दर्शनपाहुड गाथा 22: Difference between revisions
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*जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।२२।।<br> | <p class="PrakritGatha"> | ||
यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य चश्रद्धानम् । केवलिजिनै: भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ।।२२।।<br> | *जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं ।<br> | ||
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।२२।।<br> | |||
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<p class="SanskritGatha"> | |||
यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य चश्रद्धानम् ।<br> | |||
केवलिजिनै: भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ।।२२।।<br> | |||
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<p class="HindiGatha"> | |||
जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें ।<br> | |||
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ।।२२।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ नहीं हो उसका श्रद्धान करे, क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।<br> | <p><b> अर्थ - </b> जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ नहीं हो उसका श्रद्धान करे, क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।<br> | ||
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<p><b> भावार्थ -</b> यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने के बाद में तो सब परद्रव्य-संसार को हेय जानते हैं । जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्र का पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है, जिसने सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जबतक (चारित्र में प्रबल दोष है तबतक) चारित्र-मोहकर्म का उदय प्रबल होता है (और) तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती । जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेष का श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करने को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।<br> | <p><b> भावार्थ -</b> यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने के बाद में तो सब परद्रव्य-संसार को हेय जानते हैं । जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्र का पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है, जिसने सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जबतक (चारित्र में प्रबल दोष है तबतक) चारित्र-मोहकर्म का उदय प्रबल होता है (और) तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती । जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेष का श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करने को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।<br> | ||
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Latest revision as of 04:57, 8 December 2008
अब कहते हैं कि जो श्रद्धान करता है, उसी के सम्यक्त्व होता है -
- जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं ।
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।२२।।
यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य चश्रद्धानम् ।
केवलिजिनै: भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ।।२२।।
जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें ।
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ।।२२।।
अर्थ - जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ नहीं हो उसका श्रद्धान करे, क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।
भावार्थ - यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने के बाद में तो सब परद्रव्य-संसार को हेय जानते हैं । जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्र का पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है, जिसने सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जबतक (चारित्र में प्रबल दोष है तबतक) चारित्र-मोहकर्म का उदय प्रबल होता है (और) तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती । जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेष का श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करने को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।