भावपाहुड गाथा 45: Difference between revisions
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मधुपिंगो नाम मुनि: देहाहारादित्यक्तव्यापार: ।<br> | |||
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तज भोजनादि प्रवृत्तियाँ मुनिपिंगला रे भावविन ।<br> | |||
अरे मात्र निदान से पाया नहीं श्रमणत्व को ।।४५।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> मधुपिंगल नाम का मुनि कैसा हुआ ? देह आहारादि में व्यापार छोड़कर भी निदानमात्र से भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं हुआ उसको भव्यजीवों से नमने योग्य मुनि तू देख । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> मधुपिंगल नाम के मुनि की कथा पुराण में है, उसका संक्षेप ऐसे है - इस भरतक्षेत्र के सुरम्यदेश में पोदनापुर का राजा तृणपिंगल का पुत्र मधुपिंगल था । वह चारणयुगलनगर के राजा सुयोधन की पुत्री सुलसा के स्वयंवर में आया था । वहीं साकेतापुरी राजा सगर आया था । सगर के मंत्री ने मधु पिंगल को कपट से नया सामुद्रिक शास्त्र बनाकर दोषी बताया कि इसके नेत्र पिंगल हैं (माँजरा है) जो कन्या इसको वरे सो मरण को प्राप्त हो । तब कन्या ने सगर के गले में वरमाला पहिना दी । मधुपिंगल का वरण नहीं किया, तब मधुपिंगल ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली । फिर कारण पाकर सगर के मंत्री के कपट को जानकर क्रोध से निदान किया कि मेरे तप का फल यह हो ``अगले जन्म में सगर के कुल को निर्मूल करूँ'' उसके पीछे मधुपिंगल मरकर महाकालासुर नाम का असुर देव हुआ तब सगर को मंत्री सहित मारने का उपाय सोचने लगा । इसको क्षीरकदम्ब ब्राह्मण का पुत्र पापी पर्वत मिला, तब उसको पशुओं की हिंसारूप यज्ञ का सहायक बन ऐसा कहा । सगर राजा को यज्ञ का उपदेश करके यज्ञ करा, तेरे यज्ञ का मैं सहायक बनूँगा । तब पर्वत ने सगर से यज्ञ कराया, पशु होे । उस पाप से सगर सातवें नरक गया और कालासुर सहायक बना सो यज्ञ करनेवालों को स्वर्ग जाते दिखाये । ऐसे मधुपिंगल नामक मुनि ने निदान से महाकालासुर बनकर महापाप कमाया, इसलिए आचार्य कहते हैं कि मुनि बन जाने पर भी भाव बिगड़ जावे तो सिद्धि को नहीं पाता है । इसकी कथा पुराणों से विस्तार से जानो । </p> | ||
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Latest revision as of 10:27, 14 December 2008
आगे मधुपिंगल मुनि का उदाहरण कहते हैं -
महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचित्तवावारो ।
सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ।।४५।।
मधुपिंगो नाम मुनि: देहाहारादित्यक्तव्यापार: ।
श्रमणत्वं न प्राप्त: निदानमात्रेण भव्यनुत! ।।४५।।
तज भोजनादि प्रवृत्तियाँ मुनिपिंगला रे भावविन ।
अरे मात्र निदान से पाया नहीं श्रमणत्व को ।।४५।।
अर्थ - मधुपिंगल नाम का मुनि कैसा हुआ ? देह आहारादि में व्यापार छोड़कर भी निदानमात्र से भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं हुआ उसको भव्यजीवों से नमने योग्य मुनि तू देख ।
भावार्थ - मधुपिंगल नाम के मुनि की कथा पुराण में है, उसका संक्षेप ऐसे है - इस भरतक्षेत्र के सुरम्यदेश में पोदनापुर का राजा तृणपिंगल का पुत्र मधुपिंगल था । वह चारणयुगलनगर के राजा सुयोधन की पुत्री सुलसा के स्वयंवर में आया था । वहीं साकेतापुरी राजा सगर आया था । सगर के मंत्री ने मधु पिंगल को कपट से नया सामुद्रिक शास्त्र बनाकर दोषी बताया कि इसके नेत्र पिंगल हैं (माँजरा है) जो कन्या इसको वरे सो मरण को प्राप्त हो । तब कन्या ने सगर के गले में वरमाला पहिना दी । मधुपिंगल का वरण नहीं किया, तब मधुपिंगल ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली । फिर कारण पाकर सगर के मंत्री के कपट को जानकर क्रोध से निदान किया कि मेरे तप का फल यह हो ``अगले जन्म में सगर के कुल को निर्मूल करूँ उसके पीछे मधुपिंगल मरकर महाकालासुर नाम का असुर देव हुआ तब सगर को मंत्री सहित मारने का उपाय सोचने लगा । इसको क्षीरकदम्ब ब्राह्मण का पुत्र पापी पर्वत मिला, तब उसको पशुओं की हिंसारूप यज्ञ का सहायक बन ऐसा कहा । सगर राजा को यज्ञ का उपदेश करके यज्ञ करा, तेरे यज्ञ का मैं सहायक बनूँगा । तब पर्वत ने सगर से यज्ञ कराया, पशु होे । उस पाप से सगर सातवें नरक गया और कालासुर सहायक बना सो यज्ञ करनेवालों को स्वर्ग जाते दिखाये । ऐसे मधुपिंगल नामक मुनि ने निदान से महाकालासुर बनकर महापाप कमाया, इसलिए आचार्य कहते हैं कि मुनि बन जाने पर भी भाव बिगड़ जावे तो सिद्धि को नहीं पाता है । इसकी कथा पुराणों से विस्तार से जानो ।