भावपाहुड गाथा 95: Difference between revisions
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आगे फिर भाव शुद्ध रखने को ज्ञान का अभ्यास करते हैं -
सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाइं सत्त तच्चाइं ।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं ।।९७।।
सर्वं विरत: अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्त्वानि ।
जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ।।९७।।
है सर्वविरती तथापि तत्त्वार्थ की भा भावना ।
गुणथान जीवसमास की भी तू सदा भा भावना ।।९७।।
अर्थ - हे मुने ! तू सब परिग्रहादिक से विरक्त हो गया है, महाव्रत सहित है तो भी भाव विशुद्धि के लिए नव पदार्थ, सप्त तत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान, इनके नाम लक्षण भेद इत्यादिकों की भावना कर ।
भावार्थ - पदार्थो के स्वरूप का चिन्तन करना भावशुद्धि का बड़ा उपाय है इसलिए यह उपदेश है । इनका नाम स्वरूप अन्य ग्रंथों से जानना ।।९७।।