योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 93: Difference between revisions
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द्रव्यकर्म | <p class="Utthanika">ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म को जीवकृत कहा जाता है -</p> | ||
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कोपादिभि: कृतं कर्म जीवेन कृतमुच्यते ।<br> | |||
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- यथा पदातिभि: जितं युद्धं भूपतिना जितं (उच्यते तथा एव) कोपादिभि: कृतं कर्म जीवेन कृतं उच्यते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- जिसप्रकार योद्धाओं के द्वारा जीता गया युद्ध राजा के द्वारा जीता गया, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है, उसीप्रकार क्रोधादि कषायभावों के द्वारा अर्थात् मोह-राग-द्वेष आदि विभावभावों से किया गया कर्म जीव के द्वारा किया गया, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है । </p> | ||
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ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म को जीवकृत कहा जाता है -
कोपादिभि: कृतं कर्म जीवेन कृतमुच्यते ।
पदातिभिर्जितं युद्धं जितं भूपतिना यथा ।।९३।।
अन्वय :- यथा पदातिभि: जितं युद्धं भूपतिना जितं (उच्यते तथा एव) कोपादिभि: कृतं कर्म जीवेन कृतं उच्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार योद्धाओं के द्वारा जीता गया युद्ध राजा के द्वारा जीता गया, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है, उसीप्रकार क्रोधादि कषायभावों के द्वारा अर्थात् मोह-राग-द्वेष आदि विभावभावों से किया गया कर्म जीव के द्वारा किया गया, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है ।