भावपाहुड गाथा 121: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: आगे इस ही अर्थ को दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं -<br> <p class="PrakritGatha"> जह दीवो गब्...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आगे | आगे भेदों के विकल्प से रहित होकर ध्यान करने का उपदेश करते हैं -<br> | ||
<p class="PrakritGatha"> | <p class="PrakritGatha"> | ||
झायहि धम्मं सुक्कं अट्ट रउद्दं च झाण मुत्तूण ।<br> | |||
रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ।।१२१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
ध्याय धर्म्यं शुक्लं आर्त्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा ।<br> | |||
रौद्रार्त्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।।१२१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
रौद्रार्त वश चिरकाल से दु:ख सहे अगणित आजतक ।<br> | |||
अब तज इन्हें ध्या धरमसुखमय शुक्ल भव के अन्ततक ।।१२१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तू आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ और धर्म-शुक्लधयान हैं, उन्हें ही कर, क्योंकि रौद्र और आर्तध्यान तो इस जीव ने अनादिकाल से बहुत समय तक किये हैं । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> आर्त-रौद्र ध्यान अशुभ है, संसार के कारण हैं । ये दोनों ध्यान तो जीव के बिना उपदेश ही अनादि से पाये जाते हैं, इसलिए इनको छोड़ने का उपदेश है । धर्म-शुक्ल ध्यान स्वर्ग- मोक्ष के कारण हैं । इनको कभी नहीं ध्याये, इसलिए इनके ध्यान करने का उपदेश है । ध्यान का स्वरूप `एकाग्रचिंतानिरोध' कहा है । धर्मध्यान में तो धर्मानुराग का सद्भाव है सो धर्म के मोक्षमार्ग के कारण में रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिए शुभराग के निमित्त से पुण्यबंध भी होता है और विशुद्ध भाव के निमित्त से पापकर्म की निर्जरा भी होती है । शुक्लध्यान में आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ गुणस्थान में तो अव्यक्त राग है । वहाँ अनुभव-अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है, इसलिए `शुक्ल' नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग-कषाय का अभाव ही है, इसलिए सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है । इतनी और विशेषता है कि उपयोग के एकाग्रपनारूप ध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही है । उस अपेक्षा से तेरहवें- चौदहवें गुणस्थान में ध्यान का उपचार है और योगक्रिया के स्थंभन की अपेक्षा ध्यान कहा है । यह शुक्लध्यान कर्म की निर्जरा करके जीव को मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यान का उपदेश जानना ।।१२१।।<br> | ||
</p> | </p> | ||
[[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | ||
[[Category:अष्टपाहुड]] | [[Category:अष्टपाहुड]] | ||
[[Category:भावपाहुड]] | [[Category:भावपाहुड]] |
Latest revision as of 11:28, 14 December 2008
आगे भेदों के विकल्प से रहित होकर ध्यान करने का उपदेश करते हैं -
झायहि धम्मं सुक्कं अट्ट रउद्दं च झाण मुत्तूण ।
रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ।।१२१।।
ध्याय धर्म्यं शुक्लं आर्त्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा ।
रौद्रार्त्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।।१२१।।
रौद्रार्त वश चिरकाल से दु:ख सहे अगणित आजतक ।
अब तज इन्हें ध्या धरमसुखमय शुक्ल भव के अन्ततक ।।१२१।।
अर्थ - हे मुने ! तू आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ और धर्म-शुक्लधयान हैं, उन्हें ही कर, क्योंकि रौद्र और आर्तध्यान तो इस जीव ने अनादिकाल से बहुत समय तक किये हैं ।
भावार्थ - आर्त-रौद्र ध्यान अशुभ है, संसार के कारण हैं । ये दोनों ध्यान तो जीव के बिना उपदेश ही अनादि से पाये जाते हैं, इसलिए इनको छोड़ने का उपदेश है । धर्म-शुक्ल ध्यान स्वर्ग- मोक्ष के कारण हैं । इनको कभी नहीं ध्याये, इसलिए इनके ध्यान करने का उपदेश है । ध्यान का स्वरूप `एकाग्रचिंतानिरोध' कहा है । धर्मध्यान में तो धर्मानुराग का सद्भाव है सो धर्म के मोक्षमार्ग के कारण में रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिए शुभराग के निमित्त से पुण्यबंध भी होता है और विशुद्ध भाव के निमित्त से पापकर्म की निर्जरा भी होती है । शुक्लध्यान में आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ गुणस्थान में तो अव्यक्त राग है । वहाँ अनुभव-अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है, इसलिए `शुक्ल' नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग-कषाय का अभाव ही है, इसलिए सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है । इतनी और विशेषता है कि उपयोग के एकाग्रपनारूप ध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही है । उस अपेक्षा से तेरहवें- चौदहवें गुणस्थान में ध्यान का उपचार है और योगक्रिया के स्थंभन की अपेक्षा ध्यान कहा है । यह शुक्लध्यान कर्म की निर्जरा करके जीव को मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यान का उपदेश जानना ।।१२१।।