चारित्रपाहुड गाथा 16: Difference between revisions
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आगे फिर उपदेश करते हैं -
पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे ।
होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ।।१६।।
प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्त्तस्व सुतपसि सुसंयमेभावे ।
भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ।।१६।।
सब संग तज ग्रह प्रव्रज्या रम सुतप संयमभाव में ।
निर्मोह हो तू वीतरागी लीन हो शुधध्यान में ।।१६।।
अर्थ - हे भव्य ! तू संग अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और भले प्रकार संयमस्वरूप भाव होने पर सम्यक् प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोहरहित वीतरागपना होने पर निर्मल धर्म शुक्लध्यान हो ।
भावार्थ - निर्ग्रन्थ हो दीक्षा लेकर संयमभाव से भले प्रकार तप में प्रवर्तन करे, तब संसार का मोह दूर होकर वीतरागपना हो, फिर निर्मल धर्मध्यान शुक्लध्यान होते हैं, इसप्रकार ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए इसप्रकार उपदेश है ।।१६।।