बोधपाहुड़ गाथा 46: Difference between revisions
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<div class="HindiBhavarth"><div>अन्यमती, बहुत से इसप्रकार प्रव्रज्या कहते हैं - गौ, धन, धान्य, वस्त्र, सोना, रूपा (चाँदी), शयन, आसन, छत्र, चंवर और भूमि आदि का दान करना प्रव्रज्या है । इसका इस गाथा में निषेध किया है - प्रव्रज्या तो निर्ग्रन्थस्वरूप है, जो धन, धान्य आदि रखकर दान करे उसके काहे की प्रव्रज्या ? यह तो गृहस्थ का कर्म है, गृहस्थ के भी इन वस्तुओं के दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत हैं और पुण्य अल्प है वह बहुत पापकार्य तो गृहस्थ को करने में लाभ नहीं है । जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य है । दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित ही है ॥४६॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - अन्यमती, बहुत से इसप्रकार प्रव्रज्या कहते हैं - गौ, धन, धान्य, वस्त्र, सोना, रूपा (चाँदी), शयन, आसन, छत्र, चंवर और भूमि आदि का दान करना प्रव्रज्या है । इसका इस गाथा में निषेध किया है - प्रव्रज्या तो निर्ग्रन्थस्वरूप है, जो धन, धान्य आदि रखकर दान करे उसके काहे की प्रव्रज्या ? यह तो गृहस्थ का कर्म है, गृहस्थ के भी इन वस्तुओं के दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत हैं और पुण्य अल्प है वह बहुत पापकार्य तो गृहस्थ को करने में लाभ नहीं है । जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य है । दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित ही है ॥४६॥</div> | ||
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Latest revision as of 17:42, 2 November 2013
धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्तइं ।
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४६॥
धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि ।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४६॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - धन, धान्य, वस्त्र इनका दान, हिरण्य अर्थात् रूपा, सोना आदिक, शय्या, आसन आदि शब्द से छत्र, चामरादिक और क्षेत्र आदि कुदानों से रहित प्रव्रज्या कही है ।
भावार्थ - अन्यमती, बहुत से इसप्रकार प्रव्रज्या कहते हैं - गौ, धन, धान्य, वस्त्र, सोना, रूपा (चाँदी), शयन, आसन, छत्र, चंवर और भूमि आदि का दान करना प्रव्रज्या है । इसका इस गाथा में निषेध किया है - प्रव्रज्या तो निर्ग्रन्थस्वरूप है, जो धन, धान्य आदि रखकर दान करे उसके काहे की प्रव्रज्या ? यह तो गृहस्थ का कर्म है, गृहस्थ के भी इन वस्तुओं के दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत हैं और पुण्य अल्प है वह बहुत पापकार्य तो गृहस्थ को करने में लाभ नहीं है । जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य है । दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित ही है ॥४६॥