इष्टोपदेश - श्लोक 5: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 18: | Line 18: | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<noinclude> | |||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 4 | पूर्व पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 4 | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
Line 24: | Line 25: | ||
[[ क्षु. मनोहर वर्णी - इष्टोपदेश प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[ क्षु. मनोहर वर्णी - इष्टोपदेश प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: इष्टोपदेश]] | [[Category: इष्टोपदेश]] | ||
[[Category: क्षु. मनोहर वर्णी]] | [[Category: क्षु. मनोहर वर्णी]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
हृषीकजमनाततङ्कं दीर्घकालोपलालितम्।
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव।।५।।
व्रत के फल में स्वर्गीय सुख—इससे पहिले श्लोक में यह बताया था कि जिस तत्त्व में दिया हुआ भाव मोक्ष को भी दे देता है तब उससे स्वर्ग कितना दूर रहा अर्थात् स्वर्ग तो बिल्कुल ही प्रसिद्ध है, ऐसी बात सुनकर कोई जिज्ञासु यह प्रश्न करता है कि उस स्वर्ग में बात है क्या? लोग स्वर्ग की बात ज्यादा पसंद करते हैं। कभी धर्म की भावना होती है तो स्वर्ग तक ही उनकी दौड़ होती है। धर्म करो स्वर्ग मिलेगा, उस स्वर्ग की बात उपसर्ग के सुख इस श्लोक में संकेत रूप के कहे जा रहे हैं। अध्यात्म में तो स्वर्गसुख हेय बताये गए है, किन्तु व्रत का आचरण करने वाले पुरुष मोक्ष न जायें तो फिर जायेंगे कहाँ, उसे भी तो बताना चाहिए। मोक्ष न जा सके, थोड़ी कसर रह गयी भावों में तो उसकी फिर क्या गति है, उसका भी बतना आवश्यक है। जो मोक्ष न जा सका, थोड़ी कसर रह जाय शुद्धि में तो सर्वार्थसिद्धि है। विजय, वैजयंत, जयंत व अपराजित ये तो सर्वार्थ सिद्धि है, अनुत्तर है, अनुदिश है, ग्रैवेयक हैं और नही तो स्वर्ग तो छुड़ाया ही किसने है?
व्रत की नियामकता—जो व्रत धारण करता है, चाहे श्रावक के भी व्रत ग्रहण करे, मुनि व्रत ग्रहण करे, व्रत ग्रहण करने के बाद देव आयु ही बँधती है दूसरी आयु नही बंधती। व्रती पुरुष मोक्ष जाय या देव में उत्पन्न हो। और व्रत ग्रहण करने के पहिले यदि अन्य आयु बंध गयी है नरक, तिर्यंच मनुष्य तो उसके व्रत ग्रहण करने का परिणाम भी नही हो सकता है। अन्य आयु के बँधने पर सम्यक्त्व तो हो सकता है पर व्रत नही हो सकता है। अणुव्रत भी और महाव्रत भी उसके नही हो सकते जिसने नरक आयु, तिर्यंच आयु या मनुष्य आयु में से कोई सी भी आयु बाँध ली है। और जिसने देव आयु बांध ली है या तो उसके व्रत होगा या जिसने कोई आयु नही बाँधी है परभाव के लिए, उसके व्रत होगा। व्रत धारण कितनी ऊंची एक कसौटी है कि जिससे यह परख हो जाय कि देव ही होगा या मोक्ष जायगा। तो ऐसी व्रत की वृत्ति हो तो उसके फल में क्या होता है, उसका वर्णन इस श्लोक में है।
स्वर्गीय सुख का निर्देशन—स्वर्गो में क्या मिलता है, कैसा सुख है? उसके लिए कह रहे हैं कि देवों का सुख इन्द्रियजन्य है। ऐसा कहने में कुछ विशेषता नही जाहिर हुई, कुछ बड़प्पन सा नही आ पाया, इन्द्रियजन्य है, लेकिन जो इन्द्रियजन्य सुख के लोभी है उनको कुछ खटकनेवाली बात भी नही होती है। देवों का सुख आतंकरहित है। बाधा, आपदा, वेदना ये सब नही है, उन देवों को न भूख की बाधा होती है, न प्यास की बाधा होती है। हजारों वर्षों में जब कभी भूख लगती है तो कंठ से अमृत झर जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती है। अमृत क्या चीज है, जैसे अपन लोग अपने मुँह का थूक गटक लेते हैं,इससे कुछ बढ़कर है, मगर जाति ऐसी ही होगी, हमारा ऐसा ध्यान है। जब कभी अपन बडे़ सुख से यहाँ वहाँ की चिंता नही है। ध्यान भी बड़ा अच्छा जग गया हो ऐसी विशुद्ध स्थिति में कभी मुंह बंद हुए में एक गुटका आ जाता है तो बड़ी शान्ति और संतोष को व्यक्त करता है। और क्या होगा जो उनके कंठ में से झरता है। उन्हें प्यास की भी वेदना नही, ठंड गर्मी की वेदना नही। जो इस औदारिक शरीर में रोग होता है, वेदना होती है यह कुछ भी देवों के शरीर में नही है।
स्वर्गसुख से आत्मबाधा—भैया! स्वर्गसुख का यह विश्लेषण सुनकर तो कुछ अच्छा लग रहा होगा पहिले विश्लेषण की अपेक्षा, लेकिन एक कानून और बताता दें, जहाँ क्षुधा, तृषा, ठंड, गर्मी की वेदना न हो वहाँ मुक्ति असम्भव है। जहाँ ये वेदनाएँ चलती है उस मनुष्य पर्याय से मुक्ति सम्भव है। इससे भी क्या कारण है? जहाँ इन्द्रियजन्य सुख की प्रचुरता है वहाँ वैराग्य की प्रचुरता नही होती है। जैसे यहाँ हम मनुष्यों में भी देखते हैं ना, जो बड़े आराम में है, समृद्धि में है, वैभव में है ऐसे पुरुषों के वैराग्य की वृत्ति कम जगती है। वह नियम यहाँ तो नही है क्योंकि मनुष्य जाति का मन विशिष्ट ही प्रकार का है। वह सुख भोगते हुए में भी विरक्त रह सकता है, उसे परित्याग करके आत्ममग्न हो सकता है। ये देव दुःखी भी नही है और उनके सुख का जो साधन है उसका परित्याग करने में समर्थ भी नही है।
स्वर्ग सुखमें लौकिक विशेषता—स्वर्ग के देवो के एक आफत यह भी लगी है कि जो बहुत छोटे देव है, उन देवो के, उनकी अपेक्षा में जो पापी देव है मान लो तो, उनके भी कम से कम ३२ देवांगनाएँ होती है। यहाँ तो एक स्त्री का दिल राजी रखने में बड़ी हैरानी पड़ती है, साड़ी, साड़ी ही खरीदने में पूरी समस्या नही सुलझ पाती है। वहाँ ३२ देवांगनावों का मन रखने के लिए कितनी तकलीफ उठाने की बात है? यहाँ तो स्त्री मनुष्य ही है ना, सो वे संतोष कर सकती है पर उन देवांगनावों के कहाँ संतोष की बात है? जब बहुत छोटे देवों का यह हाल है तो जो बडे़ देव है, इन्द्रादिक है उनके तो हजारों का नम्बर है। एक बात और है कि जहाँ एक देवी मरी उसी समय उसी स्थान पर कुछ समय बाद दूसरी देवी उत्पन्न होती है और वह अन्तर्मुहूर्त में ही पूर्ण जवान हो जाती है। देवोंमें ऐसा नियम है। तो छुटकारा होने में बड़ी कठिनाई है, लेकिन यहाँ सुख की बात बता रहे हैं कि उनके ऐसा सुख है। स्वर्ग सुखों में एक विशेषता यह भी है कि सागरों पर्यन्त, करोड़ों वर्षों पर्यन्त, दीर्घ काल तक वे सुख भोग करते हैं। वे कभी बूढ़े होते नही, सदा जवान ही रहते हैं। इन्द्रिय विषयों का सुख सदा उन देवो के प्रबल रहता है और वे सागरों पर्यन्त ऐसा ही सुख पाते हैं। देवों का सुख साधारणजनों के लिए उपादेय बन जाता है किन्तु जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है, जो शुद्ध आनन्द का अनुभवन कर चुके हैं उनमें विषयों की प्रीति नही हो सकती है।
देवों के सुख की उपमा—उन देवों का सुख किस तरह का है कुछ नाम बतावो। कोई मनुष्य उस तरह का सुखी हो तो उसका नाम लेकर बतावो। है नही ना कोई? तो यह कहना चाहिए कि देवों का सुख देवों की ही तरह है। जैसे साहित्य में एक जगह कहते हैं। कि राम रावण का युद्ध कैसा हुआ, कुछ दृष्टान्त बतावो। तो बताया है कि राम रावण का युद्ध राम रावण की ही तरह हुआ हे। अभी किसी मनुष्य की तारीफ करना हो और थोड़े शब्दों में कहना हो और बहुत बात कहना हो तो यह ही कह देते हैं कि यह साहब तो यह ही है, बस हो गयी तारीफ। इससे बढ़कर और क्या शब्द हो सकते है? इस प्रकार देवों के सुख की बात यहाँ बता रहे हैं कि स्वर्गों में देवों का सुख स्वर्गों में देवों की ही तरह है। उसकी उपमा यहां अन्य गतियों में नही मिल सकती है। यहां यह बताया जा रहा है कि व्रत पालन करने वाले पुरुष परभव में कैसा सुख भोगा करते हैं।
इस काल के पुराण पुरुषों की परिस्थिति—भैया! न दो स्वर्ग सुखों में दृष्टि, व्रत धारण करो तो यह मिलेगा। इस पंचमकाल में जो मुनीश्वर हो चुके है—अकलंकदेव, समंतभद्र, कुन्दकुन्द आदि अनेक जो आचार्य हुए है वे बड़े विरक्त थे, तपस्वी थे और ज्ञान की तो प्रशंसा ही कौन करे? हम लोग जब उनके रचित ग्रन्थों के हृदय में प्रवेश करे तो अनुमान कर सकते हैं,अन्यथा जैसे कहते हैं कि ऊंट अपने को तब तक बड़ा मानता है जब तक पहाड़ के नीचे न पहुंचे, ऐसे ही हम लोग अपने को तब तक ही चतुर समझते हैं और उत्कृष्ट वक्ता तब तक जानते हैं जब तक इन आचार्यों की जो रचनाएं है उन रचनाओं में प्रवेश न पाया जाय। ऐसे ज्ञानवान, चारित्रवान्, तपस्वी साधुजन बतावो अच्छा कहां होगे इस समय? गुजर तो गये हैं ना, अब तो यहां है नही वे गुरूजन, तो इस समय वे कहां होगे कुछ अंदाजा बतावो, यही अंदाज बतावोगे कि स्वर्ग में होगे। और स्वर्ग में क्या कर रहे होगे, मंडप भरा होगा, देवांगनाएँ नृत्य कर रही होगी और ये कुन्दकुन्द, समन्त भद्र आदि के जीव बने हुए देव सिर भी मटका रहे होंगे। क्या करे, व्रत धारण करने पर या तो मोक्ष होगा या स्वर्ग मिलेगा, तीसरी बात नही होती। कोई पूर्वकाल में स्वर्ग से ऊपर भी उत्पन्न हो लेते थे। हां एक बात है कि भले ही ये आचार्य वहां देव बनकर रह रहे हैं,पर वहाँ भी वे सम्यग्दृष्टि होगे तो उनमें आशक्ति न हो रही होगी, पर होंगे वहां।
सम्यक्त्व सहित मरण की नियामकता—कर्म भूमि का मनुष्य मरकर, कर्मभूमि का मनुष्य बने तो उसके मरण समय में सम्यक्त्व नही रहता है। मरण समय में जिस मनुष्य के सम्यक्त्व है, उस सम्यक्त्व में मरेगा तो वहाँ सम्यग्दर्शन के रहते हुए मरण होगा तो देव ही होगा, हाँ एक क्षायिक सम्यक्त्व अवश्य ऐसा है कि उससे पहिले नरक आयु बाँध ली हो, तिर्यञ्च आयु बाँध ली हो या मनुष्य आयु बाँध ली हो, और फिर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर लिया तो नारक, तिर्यंच, मनुष्य गति में जाना पड़ेगा, लेकिन नरक में जायगा तो पहिले नरक में, तिर्यंच में जायगा तो भोगभूमिया में और मनुष्य में जायगा तो भोगभूमियों में। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमिया, तिर्यंच व मनुष्य भोग भूमिया में भी इन्द्रियजन्य सुख बहुत है।
दृष्टियोग का विशेष संकट—यहाँ सबसे बड़ा कष्ट एक यह भी है कि पुरुष स्त्री है अब उनमें काई मरेगा जरूर पहिले, मरेंगे सभी हम आप, जो भी जन्मे हैं सबका मरण होगा, पर एक प्रसंग की बात यह देखो कि पति पत्नी में आधारभूत प्रेम है, किन्तु उनमें से एक कोई पहिले तो मरेगा ही ना? अब कल्पना करो कि पति पहिले मरता तो पत्नी कितना बिलखती और पत्नी पहिले मरती तो पति कितना बिलखता, अर्थात् पति भी अपने को शून्य समझता। अब और क्या गति होगी सो बतावो? ऐसा यहाँ बहुत कठिनाई से हो पाता है कि पति पत्नी दोनों संग ही गुजरें, पर भोगभूमिया में ऐसा ही होता हे, पति पत्नी दोनों एक साथ मरते हैं। अब कुछ अंदाज हो गया ना कि यह लौकिक सुखों की बात है कि दोनों मरें तो एक साथ मरे।
मरण में हानि किसकी?—भैया ! एक बात और विचारो कि किसी के मरने पर ज्यादा नुकसान मरने वाले का होता है कि जो जिन्दा रहने वाले हैं उनका होता है? इस पर जरा कुछ तर्कणा कीजिए। परिवार का कोई एक गुजर गया और परिवार के दो चार लोग अभी जिन्दा है तो यह बताओ कि मरने वाला टोटे में रहा कि जिन्दा रहने वाले टोटे में रहे? टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे क्योंकि मरने वाला तो दूसरे भव में गया, अच्छा, नया, रंगा, चंगा, शरीर पाया और जो बचे हुए लोग है अथवा नाते रिश्तेदार जन है वे रोते हैं,बिलखते हैं। तो टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे। भोगभूमि में पति पत्नी दोनों का एक साथ मरण होता है।
भोगभूमिज सुख—भोगभूमि में यह भी एक सुख की बात है। वहाँ किसी को ३ दिन में और किसी को एक दिन में भूख प्यास की वेदना रहती है। वह भी भोजन कितना करते? कोई आंवले बराबर, कोई बहेड़ा बराबर, कोई बेर बराबर। हाँ खाये हुए का सबका रस बनता है ऐसी भी सुख की बात है। तो भोगभूमि में भी ऐसा इन्द्रियजन्य सुख रहता है सम्यक्त्व सहित मरण में यदि मनुष्य होना पड़े तो ऐसे भोगभूमिज होते हैं।
व्रत परिणाम के परिणाम का प्रतिपादन—व्रती पुरुष मरने के बाद स्वर्ग के सुख भोगते हैं,व्रत धारण करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन कोई पुरुष उस कहानी को सुनकर सोचे कि मैं व्रत ग्रहण कर लूँ, इससे स्वर्ग के सुख मिलते हैं,तो ऐसे स्वर्ग का सुख नही मिलता है क्योंकि उसके अंतरंग में ममता बसी हुई है। वह अपने आत्मकल्याण के लिए व्रत नही ले रहा है, वह तो स्वर्ग सुख पाने की धुन बनाये हुए है सो व्रत ले रहा है। वह व्रत नही है। जो ज्ञानी संत वैराग्य के कारण व्रत ग्रहण करते हैं,जिनके सहज वैराग्य बनता है, ऐसे पुरुषों की कहानी है कि वे तो मोक्ष मेंजायेंगे या स्वर्ग में जायेंगे। स्वर्ग में कैसा सुख है, उसकी बात इस श्लोक में चल रही है।
व्रतजनित पुण्य का फल—सुख तो एक आत्मा का गुण है। जब रागादिक होते हैं तो सुख की दशा बदल जाती है या तो हर्ष रूप संकटो का परिणमन होगा या दुःखरूप परिणमन होगा। जब तक यह आत्मा सांसरिक सुख और परतंत्रता का अनुभव करता है तब तक उसे बाधारहित आत्मीय आनन्द नही प्राप्त हो सकता है। हाँ कभी सातावेदनीय के उदय में कुछ इन्द्रिय सुख की प्राप्ति हुई, सातारूप परिणमन हुआ, अर्थात् कुछ दुःख कम हो गया तो उस दुःख के कम होने का नाम संसारी जीवों ने सुख रख लिया है। व्रत आदि करने से जो कषाय मंद होता है और मंद कषाय होने से पुण्य का संचय होता है तो उससे स्वर्ग आदि के सुख बहुत काल तक भोगने में आते हैं,लेकिन वास्तविक जो आनन्द है अनाकुलता का वह तो आत्मदृष्टि में ही है।
सांसारिक सुख की उलझन—ये सांसारिक सुख तो उलझन है, वे देव सुख में मस्त रहते हैं तो वे मरकर एकेन्द्रिय भी बन सकते हैं। उनमें नियम है कि दूसरे स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय बन सकते हैं,उससे ऊपर १२ वे स्वर्ग तक के देव पशु पक्षी आदि तिर्यञ्च बन सकते हैं,उससे ऊपर के देव मनुष्य ही बन सकते हैं। देखो देवगति के देव कोई पेड़ तक बन जाते हैं,मरने के बाद ऐसी उनकी दुर्गति हो सकती है, और इतना तो समझना ही है कि वे मरकर नीचे ही गिरेंगे। आगम में देवों के मरने का नाम च्युत होना कहा गया है। देव च्युत होते हैं अर्थात् नीचे गिरते हैं और नारकी मरकर ऊपर आते हैं। उन देवों में ऐसा हृषीकज, अनातङ्क व दीर्घकालोपलालित सुख है, पर वास्तविक आनन्द नही है।
वास्तविक आनन्द—जो वास्तविक आनन्द है उसमें इन्द्रिय की आधीनता नहीं है, समय की सीमा नही है, क्षण भंगुर नही है, न किसी के प्रति चिंता है। इस आनन्द के जानने वाले पुरुष भी स्वर्ग के सुख को हेय मानते हैं और स्वानन्द के आनन्द को उपादेय मानते हैं। देवों का सुख देवों की ही तरह है, ऐसा कहने में ज्ञानियों को समाधान मिलेगा ओैर अज्ञानियों को भी समाधान मिलेगा। अज्ञानी तो उन शब्दों में सुख का बड़प्पन समझ लेंगे और ज्ञानी उन्ही शब्दों में सुख को हेय समझ लेंगे। खैर, कैसा ही सुख ही, व्रत धारण के फल में स्वर्ग आदि के सुख मिलते हैं,इस बात का इस श्लोक में वर्णन है।