बोधपाहुड़ गाथा 51: Difference between revisions
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<div class="HindiUtthanika">आगे दीक्षा का बाह्यस्वरूप कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">आगे दीक्षा का बाह्यस्वरूप कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - कैसी है प्रव्रज्या ? यथाजातरूपसदृशी अर्थात् जैसा जन्म होते ही बालक का नग्नरूप होता है वैसा ही नग्नरूप उसमें है । अवलंबितभुजा अर्थात् जिसमें भुजा लंबायमान की है, जिसमें बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहना होता है, निरायुधा अर्थात् आयुधों से रहित है, शांता अर्थात् जिसमें अंग-उपांग के विकार रहित शांतमुद्रा होती है । परकृतनिलयनिवासा अर्थात् जिसमें दूसरे का बनाया निलय जो वस्तिका आदि उसमें निवास होता है, जिसमें अपने को कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न लगा हो ऐसी दूसरे की बनाई हुई वस्तिका आदि में रहना होता है ऐसी प्रव्रज्या कही है ।</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - अन्यमती कई लोग बाह्य में वस्त्रादिक रखते हैं, कई आयुध रखते हैं, कई सुख के लिए आसन चलाचल रखते हैं, कई उपाश्रय आदि रहने का निवास बनाकर उसमें रहते हैं और अपने को दीक्षासहित मानते हैं, उनके भेषमात्र है, जैनदीक्षा तो जैसी कही वैसी ही है ॥५१॥</div> | ||
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Latest revision as of 17:44, 2 November 2013
जहजायरूवसरिसा अवलंबियभुय णिराउहा संता ।
परकियणिलयणिवासा पव्वज्ज एरिसा भणिया ॥५१॥
यथाजातरूपसदृशी अवलम्बितभुजा निरायुधा शान्ता ।
परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५१॥
आगे दीक्षा का बाह्यस्वरूप कहते हैं -
अर्थ - कैसी है प्रव्रज्या ? यथाजातरूपसदृशी अर्थात् जैसा जन्म होते ही बालक का नग्नरूप होता है वैसा ही नग्नरूप उसमें है । अवलंबितभुजा अर्थात् जिसमें भुजा लंबायमान की है, जिसमें बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहना होता है, निरायुधा अर्थात् आयुधों से रहित है, शांता अर्थात् जिसमें अंग-उपांग के विकार रहित शांतमुद्रा होती है । परकृतनिलयनिवासा अर्थात् जिसमें दूसरे का बनाया निलय जो वस्तिका आदि उसमें निवास होता है, जिसमें अपने को कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न लगा हो ऐसी दूसरे की बनाई हुई वस्तिका आदि में रहना होता है ऐसी प्रव्रज्या कही है ।
भावार्थ - अन्यमती कई लोग बाह्य में वस्त्रादिक रखते हैं, कई आयुध रखते हैं, कई सुख के लिए आसन चलाचल रखते हैं, कई उपाश्रय आदि रहने का निवास बनाकर उसमें रहते हैं और अपने को दीक्षासहित मानते हैं, उनके भेषमात्र है, जैनदीक्षा तो जैसी कही वैसी ही है ॥५१॥