बोधपाहुड़ गाथा 14: Difference between revisions
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दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च ।
णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥१४॥
दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च ।
निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥१४॥
(४) आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैं -
हरिगीत
सम्यक्त्व संयम धर्ममय शिवमग बतावनहार जो ।
वे ज्ञानमय निर्ग्रन्थ ही दर्शन कहे जिनमार्ग में ॥१४॥
परमार्थरूप ‘अंतरंग दर्शन’ तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य’ उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनि का रूप है सो ‘दर्शन’ है, क्योंकि मत की मूर्ति को दर्शन कहना लोक में प्रसिद्ध है ॥