुरु भारवाले शरीरसे संयुक्त यह जीव उठने के लिए भी न समर्थ होगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर के केवल हल्कापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 6/19/128/58/4</span> <p class="PrakritText">अगुरुवलहुअत्तं णाम जीवस्स साहावियमत्थि चे ण, संसारावत्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा। ण च सहावविणासे जीवस्स विणासो, लक्खणविणासे लक्खविणासस्स णाइयत्तादो। ण च णाणदंसणे मुच्चा जीवस्स अगुरुलहुअत्तं लक्खणं, तस्स आयासादीसु वि उवलंभा। किं च ण एत्थ जीवस्स अगुरुलहुअत्तं कम्मेण कीरइ, किंतु जीवम्हि भरिओ जो पोग्गलक्खंधो, सो जस्स कम्मस्स उदएण जीव स गरुओ हलुवो वा त्ति णावडइ तमगुरुवलहुअं। तेण ण एत्थ जीवविसय अगुरुलहुवत्तस्स गहणं। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> -अगुरुलघु तो जीव का स्वाभाविक गुण है (फिर उसे यहाँ कर्म प्रकृतियों में क्यों गिनाया)? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि संसार अवस्थामें कर्म-परतंत्र जीवमें उस स्वाभाविक अगुरुलघु गुण का अभाव है। यदि ऐसा कहा जाये कि स्वभाव का विनाश माननेपर जीवका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होनेपर लक्ष्य का विनाश होता है ऐसा न्याय है, सो भी यहाँ बात नहीं है, अर्थात् अगुरुलघु नामकर्म के विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनको छोड़कर अगुरुलघुत्व जीवका लक्षण नहीं है, चूँकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि यहाँ जीवका अगुरुलघुत्व कर्मके द्वारा नहीं किया जाता है किंतु जीवमें भरा हुआ जो पुद्गल स्कंध है, वह जिस कर्मके उदयसे जीवके भारी या हलका नहीं होता है, वह अगुरुलघु यहाँ विवक्षित है। अतएव यहाँपर जीव विषयक अगुरुलघुत्व का ग्रहण नहीं करना चाहिए।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>6. अजीव द्रव्यों में अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है।</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 8/11,12/577/32</span> <p class="SanskritText">धर्मादीनामजीवानां कथमगुरुलघुत्वमिति चेत्। अनादिपारिणामिकागुरुलघुत्वगुणयोगात्। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> -धर्म अधर्मादि अजीव द्रव्यों में अगुरुलघुपना कैसे घटित होता है? <b>उत्तर</b> - अनादि पारिणामिक अगुरुलघुत्व गुण के संबंध से उनमें उसकी सिद्धि हो जाती है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>7. मुक्त जीवों में अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 8/11,12/577/33</span> <p class="SanskritText">मुक्तजीवानां कथमिति चेत्? अनादि-कर्मनोकर्मसंबंधानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्, तदत्यंतविनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> -मुक्त जीवों में (अगुरुलघु) कैसे घटित होता है, क्योंकि वहाँ तो नामकर्म का अभाव है। <b>उत्तर</b> - अनादि कर्म नोकर्म के बंधन से बद्ध जीवों में कर्मोदय कृत अगुरुलघु गुण होता है। उसके अत्यंताभाव हो जाने पर मुक्त जीवों के स्वाभाविक अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है।</p> | |||
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Latest revision as of 22:59, 25 November 2024
जड़ या चेतन प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु नाम का एक सूक्ष्म गुण स्वीकार किया गया है जिसके कारण वह प्रतिक्षण सूक्ष्म परिणमन करते हुए भी ज्यों का त्यों बना रहता है। संयोगी अवस्था में वह परिणमन स्थूल रूपसे दृष्टिगत होता है। शरीरधारी जीव भी हलके-भारीपने की कल्पना से युक्त हो जाता है। इस कल्पना का कारण अगुरुलघु नाम का एक कर्म स्वीकार किया गया है। इन दोनों का ही परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
1. अगुरुलघु गुण का लक्षण (षट् गुण हानि वृद्धि)
आलापपद्धति अधिकार 6
अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्। सूक्ष्मावागगोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः।
= अगुरुलघु भाव अगुरुलघुपन है। अर्थात् जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा बना रहे अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुण रूप हो सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में तथा उसके गुणों में समय-समय प्रति षट्गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे अगुरुलघु गुण कहते हैं। अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर है, केवल आगम प्रमाणगम्य है।
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ठ/शक्ति नं.17
षट्स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः।
= षट्स्थान पतित वृद्धि-हानिरूप परिणत हुआ जो वस्तु के निज स्वभाव की प्रतिष्ठा का कारण विशेष अगुरुलघुत्व नामा गुण-स्वरूप अगुरुलघुत्व नामा सत्रहवीं शक्ति है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 80/101
अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः।
= अगुरुलघु गुण की षड्गुणहानि वृद्धि रूप से प्रतिक्षण प्रवर्तमान अर्थ पर्याय होती है।
2. सिद्धों के अगुरुलघु गुण का लक्षण
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/43
यदि सर्वथा गुरुत्वं भवति तदा लोहपिंडवदधःपतनं यदि च सर्वथा लघुत्वं भवति तदा वाताहतार्कतूलवत्सर्वदैव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभिधीयते।
= यदि उनका स्वरूप सर्वथा गुरु हो तो लोहें के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि वह सर्वथा लघु हो तो वायु से प्रेरित आक की रूई को तरह वह सदा इधर-उधर घूमता रहेगा, किंतु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है इस कारण उनके `अगुरुलघु' गुण कहा जाता है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/61/62
सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम्। गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनित महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति।
= सिद्धवस्था के योग्य विशेष अगुरुलघुगुण, नाम कर्म के उदय से अथवा गोत्रकर्म के उदय से ढँक गया है। क्योंकि गोत्र कर्म के उदय से जब नीच गोत्र पाया, तब तुच्छ या लघु कहलाया और उच्च गोत्रमें बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया।
3. अगुरुलघु नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/11/391
यस्योदयादयःपिंडवद् गुरुत्वान्नाधः पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वं गच्छति तद्गुरुलघु नाम।
= जिसके उदय से लोहे के पिंड के समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/11/12/577/31) (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./33/29/12)।
धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/58/1
अणंताणंतेहि पोग्गलेहि आऊरियस्स जीवस्स जेहि कम्मक्खंधेहिंतो अगुरुअलहुअत्तं होदि, तेसिमअगुरुअलहुअं त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। जदि अगुरुअलहुवकम्मं जीवस्स ण होज्ज, तो जीवो लोहगोलओ व्व गरुअओ अक्कतूलं व हलुओ वा होज्ज। ण च एवं अणुवलभादो।
= अनंतानंत पुद्गलों से भरपूर जीव के जिन कर्मस्कंधों के द्वारा अगुरुलघुपना होता है, उन पुद्गल स्कंधों की `अगुरुलघु' यह संज्ञा कारणमें कार्य के उपचारसे की गयी है। यदि जीवके अगुरुलघु कर्म न हो, तो या तो जीव लोहे के गोले के समान भारी हो जायेगा, अथवा आकके तूलके समान हलका हो जायेगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है।
(धवला पुस्तक 13/5,5,101/364/10)।
धवला पुस्तक 6/1,9-2,79/114/3
अण्णहा गरुअसरीरेणोट्ठद्धो जीवो उट्ठेदुं पिण सक्केज्ज। ण च एवं, सरीरस्स-अगुरु-अलहु अत्ताणमणुवलंभा।
= यदि ऐसा (इस कर्मको पुद्गल विपाकी) न माना जाये, तो गुरु भार वाले शरीर से संयुक्त यह जीव उठने के लिए भी न समर्थ होगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर के केवल हलकापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता है।
• अगुरुलघु नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ तत्संबंधी नियम आदि – देखें वह वह नाम ।
4. अगुरुलघु गुण अनिर्वचनीय है
आलापपद्धति अधिकार 6
सूक्ष्मावाग्गोचराः आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः।
= अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर है। आगम प्रमाण के ही गम्य है।
( नयचक्र / श्रुत भवन दीपक अधिकार /57)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 192
किंत्वस्ति च कोऽपि गुणोऽनिर्वचनीयः स्वतःसिद्धः। नाम्ना चागुरुलघुरिति गुरुलक्ष्यः स्वानुभूतिलक्ष्यो वा।
= किंतु स्वत सिद्ध और प्रत्यक्षदर्शियों के लक्ष्यमें आने योग्य अर्थात् केवलज्ञानगम्य अथवा ज्ञानुभूति के द्वारा जानने के योग्य तथा नामसे अगुरुलघु ऐसा कोई वचनों के अगोचर गुण है।
5. जीव के अगुरुलघु गुण व अगुरुलघु नाम कर्मोदयकृत अगुरुलघु में अंतर
धवला पुस्तक 6/1,9-2,78/113/11
अगुरुलअलहुअत्तं णाम सव्वजीवाणं पारिणामियमत्थि, सिद्धेसु खीणासेसकम्मेसु वि तस्सुवलंभा। तदो अगुरुअलहुअकम्मस्स फलाभावा तस्साभावो इदि। एत्थ परिहारो उच्चदे-होज्ज एसो दोसो, जदि अगुरुअलहुअं जीवविवाई होदि । किंतु एवं पोग्गलविवाई, अणंताणंतपोग्गलेहि गुरुपासेहि आरद्धस्स अलहुअत्तुप्पायणादो। अण्णहा गरुअसरीरेणोट्ठद्धो जीवो उट्ठेवुंपि ण सक्केज्ज। ण च एवं, सरीरस्स अगुरु-अलहुअत्ताणमणुवलंभा।
= शंका-अगुरुलघु नामका गुण सर्व जीवों में पारिणामिक है, क्योंकि अशेष कर्मों से रहित सिद्धों में भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुलघु नामकर्म का कोई फल न होनेसे उसका अभाव मानना चाहिए? उत्तर - यहाँपर उक्त शंका का परिहार करते हैं। यह उपर्युक्त दोष प्राप्त होता, यदि अगुरुलघु नाम-कर्म जीवविपाकी होता। किंतु यह कर्म पुद्गलविपाकी है, क्योंकि गुरुस्पर्शवाले अनंतानंत पुद्गल वर्गणाओं के द्वारा आरब्ध शरीर के अगुरुलघुता की उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न माना जाये, तो गुरु भारवाले शरीरसे संयुक्त यह जीव उठने के लिए भी न समर्थ होगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीर के केवल हल्कापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता।
धवला पुस्तक 6/19/128/58/4
अगुरुवलहुअत्तं णाम जीवस्स साहावियमत्थि चे ण, संसारावत्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा। ण च सहावविणासे जीवस्स विणासो, लक्खणविणासे लक्खविणासस्स णाइयत्तादो। ण च णाणदंसणे मुच्चा जीवस्स अगुरुलहुअत्तं लक्खणं, तस्स आयासादीसु वि उवलंभा। किं च ण एत्थ जीवस्स अगुरुलहुअत्तं कम्मेण कीरइ, किंतु जीवम्हि भरिओ जो पोग्गलक्खंधो, सो जस्स कम्मस्स उदएण जीव स गरुओ हलुवो वा त्ति णावडइ तमगुरुवलहुअं। तेण ण एत्थ जीवविसय अगुरुलहुवत्तस्स गहणं।
= प्रश्न -अगुरुलघु तो जीव का स्वाभाविक गुण है (फिर उसे यहाँ कर्म प्रकृतियों में क्यों गिनाया)? उत्तर - नहीं, क्योंकि संसार अवस्थामें कर्म-परतंत्र जीवमें उस स्वाभाविक अगुरुलघु गुण का अभाव है। यदि ऐसा कहा जाये कि स्वभाव का विनाश माननेपर जीवका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होनेपर लक्ष्य का विनाश होता है ऐसा न्याय है, सो भी यहाँ बात नहीं है, अर्थात् अगुरुलघु नामकर्म के विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनको छोड़कर अगुरुलघुत्व जीवका लक्षण नहीं है, चूँकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि यहाँ जीवका अगुरुलघुत्व कर्मके द्वारा नहीं किया जाता है किंतु जीवमें भरा हुआ जो पुद्गल स्कंध है, वह जिस कर्मके उदयसे जीवके भारी या हलका नहीं होता है, वह अगुरुलघु यहाँ विवक्षित है। अतएव यहाँपर जीव विषयक अगुरुलघुत्व का ग्रहण नहीं करना चाहिए।
6. अजीव द्रव्यों में अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है।
राजवार्तिक अध्याय 8/11,12/577/32
धर्मादीनामजीवानां कथमगुरुलघुत्वमिति चेत्। अनादिपारिणामिकागुरुलघुत्वगुणयोगात्।
= प्रश्न -धर्म अधर्मादि अजीव द्रव्यों में अगुरुलघुपना कैसे घटित होता है? उत्तर - अनादि पारिणामिक अगुरुलघुत्व गुण के संबंध से उनमें उसकी सिद्धि हो जाती है।
7. मुक्त जीवों में अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है
राजवार्तिक अध्याय 8/11,12/577/33
मुक्तजीवानां कथमिति चेत्? अनादि-कर्मनोकर्मसंबंधानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्, तदत्यंतविनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति।
= प्रश्न -मुक्त जीवों में (अगुरुलघु) कैसे घटित होता है, क्योंकि वहाँ तो नामकर्म का अभाव है। उत्तर - अनादि कर्म नोकर्म के बंधन से बद्ध जीवों में कर्मोदय कृत अगुरुलघु गुण होता है। उसके अत्यंताभाव हो जाने पर मुक्त जीवों के स्वाभाविक अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है।