इष्टोपदेश - श्लोक 23: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 21: | Line 21: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 24 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 24 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ क्षु. मनोहर वर्णी - इष्टोपदेश प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[ क्षु. मनोहर वर्णी - इष्टोपदेश प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: इष्टोपदेश]] | [[Category: इष्टोपदेश]] | ||
[[Category: क्षु. मनोहर वर्णी]] | [[Category: क्षु. मनोहर वर्णी]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः।
ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः।।२३।।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का परिणाम—अज्ञानी की उपासना से अज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञानी की उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है, क्योंकि संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो है वह तो दे सकेगा। अज्ञानी मोही पुरुषो की संगति करके तो आकुलता, विह्वलता, ममता, मूढ़ता आदि ये सब ऐब प्राप्त होगे और कोई ज्ञानी की संगति करे तो उसमें शुद्धबुद्धि, शुद्ध आचार विचार और शान्ति प्रकट होगी। परमार्थ से कोई पुरूष किसी दूसरे का आश्रय नहीं करता है। प्रत्येक प्राणी अपने आपका ही सहारा लिया करता है। जिस प्राणी का चित्त पर की और है तो उसके उपयोग में केवल परपदार्थ विषय है क्योंकि पर से सहारा लेने की कल्पना की। परन्तु कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का सहारा पा ही नहीं सकता है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप है।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का विवरण—जो पुरूष ज्ञानियों की संगति करता है उसके उपचार से तो ज्ञानियों की संगति की, पर परमार्थ से उसने अपने ज्ञान की संगति की। अपने ज्ञान का ही सहारा लिया, यह बात है। अपने को ज्ञानस्वरूप में देखे तो ज्ञान मिलेगा और अपने को अज्ञानस्वरूप निरखें तो अज्ञान मिलेगा। मैं मनुष्य हूँ, कुटुम्ब वाला हूँ, धनवाला हूँ, इज्जत वाला हूँ, साधु हूँ, गृहस्थ हूँ आदि रूप से निरखे तो अज्ञान रूप में देखा क्योंकि जितनी बातें अभी कही गयी है उनमें एक भी चीज इस आत्मा का स्वरूप नहीं है। जो आत्मा का स्वरूप नहीं है उस रूप अपने आपको देखे तो उससे अज्ञान ही प्रकट होगा। यदि अपने को शुद्ध ज्ञान ज्योतिमात्र निरखे, इसका किसी अन्य से सम्बंध नहीं है, यह मात्र केवल निज ज्ञानस्वरूप है। सबसे न्यारा स्वतंत्र, परिपूर्ण जैसा स्वयं है तैसा अपने को देखें तो उससे ज्ञान प्रकट होगा।
कल्पनाजाल का क्लेश—भैया! जितने भी जीव को समागम मिले हैं वे समस्त समागम मिटेंगे, झक मारकर छोड़ने पड़ेंगे, लेकिन पदार्थ पहिले से ही छूटे हुए है। मैं सबसे न्यारा हूं, ऐसा ज्ञान का पुरूषार्थ करे और ममता का परिहार कर दे तो उसका भला है। और कोई न कर सके ऐसा तो संसार में वही रुलेगा। जीव पर संकट केवल मोह का है दूसरा कोई संकट नहीं है लेकिन ऐसा ही संस्कार बना है कि जिसके कारण जितना जो कुछ मिला है और जितना मिलने की आशा है उसमें कोई बाधा पड़ जाय तो बड़ा क्लेश मानता है। किसी व्यापार में यह ध्यान हो गया कि इसमें तो इतने का टोटा हो गया तो यह पछतावा करता है। सोचता है कि इसे कल ही बेच देते तो ठीक था। अब मैं इतने घाटे में हो गया हूं। अरे चीज वही की वही घर में है, घाटा तो कल्पना का है।
उदारता का अवसर—कल्पना करो कि जितनी जिसके पास जायदाद है उससे चौथाई ही होती तो क्या वे गुजारा न करते? मिल गयी है अब सुकृत के उदयवश तो उसे यो जानो कि यह उपकार के लिए मिली है। भोग विषय मौज के लिए नहीं है। उस सम्पत्ति का उपयोग अपने विषयों के खातिर न करे। अपना जीवन तो वैसे ही रखे, जैसे कि अन्य गरीब लोग रखते हैं और दिल में उदारता बर्ते तो उसे कभी बेचैनी का प्रसंग न आयगा। पहिले लोग ऐसे ही उदार होते थे। महिलाओं में भी किसी घर में यदि कोई बहू विधवा हो जाय तो उस घर की जेठानी, सास, बड़े लोग सभी सात्त्विक वृत्ति से रहते थे। वे महिलाएँ सोचती थी कि यदि हम लोग श्रृंगार करेंगी तो बहू के दिल में धक्का लगेगा। इतनी उदारता उनमें प्रकृत्या होती थी। और भी इसी प्रकार की गृह सम्बंधी उदारताएँ होती थी।
उदारता की एक घटित पद्धति—पूर्वजों में सामाजिक उदारताएँ भी अपूर्व ढंग की थी। समाज का कोई काम बनाना हो तो अपना अपयश करके भी उस काम को बनाने की धुन रखते थे। एक किसी नगर का जिक्र है कि पंचायत के प्रमुख ने एक नियम बना दिया कि मंदिर में कोई रेशम की साड़ी पहिनकर न आये। तो यह बात चले कैसे? जो रिवाज चला आ रहा था वह मिटे कैसे? उसमें कोई क्रांति वाली घटना जब तक सामने न आये तो असर नहीं पड़ता, सो उस प्रमुख ने अपनी स्त्री से कह दिया कि कल तुम रेशम की साड़ी पहिनकर खूब सज-धजकर जाना मंदिर। वह गयी मंदिर, और फिर प्रमुख ने उसे ऐसा ललकारा कि यह कौन डाइन, वेश्या इस मंदिर में रेशम की साड़ी पहिनकर आयी? ऐसे शब्द सुनकर मालिन बोली, हजूर आपके ही घर से है ऐसा न कहिये। तब प्रमुख ने कहा हम कुछ नहीं जानते, ५०) रु. जुर्माना। तब से फिर समाज पर प्रभाव पड़ा। वह रेशम की साड़ी पहिनकर आने वाली बात बंद हो गयी। तो उदारता की बात पहिले इस प्रकार विचित्र पद्धति की थी।
पारमार्थिक उदारता—अपने को ज्ञानस्वरूप समझना, अकिञ्चन मानना, केवल स्वरूपसत्ता मात्र अपने को निरखना एक भी पैसे का अपने को धनी न समझना, एक अणु भी मेरा नहीं है ऐसी अपनी बुद्धि बनाना इससे बढ़कर उदारता क्या होगी? सम्यग्ज्ञान में सर्वोत्कृष्ट उदारता भरी हुई है, मगर कहने सुनने मात्र का ही सम्यग्ज्ञान है। सर्व प्रभावों से रहित ज्ञानमात्र मैं आत्मा हूँ, अकेला हूं, सबसे न्यारा हूँ, मेरे करने से किसी दूसरे का कुछ होता नहीं, अत्यन्त स्वतंत्र मैं आत्मा हूँ—ऐसा केवल अपने अद्वैत आत्मा का अनुराग हो तो वह पुरुष वास्तव में अमीर है, सुखी है, पवित्र है, विजयी है, और जो बाहरी पदार्थों में आसक्ति लगाए हुए है, कितना ही धन का खर्च है, कितने ही झंझट भी सह रहे हैं वे दीन है। मृत्यु के दिन निकट आ रहे हैं प्रथम तो किसी की भी मृत्यु का पता नहीं है, पर आयु अधिक हो जाय तो उसके बाद और क्या होगा? बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा और बुढ़ापा के बाद क्या फिर जवानी आयगी? नहीं। मरण होगा, फिर नया जन्म होगा। तो यह समय प्रवाह से बह रहा है और हम ममता में कुछ अन्तर न डाले, ढील न करे तो सोच लीजिये क्या गति होगी?
धर्म पालन का अन्तरंग आशय से सम्बन्ध—हमारा धर्म पालन ममता के पोषण के लिए ही हो, हम दर्शन करे तो मेरा सब कुछ मौज बना रहे, इसके लिए हो, कुछ भी हम धर्म पालन करे, विधान करे, पूजन करे, यज्ञ करे, समारोह करे, कुटुम्ब परिवार की मौज के लिए करे, कोई रोग न आए, कोई उपद्रव न आये, वही धन नष्ट न हो जाय, टोटा न पड़ जाय, धन बढ़े मुकदमें मे विजय हो, इन सब आशाओं को लेकर जहाँ धर्मपालन हो रहा हो वहाँ क्या वह धर्म है? वह धर्म नहीं है। जो धर्म के नाम पर आत्मा और परमात्मा के निकट भी नहीं जाते हैं वे भी तो आज लखपति करोड़पति बने हुए है। यह धन का मिलना वर्तमान में मंदिर जाने, हाथ जोड़ने के आधीन नहीं है, यह तो पूर्व समय में जो त्यागवृत्ति की, उदारता की, दान किया, पुण्य किया, सेवाएँ की, उनका फल है जो आज पा रहे हैं। धर्म-पालन परमार्थतः यदि हो जाय तो धर्म से अवश्य ही शान्ति और संतोष मिलेगा।
संगतिविवेक—भैया ! अपने आपको जो अज्ञानरूप से मान रहा है, मैं क्रोधी हूं, मानी हूं, अमुक पोजीशन का हूँ, अमुक बिरादरी का हूँ, अमुक सम्प्रदाय का हूँ, ऐसी प्रतिष्ठा वाला हूँ, इस प्रकार इन सब रूपों में अपने आपको जो निहारता है वह अज्ञानी है। जो अज्ञानी की सेवा करेगा उसके अज्ञान ही बढ़ेगा और जो ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व की सेवा करेगा उसके ज्ञान बढ़ेगा। लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि धनी की सेवा कोई करता है तो धन मिल जायगा, विद्वान की कोई सेवा करता है तो विद्या मिल जायगी। इसी प्रकार कोई अज्ञानी गुरुओं की सेवा करता है तो उसे अज्ञान मिलेगा। अफीम, भांग, चरसफूंकने वाले साधुओं के चरणों में भी बहुत से भंगेड़ी, गंजेड़ी पड़े रहा करते हैं,और उनकी सेवा यही है कि चिलम भर लावो, फूँक लगावो, भगवान का नाम लेकर अब अफीम चढ़ावो। दूसरों को उनसे मिल क्या जाता है? क्या वहाँ किसी तत्त्व के दर्शन हो पाते है? अज्ञानियों की संगति में अज्ञान ही मिलेगा और ज्ञानी साधु संतो की सेवा में सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस कारण जो पुरूष अपना कल्याण चाहते हैं उनका यह कर्तव्य है कि जो विवेकी है, ज्ञानी है, जो सांसारिक माया से परे है, ज्ञानध्यान तप में लवलीन है, जिन्हें वस्तुस्वरूप का भला बोध है जिनमें परपदार्थों की परिणति से रागद्वेष उत्पन्न नहीं होते, जो सबको समान दृष्टि से निरखते हैं ऐसे विवेकी तप से ज्ञानी आत्माओं की उपासना करे, पूजा सत्कार, विनय करे और उनकी उपासना करके ज्ञान का लाभ ले।
ज्ञान का तात्त्विक फल—परमार्थतः तो यह आत्मा ही स्वयंशुद्ध ज्ञानस्वरूप है। इस ज्ञान की उपासना से ज्ञान का ही फल मिला करता है। जो ज्ञान अनश्वर है, सदा रहने वाला हे ऐसे ज्ञान की सेवा से फल ज्ञान का ही मिलता है। लेकिन यह मोह का बड़ा विचित्र संताप है कि मोहीजन इस ज्ञान की उपासना से भी कुछ और चीज ढूंढना चाहते हैं।ज्ञानपुंज परमात्मा की पूजा से ज्ञान का ही प्रकाश मिलेगा किन्तु यह मोही प्राणी ज्ञानपुंज भगवान की पूजा मे भी अन्य कुछ बात ढूंढ़ना चाहता है। यह मोह का संताप है। ज्ञान की उपासना से तो उत्कृष्ट अविनाशी सम्यग्ज्ञान की ही प्राप्ति होती है, इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए ज्ञानी की उपासना करे। ज्ञानी की उपासना करते हुए में भी जिसके मोह की पुट लगी रहती है वह क्या अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकेगा? हाँ विवेकी के जो ज्ञानी पुरुषों का गुणानुराग है वह गुणों का अनुराग है, मोह का अनुराग नहीं है। वह तो आदर के योग्य है, परन्तु धन वैभव की उपासना तो केवल मोहवश ही की जाती है वह अज्ञानरूप है।
ज्ञानी व अज्ञानी के संग से लाभ हानि का कारण—अज्ञानी की उपासना से संसार का संकट दूर न होगा, इसलिए ज्ञानियों की तो संगति करें और अज्ञानियों की संगति से दूर हो। कोई अज्ञानी पुरुष चमत्कार वाला भी हो, लौकिक इज्जत भी बहुत बढ़ गई हो, फिर भी अज्ञान का आश्रय लेना विपदा के लिए ही है। आज कुछ चाहे भले ही रुच रहा हो, लेकिन अज्ञानी का संग ऐसा खोटा सस्कार बना देगा कि वह अज्ञान मार्ग में लग जायगा। ज्ञानी के संग में यद्यपि ज्ञानी की और से कुछ आकर्षण नहीं रहता क्योंकि ज्ञानी निर्वाछक है, अंतस्तत्व का ज्ञाता है, भोगों से उदासीन हे, उसे क्या पड़ी है जो दूसरों को वश में करे या दूसरों का आकर्षण हो ऐसा कोई विधि रागपूर्वक करे। ज्ञानी पुरुष के प्रति जिनका आकर्षण है वे पुरुष स्वयं शुद्ध है। जो स्वयं अपवित्र होंगे वे पुरुष ज्ञानियो की संगति में कैसे पहुँचेंगे? जो स्वयं पवित्र होंगे सो ही ज्ञानी की संगति में पहुंचेंगे। अपवित्र पापी व्यसनी पुरुषों को ज्ञानी का समागम दुर्लभ है।
अज्ञानी के धर्मसमागम की अरूचिका भाव—एक बात प्रसिद्ध है कि भगवान के समवशरण में मिथ्यादृष्टि जीव नहीं पहुँचता उसका भाव यही है कि जो गृहीत मिथ्यादृष्टि है, अपने मिथ्यात्व के मद में उद्दण्ड है उनके यह भाव ही नहीं होता है कि वे प्रभु के समवशरण में पहुँचें। और यदि कदाचित् उद्दण्डता मचाने के ध्येय से समवशरण में जाते हैं तो वहाँ के द्वारपाल रक्षक देव उन्हें पीटकर निकाल देते हैं। सर्वप्रथम तो यह बात है कि उनकें यह भाव ही नहीं होता कि हम धर्मस्थानों में पहुंचे। तपस्वी ऋषि संतो की यह अनुभवपूर्ण वाणी जो ग्रन्थों में निबद्ध है उसको सुनने का पापी जीवों का भाव और अनुराग ही नहीं हो पाता क्योंकि वे पापवासना में उपयोग दे या धर्म में। जिसके पास जो है वह उसका ही स्वाद लेता है। अज्ञानी जन अज्ञान का ही स्वाद लिया करते हैं।
ज्ञान में तृप्ति—ज्ञानी जन ज्ञानामृत के पान से तृप्त रहा करते हैं क्योंकि ज्ञानी पुरुषों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करने का राग लगा है। यह अभिलाषा उनकी जग रही है। मैं ज्ञानार्जन करूँ और शुद्ध ज्ञान में रत रहूँ। ऐसी इच्छा होती है और साथ ही यह जानते हैं कि इसकी पूर्ति करके इस इच्छा का भी विनाश करूँ। इस इच्छा को वे उपादेय नहीं मानते हैं,पर चरित्र मोह का उदय है ऐसी इच्छा हुआ ही करती है। लेकिन यह इच्छा अच्छे भाव को पोषने वाली है।
कर्तव्यस्मरण—ज्ञानी अपने आत्महित की साधना में जागरूक रहता है। जो आत्महित चाहने वाले पुरुष है उनका कर्तव्य है कि ये ज्ञानी, विवेकी, अन्तरात्मा, सम्यग्दृष्टि, संसार शरीर और भोगों से विरक्त संतों की उपासना करें, खूब दृष्टि पसारकर निहार लो। जो पुरुष ठलुवोंकी गोष्ठी में रहा करते हैं वे कौनसा लाभ लूट लेते है? रात दिन की चर्या उनकी जो हो रही है उस पर ही ध्यान देकर देख लो। ये जीवन के क्षण निकल जायेंगे। जो निकल गये वे फिर वापिस तो आते नहीं। निकल गए सो निकल गए पीछे पछतावा होता है कि मेरी जिन्दगी यों ही निकल गयी। यदि मैं ज्ञानार्जन धर्मपालनमें अपना समय लगाता तो मेरा जीवन सफल था। ऐसे पछतावा का मौका ही क्यों दिया जाय? क्यों न अपना पुरुषार्थ अभी से ही धर्मपालन और ज्ञानार्जन में रखा जाए? जो शुद्ध तत्त्व है उसकी उपासना से आत्मा को लाभ होता है। जो अशुद्ध अपवित्र आत्मा है, अशुद्ध भाव है, परभाव है उनकी उपासना से आत्मा का विनाश होता है, बरबादी होती है।
परमार्थ पुरुषार्थ—भैया सब दृश्य रहना तो कुछ है ही नहीं। यदि भली प्रकार से पहले से ही अक्ल त्यागकर सर्व से विविक्त कमल की भाँति अपने आत्मा को निरखें तो इसमें गुणों का विकास होगा और कर्मबन्धन शिथिल हो जायेंगे। इसके लिए ज्ञानबल और साहस की आवश्यकता है। यह अपनी ही चर्चा है, अपनी ही बात है, अपने में ही करना है, अपने को ही लाभ है। मानो आज मनुष्य न हुए होते, जिसे हम कीड़ा मकौड़ा निरख रहे हैं ऐसी ही वृत्ति होती, क्या हुई न थी कभी। आज कीड़ा मकौड़ा ही होते तो कहाँ यह ठाठ, कहाँ ये दो चार मंजिले मकान, कहाँ ये धन वैभव पास में होते जिनमें मोह करके आज बेचैनी मानी जा रही है? इस वैभव से यह आत्मा अब भी अधूरा है, केवल अपने ज्ञान और कल्पना में बसा हुआ है। है आत्मन् सुन ! तू ऐसे सर्व विशुद्ध अपने आत्मा के स्वरूप का आश्रय ले तो वहाँ संकट नहीं रह सकता है। यो अपने ज्ञानका आश्रय ले। जो अपना स्वभाव है, स्वरूप है ऐसे ज्ञानानंद स्वरूपकी उपासना करे। मैं सबसे विविक्त ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा विश्वास बनाये तो संसारके समस्त संकट समाप्त हो सकते हैं।