इष्टोपदेश - श्लोक 6: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा हद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापादि।।६।।
सुख की क्षुब्ध रूपता के वर्णन का संकल्प—इससे पहिले श्लोक में देवों का सुख बताया गया था। उस सुख के सम्बंध मं अब यहाँ यह कह रहे हैं कि यह सुख संसारी जीवों का जो इन्द्रिय जनित सुख है वह सुख केवल वासना मात्र से ही सुख मालूम होता है किन्तु वास्तव में यह सुख दुःखरूप ही है। भ्रम से जीव इसको आनन्द समझते हैं। ये भोग जिनको कि सुख माना है वे चित्त में उद्वेग उत्पन्न करते हैं। कोई भी सुख ऐसा नही है जो सुख शान्ति से भोगा जाता हो। खुद भी इसका अनुभव कर लो। ये संसार के सुख क्षोभ पूर्वक ही भोगे जाते हैं। भोगने से पहिले क्षोभ, भोगते समय क्षोभ और भोगने के बाद भी क्षोभ। केवल कल्पना से मोही जीव सुख समझते हैं। आत्मा में एक आनन्द नाम का गुण है जिसके कारण यह आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप कहलाता है। उस आनन्द शक्ति के तीन परिणमन है—सुख, दुःख और आनन्द। सुख वह कहलाता है जो इन्द्रियों को सुहावना लगे, दुःख वह कहलाता जो इन्द्रियों को असुहावना लगे और आनन्द उसका नाम है जिस भाव में आत्मा में सर्व ओर से समृद्धि उत्पन्न हो।
सुख और आनन्द में अन्तर—यद्यपि सुख, दुःख और आनन्द, ये आनन्द गुण के परिणमन है, तथापि इन तीनोंमें आनन्द तो है शुद्ध तत्त्व, सुख और दुःख ये दोनों है अशुद्ध तत्त्व। यह इन्द्रिय जन्य सुख आत्मीय आनन्द की होड़ नही कर सकता है। स्वानुभव में जो आनन्द उत्पन्न होता है अथवा प्रभु के जो आनन्द है उस आनन्द की होड़ तीन लोक तीन काल के समस्त संसारी जीवों का सारा सुख भी जोड़ लीजिए तो भी वह समस्त सुख भी उस आनन्द को नही पा सकता है। यह सांसारिक सुख आकुलता सहित है और शुद्ध आनन्द अनाकुलतारूप है। सांसारिक सुख में इन्द्रिय की आधीनता है। इन्द्रियां भली प्रकार है तो सुख है और इन्द्रियों में कोई फर्क आया, बिगाड़ हुआ तो सुख नही रहा, किन्तु आत्मीय आनन्द में इन्द्रिय की आवश्यकता ही नही है। हृषीकज सुख पराधीन है, नाना प्रकार के विषयो के साधन जुटें तो यह सुख मिलता है, परन्तु आत्मीय आनन्द पराधीन नही है, अत्यन्त स्वाधीन है। समस्त परपदार्थों का विकल्प न रहे, केवल स्वात्मा ही दृष्टि में रहे तो उससे यह आनन्द उत्पन्न होता है। इस इन्द्रियज सुख में दुःख का सम्मिश्रण है किन्तु आत्मीय आनन्द में दुःख की पहुँच भी नही। संसार का कोई भी सुख ऐसा नही है जिसमें दुःख न मिला हुआ है। धनी होने में सुख है। तो उसे भी कितने ही दुःख है। संतानवान होने का सुख है तो उस प्रसंग में भी कितने ही दुःख भोगने पड़ते हैं। संसार को कोई भी सुख दुःख के मिश्रण बिना नही है। सांसारिक सुख इस आनन्द के अंश भी नही प्राप्त कर सकता है।
वासनामात्र कल्पित सुख में बाधा और विषमता—भैया! सुख और दुःख की कल्पना उस ही पुरुष के होती है जिसमें ऐसी वासना बनी हुई है कि यह पदार्थ मेरा उपकारी है इसलिए इष्ट है और यह पदार्थ मेरा अनुपकारी है इसलिए अनिष्ट है। ऐसा जब भ्रम उत्पन्न होता है तो उस भ्रम में आत्मा में जो भी संस्कार बन जाता है उसका नाम वासना है। संसारी जीव इन्हीं वासनावों के कारण इन्द्रियसुख में वास्तविक सुख की कल्पना कर लेते हैं। यह भोगो से उत्पन्न हुआ सुख अनेक बाधावों से भरा हुआ है, पर आत्मा के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द बाधावों से रहित है। यह इन्द्रिय जन्य सुख विषम है। कभी सुख बढ़ गया, कभी सुख घट गया, कभी सुख न रहा ऐसी इन भोगों के सुख में विषमता है, परंतु स्व के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द विषम नही है, वह एक स्वरूप है और समान है। सुख और दुःख में महान् अन्तर है। इस इन्द्रिय जनित सुख में मोहीजन भ्रम से वास्तविक सुख की कल्पना करते हैं।
सांसारिक सुखों की उद्वेगरूपता—यह हृषीकज सुख उद्वेग ही करता है। जैसे ज्वर आदि रोग चित्त को दुःखी कर देते हैं। ऐसे ही ये भोग भी चित्त को दुःखी कर देते हैं। मोही जन दुःखी हो जाते हैं और दुःख नही समझते हैं। जैसे चरचरी मिर्च खाने में सुख नही होता है, दुःख होता है, पर जिसे चटपटी मिर्च से मोह है वह दुःखी भी हो जाता है और मिर्च भी मांगता जाता है, और लावो मिर्च। किस तरह का उनके मिर्च का भाव लगा है? क्या करण है कि उस मिर्च से सी-सी करते जाते, आंसू भी गिरते जाते, कौर भी मुश्किल से गुटका जाता, फिर भी मांगते हैं कि लाल मिर्च और चाहिए। ऐसे ही भोग के दुःख होते हैं,इन भोगो से कुछ भी आनन्द नही मिलता है, लेकिन मोहवश भोगो में ही यह आनन्द मानता है और उन्ही भोग के साधनों को जुटाने में श्रम करता है।
परमतत्त्व के लाभ बिना कोरी दरिद्रता—जो मनुष्य भूख प्यास से पीड़ित है उन्हें सुन्दर महल या संगीत साज या कुछ भी चीज उनके सामने रख दो तो उन्हें रमणीक नही मालूम होती है। किसी को भूख लगी हो उसका स्वागत खूब किया जाय और खाने को न पूछा जाये तो क्या उसे वे स्वागत के साधन रमणीक लगते है? नही रमणीक लगते हैं। जीव के जितने आरम्भ है वे सब आरम्भ तब सुन्दर लगते हैं जब खाने पीने का अच्छा साधन हो। कोई लोग ऐसे भी है कि घर में तो खाने-पीने का कलका भी साधन नही है और अपनी चटकमटक नेकटाई और बड़ी सज धज, शान की बातें मारते, तो जैसे इस तरह के लोग कोरे पोले हैं,उनमें ठोस बात कुछ नही है। ऐसे ही समझिये कि जिस पुरुष में ज्ञान विवेक नही है, जिस तत्त्व की दृष्टि से आनन्द प्रकट होता है उस तत्त्व की जरा भी खबर नही है और वे भोग के साधन, भारी चेष्टाएँ आदि करे तो वे अपने में पोले हैं,उन्हें शान्ति संतोष नही प्राप्त हो सकता।
सांसारिक सुखों की वासनामात्र रम्यता—यह सारा इन्द्रियसुख केवल वासनामात्र रम्य है, उस और मोह लगा है इसलिए सुखद मालूम होता है। जो पक्षी बड़ी गर्मी में अपनी स्त्री के साथ याने (पक्षिणी के साथ) भोगों में उलझ जाता है उसे धूप का कष्ट नही मालूम होता है। जब रात्रि को उस पक्षी का वियोग हो जाता है जैसे एक चकवा चकवी होते हैं उनके रात का वियोग हो जाता है, क्या कारण है, कैसी उनकी बुद्धि हो जाती है कि वे विमुख हो जाते है? तब उन पक्षियों को चन्द्रमा की शीतल किरणें भी अच्छी नही लगती। जब उनका मन रम रहा है, वासना में उलझे है तब धूप भी कष्टदायी नही मालूम होती और जब उनका वियोग हो जाय तो उस समय चन्द्रमा की शीतल किरणे भी अच्छी नही लगती। पक्षियों की क्या बात कहे—खुद की ही बात देख लो—जिसे धन संचय प्रिय है वह पुरुष धन संचय का कोई प्रसंग हो, धन आने की उम्मीद हो, कुछ आ रहा तो ऐसे समय में वह भूखा प्यासा भी रह सकेगा, धूप का भी कष्ट उठा सकेगा और भी दुःख सहन कर लेगा। और यदि कोई बड़ा नुक्सान हो जाय, टोटा पड़ जाये तो ऐसे समय में उसे बढ़िया भोजन खिलावो, और भी उसका मन बहलाने की सारी बातें करो तो भी वे सारी बातें नीरस लगती है। उनमें चित नही रमता है। तो अब बतलावो सुख क्या है? केवल वासना वश यह जीव अपने को सुखी मानता है।
परसमागम में कल्पित सुख की भी अनियतता—इस इंद्रियजन्य सुख में वासनाएँ बनाना, सुख की कल्पनाएँ बनाना बिल्कुल व्यर्थ है। वह महाभाग धन्य है जिसकी धुन आत्मीय आनंद को प्राप्त करने की हुई है। संसार के समागत समस्त पदार्थों को जो हेय मानता है, उनमें उपयोग नही फंसाता है वह महाभाग धन्य है। संसार में तो मोही, भोगी, रोगी लोग ही बहुत पडे़ हुए है। वे इन ही असार सुखों को सुख समझते हैं। क्या सुख है? गर्मी के दिनों में पतले कपड़े बहुत सुखदाई मालूम होते हैं,वे ही महीन कपड़े जाड़े के दिनों में क्या सुखकारी मालूम होते है? सुख किस में रहा? फिर बतलावो जो जाड़े के दिनों मे मोटे कपड़े सुहावने लगते हैं,वे कपड़े क्या गर्मी के दिनों में सुखकर मालूम होते है? सुख किसमें है सो बतलावो। जिनमें कषाय मिला हुआ है, मन मिला हुआ है ऐसे मित्र अभी सुखदाई मालूम होते हैं,किसी कारण से मन न मिले, दिल बिगड़ जाय तो उनका मुख भी नही देखना चाहते हैं।
सुख के नियत विषय का अभाव—भैया ! सुख का नियत विषय क्या है? किसको मानते हो कि यह सुख है। जो मिष्ट पदार्थ लड्डू वगैरह भूख में सुहावने लग रहे हैं,पेट भरने पर क्या वे कुछ भी सुहावने लगते है? कौन से पदार्थ का समागम ऐसा है जिससे हम नियम बना सकें कि यह सुखदायी है? मनुष्यो को नीम कड़वी लगती है, पर ऊँट का तो वही भोजन है। ऊँट को नीम बड़ी अच्छी लगती है। कहाँ सुख मानते हो? गृहस्थो को गृहस्थावस्थामें सुख मालूम होता है, पर ज्ञान और वैराग्य जग जाय तो उसे ये सब अनिष्ट और दुःखकारी मालूम होते हैं। कौनसी चीज ऐसी है जिसमें नियमरूप से सुख की मान्यता ला सके? ये सांसारिक भोग उपभोग, सांसारिक सुख सुखरूप से बन रहे थे, वे ही सब कुछ थोडे समय बाद दुःखरूप में परिणत हो जाते हैं। बहुतसी ऐसी घटनाएँ होती है। कि शादी विवाह हुआ, दो चार साल तक बडे़ आराम से रहे, मानो एक के बिना दूसरा जिन्दा नही रह सकता, कुछ साल गुजर जाते हैं तो लड़ाई होने लगती है, आमना सामना नही होता है, मानोतलाक सी दे देते हैं। तो कौन सी ऐसी स्थिति है जिसमें यह नियम बन सके कि यह सुखदायी स्थिति है? सब केवल वासनामात्र से सुखरूप मालूम होता है।
सुख का दुःखरूप में परिणमन—यह सुख थोडे ही समय बाद दुःखरूप परिणत हो जाता है। मान लो पति पत्नी ५०-६०-७० वर्ष तक एक साथ रहे, खूब आनन्द से समय गुजरा, पर वह समय तो आयगा ही कि या तो पति पहिले गुजरे या पत्नी पहिले गुजरे। उस ही समय वह सोचता है कि सारी जिन्दगी में जितना सुख भोगा है उतना दुःख एक दिन में मिल गया । ये सभी सुख कुछ ही समय बाद दुःखरूप मालूम होते हैं। भोजन करना बड़ा सुखदायी मालूम होता है, करते जावो डटकर भोजन तो फिर वही दुःख का कारण बन जाता है। रोग पैदा हो जाता है पेट दर्द करता है, विह्वलता बनी रहती है। संसार में भी सुख के भोगने का हिसाब सबके एकसा ही बैठ जाता है। जैसे खाने को हिसाब सबका एकसा बैठ जाता है। चाहे चार दिन खूब डटकर बढ़िया मिष्ट भोजन करलो और फिर १० दिन केवल मूंग की ही दाल खाने को मिलेगी। तो अब हिसाब में १४ दिन का एवरेज लगा लो और कोई आदमी १४ दिन रोज सात्विक भोजन करे और साधारण अल्प भोजन करे तो वह भी एवरेज एकसा ही बैठ गया। इन भोगविषयों को कोई बहुत भोग-भोगले तो अंत में दुर्गति होती है और कोई मनुष्य इन भोगो को विवेकपूर्वकथोड़ा ही भोगता है।
वास्तविक आनन्द के लाभ का उपाय—इन भोगों में वास्तविक सुख नही है। वास्तविक आनन्द तो निराकुल परिणति में है। वह कैसे मिले? अपना स्वरूप ही निराकुल है ऐसे भान बिना निराकुलता प्राप्त नही हो सकती। अपने आपको तो गरीब समझ रहा है यह जीव और निराकुलता की आशा करे तो कैसे हो सकता है? उसे कुछ पता ही नही है कि ये जगत के बाह्य पदार्थ है, ये जैसे परिणमते हों परिणमें, उनसे मेरा कोई बिगाड़ नही है यह मैं तो स्वभाव से शुद्ध सच्चिदानन्दरूप हूं। ऐसे निज निराकुल स्वरूप का भान हो तो इस ही स्वरूप का आलम्बन करके यह निराकुलता प्राप्त कर सकता है। और यह निराकुल पद मिले तो फिर उस ही स्वरूप में स्थित रहता है। उस पद में न बुढापा है, न मरण है, न इष्ट का वियोग है, न अनिष्ट का संयोग है, न ज्वर आदिक कोई रोग है, सब संकटो का वहाँ विनाश है।
करणीय आशा—भैया ! ऐसे सुख की क्या लालसा करें जिस सुख में सुख का भरोसा ही नही है। थोड़ा सुख मिला, फिर दुःख आ गया, और इस ही सुख के पीछे दुःख आता रहता है, तो ऐसे सुख की क्यों आशा करे, तो उस आनन्द की आशा करें जिसके प्रकट होने पर फिर कभी संकट नही आता है। वह सुख कर्मों के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें किसी भी प्रकार की बाधा नही न उसमें कोई दुःख का संदेह है, ऐसा जो आत्मीय आनन्द है उसका किसी समय तो अनुभव कर लो। घर मे, दुकान में, मन्दिर में किसी जगह हो किसी क्षण सर्व से भिन्न अपने को निरखकर अपने आपको निर्विकल्प अनुभव का कुछ स्वाद तो ले लो। इस अनुभव का स्वाद आने पर यह जीव कृतार्थ हो जायगा, इसे फिर आपत्ति न रहेगी। आपत्ति तो मोह में थी। अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो आपत्ति मान ली। अब जब कि तत्त्व विज्ञान हो गया है तो उसमें यह साहस है कि अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो बला से, वह उस ही पदार्थ का तो परिणमन है। मैं तो सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा स्वभावतः कृतार्थ हूं मुझको परपदार्थ में करने योग्य काम कुछ भी नही है। यह परमें कुछ कर भी नही सकता है, ऐसा तत्त्वज्ञान हो जाने पर, आत्मीय रस का अनुभव हो जाने पर फिर इसे कहाँ संकट रहा? संकट तो केवल अपनी भ्रमभरी कल्पना में है।
सांसारिक सुख में आस्था की अकरणीयता—इस श्लोक से पहिले श्लोक में व्रतों का फल बताने के लिए देवो के सुख की प्रशंसा की गयी थी, लेकिन प्रयोजन प्रदर्शन वश भी की गई झूठी प्रशंसा कब तक टिक सकती है? इसके बाद के श्लोक में यह कहना ही पड़ा कि वह सारा सुख केवल वासनाभरका है, वास्तव में वह चित्त को उद्वेग ही करने वाला है। ऐसे सुख मे आस्था न रखकर एक सच्चिदानन्दस्वरूप निज आत्मतत्त्व में उपयोग को लगाना ही श्रेयस्कर है।