योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 91: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- चेत् (रागादि) भाव: कर्म कुरूते, तदा जीव: (कर्मण:) कर्ता कथं (भवति) जीव: निजभावं हित्वा किंचित् परं न कुरूते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- चेत् (रागादि) भाव: कर्म कुरूते, तदा जीव: (कर्मण:) कर्ता कथं (भवति) जीव: निजभावं हित्वा किंचित् परं न कुरूते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- यदि यह बात मान ली जाय कि मोह-राग-द्वेषादि विकारी/विभाव परिणाम ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का कर्ता/निर्माता है, तो जीव ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो का कर्ता कैसे हो सकता है? अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि जीव तो अपने ज्ञान-दर्शन आदि निज परिणामोंको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं कर सकता । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- यदि यह बात मान ली जाय कि मोह-राग-द्वेषादि विकारी/विभाव परिणाम ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का कर्ता/निर्माता है, तो जीव ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो का कर्ता कैसे हो सकता है? अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि जीव तो अपने ज्ञान-दर्शन आदि निज परिणामोंको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं कर सकता । </p> | ||
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Latest revision as of 10:21, 15 May 2009
जीव मोहादि परिणामों का अकर्ता -
कर्म चेत्कुरुते भावो जीव: कर्ता तदा कथम् ।
न किंचित् कुरुते जीवो हित्वा भावं निजं परम् ।।९१।।
अन्वय :- चेत् (रागादि) भाव: कर्म कुरूते, तदा जीव: (कर्मण:) कर्ता कथं (भवति) जीव: निजभावं हित्वा किंचित् परं न कुरूते ।
सरलार्थ :- यदि यह बात मान ली जाय कि मोह-राग-द्वेषादि विकारी/विभाव परिणाम ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का कर्ता/निर्माता है, तो जीव ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो का कर्ता कैसे हो सकता है? अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि जीव तो अपने ज्ञान-दर्शन आदि निज परिणामोंको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं कर सकता ।