दर्शनपाहुड़ गाथा 18: Difference between revisions
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<div class="HindiUtthanika">आगे, जिनवचन में दर्शन का लिंग अर्थात् भेष कितने प्रकार का कहा है, सो कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">आगे, जिनवचन में दर्शन का लिंग अर्थात् भेष कितने प्रकार का कहा है, सो कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - दर्शन में एक तो जिनका स्वरूप है; वहाँ जैसा लिंग जिनदेव ने धारण किया वही लिंग है तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का लिंग है और तीसरा ‘अवरस्थित’ अर्थात् जघन्यपद में स्थित ऐसी आर्यिकाओं का लिंग है तथा चौथा लिंग दर्शन में है नहीं ।</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - जिनमत में तीनों लिंग अर्थात् भेष कहते हैं । एक तो वह है जो यथाजातरूप जिनदेव ने धारण किया तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट श्रावक का है और तीसरा स्त्री आर्यिका का है । इसके सिवा चौथा अन्य प्रकार का भेष जिनमत में नहीं है । जो मानते हैं वे मूल-संघ से बाहर हैं ॥१८॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - जिनमत में तीनों लिंग अर्थात् भेष कहते हैं । एक तो वह है जो यथाजातरूप जिनदेव ने धारण किया तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट श्रावक का है और तीसरा स्त्री आर्यिका का है । इसके सिवा चौथा अन्य प्रकार का भेष जिनमत में नहीं है । जो मानते हैं वे मूल-संघ से बाहर हैं ॥१८॥</div> |
Latest revision as of 22:28, 2 November 2013
एगं जिणस्स रूवं बिदियं उक्किट्ठसावयाणं तु ।
अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ॥१८॥
एकं जिनस्य रूपं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकाणां तु ।
अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुन: लिङ्गदर्शनं नास्ति ॥१८॥
आगे, जिनवचन में दर्शन का लिंग अर्थात् भेष कितने प्रकार का कहा है, सो कहते हैं -
अर्थ - दर्शन में एक तो जिनका स्वरूप है; वहाँ जैसा लिंग जिनदेव ने धारण किया वही लिंग है तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का लिंग है और तीसरा ‘अवरस्थित’ अर्थात् जघन्यपद में स्थित ऐसी आर्यिकाओं का लिंग है तथा चौथा लिंग दर्शन में है नहीं ।
भावार्थ - जिनमत में तीनों लिंग अर्थात् भेष कहते हैं । एक तो वह है जो यथाजातरूप जिनदेव ने धारण किया तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट श्रावक का है और तीसरा स्त्री आर्यिका का है । इसके सिवा चौथा अन्य प्रकार का भेष जिनमत में नहीं है । जो मानते हैं वे मूल-संघ से बाहर हैं ॥१८॥