भावपाहुड गाथा 132: Difference between revisions
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आगे | आगे उपदेश करते हैं कि जबतक जरा आदिक न आवें तबतक अपना हित कर लो -<br> | ||
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उत्थरह जा ण जरओ रोयण्णी जा ण डहइ देहउडिं ।<br> | |||
इन्दियबलं ण वियलइ ताव तुं कुणहि अप्पहिंय ।।१३२।।<br> | |||
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आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् ।<br> | |||
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ।।१३२।।<br> | |||
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<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं ।<br> | |||
अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ।।१३२।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! जबतक तेरे जरा (बुढ़ापा) न आवे तथा जबतक रोगरूपी अग्नि तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जबतक इन्द्रियों का बल न घटे तबतक अपना हित कर लो । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> वृद्ध अवस्था में देह रोगों से जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं तब असमर्थ होकर इस लोक के कार्य उठना-बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसंबंधी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूप का अनुभवादि कार्य कैसे करे ? इसलिए यह उपदेश है कि जबतक सामर्थ्य है तबतक अपना हितरूप कार्य कर लो ।।१३२।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:37, 14 December 2008
आगे उपदेश करते हैं कि जबतक जरा आदिक न आवें तबतक अपना हित कर लो -
उत्थरह जा ण जरओ रोयण्णी जा ण डहइ देहउडिं ।
इन्दियबलं ण वियलइ ताव तुं कुणहि अप्पहिंय ।।१३२।।
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् ।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ।।१३२।।
करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं ।
अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ।।१३२।।
अर्थ - हे मुने ! जबतक तेरे जरा (बुढ़ापा) न आवे तथा जबतक रोगरूपी अग्नि तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जबतक इन्द्रियों का बल न घटे तबतक अपना हित कर लो ।
भावार्थ - वृद्ध अवस्था में देह रोगों से जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं तब असमर्थ होकर इस लोक के कार्य उठना-बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसंबंधी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूप का अनुभवादि कार्य कैसे करे ? इसलिए यह उपदेश है कि जबतक सामर्थ्य है तबतक अपना हितरूप कार्य कर लो ।।१३२।।