दर्शनपाहुड़ - देशभाषामय वचनिका प्रतिज्ञा: Difference between revisions
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<div class=" | <div>विघनहरन मङ्गलकरन वन्दू वृषकरतार ॥१॥</div> | ||
<div>विघनहरन | <div>वानी वन्दू हितकरी जिनमुख-नभतैं गाजि ।</div> | ||
<div>वानी | <div>गणधरगणश्रुतभू-झरी-बून्द-वर्णपद साजि ॥२॥</div> | ||
<div>गणधरगणश्रुतभू-झरी- | <div>गुरु गौतम वन्दू सुविधि संयमतपधर और ।</div> | ||
<div>गुरु गौतम | <div>जिनि तैं पञ्चमकाल मैं बरत्यो जिनमत दौर ॥३॥</div> | ||
<div>जिनि तैं | <div>कुन्दकुन्दमुनि कूं नमूं कुमतध्वान्तहर भान ।</div> | ||
<div>कुन्दकुन्दमुनि कूं नमूं | |||
<div>पाहुड ग्रन्थ रचे जिनहिं प्राकृत वचन महान ॥४॥</div> | <div>पाहुड ग्रन्थ रचे जिनहिं प्राकृत वचन महान ॥४॥</div> | ||
<div>तिनिमैं कई प्रसिद्ध लखि करूं सुगम सुविचार ।</div> | <div>तिनिमैं कई प्रसिद्ध लखि करूं सुगम सुविचार ।</div> | ||
<div>देशवचनिकामय लिखूं भव्य-जीवहितधार ॥५॥</div> | <div>देशवचनिकामय लिखूं भव्य-जीवहितधार ॥५॥</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div>इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृतगाथाबद्ध पाहुड ग्रन्थों में से कुछ की देशभाषामय वचनिका लिखते हैं -</div> | |||
<div>वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्ग की अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं । उसमें भी इस पंचमकाल में केवली-श्रुतकेवली का व्युच्छेद होने से जिनमत में भी जड़ वक्र जीवों के निमित्त से परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बर आदि बुद्धिकल्पित मत हुए हैं । उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूप की स्थापना के हेतु दिगम्बर आम्नाय मूलसंघ में आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञ की परम्परा के अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उनमें दिगम्बर सम्प्रदाय मूलसंघ नन्दि आम्नाय सरस्वतीगच्छ में श्री कुन्दकुन्द मुनि हुए और उन्होंने पाहुडग्रन्थों की रचना की । उन्हें संस्कृत भाषा में प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं ।</div> | <div>वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्ग की अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं । उसमें भी इस पंचमकाल में केवली-श्रुतकेवली का व्युच्छेद होने से जिनमत में भी जड़ वक्र जीवों के निमित्त से परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बर आदि बुद्धिकल्पित मत हुए हैं । उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूप की स्थापना के हेतु दिगम्बर आम्नाय मूलसंघ में आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञ की परम्परा के अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उनमें दिगम्बर सम्प्रदाय मूलसंघ नन्दि आम्नाय सरस्वतीगच्छ में श्री कुन्दकुन्द मुनि हुए और उन्होंने पाहुडग्रन्थों की रचना की । उन्हें संस्कृत भाषा में प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं ।</div> | ||
<div>काल दोष से जीवों की बुद्धि मन्द होती है, जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिए देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा - ऐसाप्रयोजन विचार कर वचनिका लिख रहे हैं, अन्य कोई ख्याति, बड़ाई या लाभ का प्रयोजन नहीं है ।</div> | <div>काल दोष से जीवों की बुद्धि मन्द होती है, जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिए देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा - ऐसाप्रयोजन विचार कर वचनिका लिख रहे हैं, अन्य कोई ख्याति, बड़ाई या लाभ का प्रयोजन नहीं है ।</div> |
Latest revision as of 22:18, 2 November 2013
( दोहा )
श्रीमत वीरजिनेश रवि मिथ्यातम हरतार ।
विघनहरन मङ्गलकरन वन्दू वृषकरतार ॥१॥
वानी वन्दू हितकरी जिनमुख-नभतैं गाजि ।
गणधरगणश्रुतभू-झरी-बून्द-वर्णपद साजि ॥२॥
गुरु गौतम वन्दू सुविधि संयमतपधर और ।
जिनि तैं पञ्चमकाल मैं बरत्यो जिनमत दौर ॥३॥
कुन्दकुन्दमुनि कूं नमूं कुमतध्वान्तहर भान ।
पाहुड ग्रन्थ रचे जिनहिं प्राकृत वचन महान ॥४॥
तिनिमैं कई प्रसिद्ध लखि करूं सुगम सुविचार ।
देशवचनिकामय लिखूं भव्य-जीवहितधार ॥५॥
इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृतगाथाबद्ध पाहुड ग्रन्थों में से कुछ की देशभाषामय वचनिका लिखते हैं -
वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्ग की अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं । उसमें भी इस पंचमकाल में केवली-श्रुतकेवली का व्युच्छेद होने से जिनमत में भी जड़ वक्र जीवों के निमित्त से परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बर आदि बुद्धिकल्पित मत हुए हैं । उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूप की स्थापना के हेतु दिगम्बर आम्नाय मूलसंघ में आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञ की परम्परा के अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उनमें दिगम्बर सम्प्रदाय मूलसंघ नन्दि आम्नाय सरस्वतीगच्छ में श्री कुन्दकुन्द मुनि हुए और उन्होंने पाहुडग्रन्थों की रचना की । उन्हें संस्कृत भाषा में प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं ।
काल दोष से जीवों की बुद्धि मन्द होती है, जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिए देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा - ऐसाप्रयोजन विचार कर वचनिका लिख रहे हैं, अन्य कोई ख्याति, बड़ाई या लाभ का प्रयोजन नहीं है ।
इसलिए हे भव्यजीवों ! इसे पढ़कर, अर्थ समझकर, चित्त में धारण करके यथार्थ मत के बाह्यलिंग एवं तत्त्वार्थ का श्रद्धान दृढ़ करना । इसमें कुछ बुद्धि की मंदता से तथा प्रमाद के वश अन्यथा अर्थ लिख दूँ तो अधिक बुद्धिमान मूलग्रन्थ को देखकर, शुद्ध करके पढ़ें और मुझे अल्पबुद्धि जानकर क्षमा करें ।