योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 84: Difference between revisions
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<p class="Utthanika">जीव अपने विकारी भावों का कर्ता और पुद्गल कर्म का अकर्ता -</p> | |||
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कल्मषोदयत: भावो यो जीवस्य प्रजायते ।<br> | |||
स कर्ता तस्य भावस्य कर्मणो न कदाचन ।।८४।।<br> | |||
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- कल्मष-उदयत: जीवस्य य: भाव: प्रजायते तस्य भावस्य स: (जीव:) कर्ता (भवति), कर्मण: (कर्ता) कदाचन न (भवति) । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- मिथ्यात्वादि पापकर्म के उदय से जीव में जो मोह राग-द्वेषरूप विकारी परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन भावों का वह जीव कर्ता होता है; परन्तु ज्ञानावरणादि पुद्गलमय द्रव्यकर्म का कर्ता वह जीव कभी भी नहीं होता । </p> | ||
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जीव अपने विकारी भावों का कर्ता और पुद्गल कर्म का अकर्ता -
कल्मषोदयत: भावो यो जीवस्य प्रजायते ।
स कर्ता तस्य भावस्य कर्मणो न कदाचन ।।८४।।
अन्वय :- कल्मष-उदयत: जीवस्य य: भाव: प्रजायते तस्य भावस्य स: (जीव:) कर्ता (भवति), कर्मण: (कर्ता) कदाचन न (भवति) ।
सरलार्थ :- मिथ्यात्वादि पापकर्म के उदय से जीव में जो मोह राग-द्वेषरूप विकारी परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन भावों का वह जीव कर्ता होता है; परन्तु ज्ञानावरणादि पुद्गलमय द्रव्यकर्म का कर्ता वह जीव कभी भी नहीं होता ।