योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 143: Difference between revisions
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यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् ।<br> | यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् ।<br> | ||
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<p><b> अन्वय </b>:- सुरराजानां विषय-उद्भवं यत् सुखं जायते तत् दाहिकां तृष्णां ददानं दु:खं (एव अस्ति इति) अवबुध्यताम् । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- सुरराजानां विषय-उद्भवं यत् सुखं जायते तत् दाहिकां तृष्णां ददानं दु:खं (एव अस्ति इति) अवबुध्यताम् । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- (यदि यह पूछा जाय कि देवगति को प्राप्त देवेन्द्रों को तो बहुत सुख होता है फिर देवगति के सभी जीवों को दु:ख सहनेवाला क्यों लिखा है? तो इसका समाधान यह है कि) देवेन्द्रों को इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णा को देनेवाला है; इसलिए उसे (वस्तुत:) दु:ख ही समझना चाहिए ।' </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- (यदि यह पूछा जाय कि देवगति को प्राप्त देवेन्द्रों को तो बहुत सुख होता है फिर देवगति के सभी जीवों को दु:ख सहनेवाला क्यों लिखा है? तो इसका समाधान यह है कि) देवेन्द्रों को इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णा को देनेवाला है; इसलिए उसे (वस्तुत:) दु:ख ही समझना चाहिए ।' </p> | ||
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देवेन्द्रों का विषय-सुख भी दु:ख ही है -
यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् ।
ददानं दाहिकां तृष्णां दु:खं तदवबुध्यताम् ।।१४३।।
अन्वय :- सुरराजानां विषय-उद्भवं यत् सुखं जायते तत् दाहिकां तृष्णां ददानं दु:खं (एव अस्ति इति) अवबुध्यताम् ।
सरलार्थ :- (यदि यह पूछा जाय कि देवगति को प्राप्त देवेन्द्रों को तो बहुत सुख होता है फिर देवगति के सभी जीवों को दु:ख सहनेवाला क्यों लिखा है? तो इसका समाधान यह है कि) देवेन्द्रों को इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णा को देनेवाला है; इसलिए उसे (वस्तुत:) दु:ख ही समझना चाहिए ।'