शीलपाहुड़ गाथा 10: Difference between revisions
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णाणस्स णत्थि दोसो कुप्पुरिसाणं वि मंदबुद्धीणं ।
जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रज्जंति ॥१०॥
ज्ञानस्य नास्ति दोष: कापुरुषस्यापि मन्दबुद्धे: ।
ये ज्ञानगर्विता: भूत्वा विषयेषु रज्जन्ति ॥१०॥
आगे कहते हैं कि जो ज्ञान पाकर विषयासक्त होता है वह ज्ञान का दोष नहीं है, कुपुरुष का दोष है -
अर्थ - जो पुरुष ज्ञानगर्वित होकर ज्ञानमद से विषयों में रंजित होते हैं सो यह ज्ञान का ही दोष नहीं है वे मंदबुद्धि कुपुरुष हैं, उनका दोष है ।
भावार्थ - कोई जाने कि ज्ञान से बहुत पदार्थों को जाने तब विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष है, यहाँ आचार्य कहते हैं कि ऐसे मत जानो, ज्ञान प्राप्त करके विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष नहीं है, यह पुरुष मंदबुद्धि है और कुपुरुष है उसका दोष है, पुरुष का होनहार खोटा होता है तब बुद्धि बिगड़ जाती है फिर ज्ञान को प्राप्त कर उसके मद में मस्त हो विषयकषायों में आसक्त हो जाता है तो यह दोष-अपराध पुरुष का है, ज्ञान का नहीं है । ज्ञान का कार्य तो वस्तु को जैसी हो वैसी बता देना ही है, पीछे प्रवर्तना तो पुरुष का कार्य है, इसप्रकार जानना चाहिए ॥१०॥