चारित्रपाहुड गाथा 13: Difference between revisions
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आगे कहते हैं कि जो ऐसे कारण सहित हो तो सम्यक्त्व छोड़ता है -
उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा ।
अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ।।१३।।
उत्साहभावना शंप्रशंसासेवा कुदर्शने श्रद्धा ।
अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम् ।।१३।।
अज्ञानमोहित मार्ग की शंसा करे उत्साह से ।
श्रद्धा कुदर्शन में रहे तो बमे सम्यक्भाव को ।।१३।।
अर्थ - कुदर्शन अर्थात् नैयायिक, वैशेषिक, सांख्यमत, मीमांसकमत, वेदान्तमत, बौद्धमत, चार्वाकमत, शून्यवाद के मत इनके भेष तथा इनके भाषित पदार्थ और श्वेताम्बरादिक जैनाभास इनमें श्रद्धा, उत्साह, भावना, प्रशंसा और इनकी उपासना व सेवा जो पुरुष करता है, वह जिनमत की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को छोड़ता है, वह कुदर्शन, अज्ञान और मिथ्यात्व का मार्ग है ।
भावार्थ - अनादिकाल से मिथ्यात्वकर्म के उदय से (उदयवश) यह जीव संसार में भ्रण करता है सो कोई भाग्य के उदय से जिनमार्ग की श्रद्धा हुई हो और मिथ्यामत के प्रसंग से मिथ्यामत में कुछ कारण से उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा उत्पन्न हो तो सम्यक्त्व का अभाव हो जाय, क्योंकि जिनमत के सिवाय अन्य मतों में छद्मस्थ अज्ञानियों द्वारा प्ररूपित मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्या प्रवृत्तिरूप मार्ग है, उसकी श्रद्धा आवे तब जिनमत की श्रद्धा जाती रहे, इसलिए मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग ही नहीं करना, इसप्रकार भावार्थ जानना ।।१३।।