योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 127: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- (मिथ्यादृष्टि:) स्वदेह-परदेहयो: अचेतनत्वं अज्ञात्वा तत्र स्वकीय-परकीय आत्मबुद्धित: वर्तते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- (मिथ्यादृष्टि:) स्वदेह-परदेहयो: अचेतनत्वं अज्ञात्वा तत्र स्वकीय-परकीय आत्मबुद्धित: वर्तते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि जीव स्वदेह और परदेह के अचेतनपने को न जानकर स्वदेह में आत्मबुद्धि से और परदेह में परकीय आत्मबुद्धि से प्रवृत्त होता है अर्थात् अपने शरीर को अपना आत्मा और पर के शरीर को पर का आत्मा समझकर व्यवहार करता | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि जीव स्वदेह और परदेह के अचेतनपने को न जानकर स्वदेह में आत्मबुद्धि से और परदेह में परकीय आत्मबुद्धि से प्रवृत्त होता है अर्थात् अपने शरीर को अपना आत्मा और पर के शरीर को पर का आत्मा समझकर व्यवहार करता है । </p> | ||
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मिथ्यात्व से देह संबंधी विपरीतता -
अचेतनत्वमज्ञात्वा स्वदेह-परदेहयो: ।
स्वकीय-परकीयात्मबुद्धितस्तत्र वर्तते ।।१२७।।
अन्वय :- (मिथ्यादृष्टि:) स्वदेह-परदेहयो: अचेतनत्वं अज्ञात्वा तत्र स्वकीय-परकीय आत्मबुद्धित: वर्तते ।
सरलार्थ :- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि जीव स्वदेह और परदेह के अचेतनपने को न जानकर स्वदेह में आत्मबुद्धि से और परदेह में परकीय आत्मबुद्धि से प्रवृत्त होता है अर्थात् अपने शरीर को अपना आत्मा और पर के शरीर को पर का आत्मा समझकर व्यवहार करता है ।