मोक्षपाहुड़ गाथा 53: Difference between revisions
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उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं ।
तं णाणी तिहि गुत्ते खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥५३॥
उग्रतपसाऽज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकै: ।
तज्ज्ञानी त्रिभि: गुप्त: क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन ॥५३॥
आगे कहते हैं कि जो ध्यान सम्यग्ज्ञानी के होता है वही तप करके कर्म का क्षय करता है -
अर्थ - अज्ञानी तीव्र तप के द्वारा बहुत भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है ।
भावार्थ - जो ज्ञान का सामर्थ्य है वह तीव्र तप का भी सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि ऐसा है कि अज्ञानी अनेक कष्टों को सहकर तीव्र तप को करता हुआ करोड़ों भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है वह आत्मभावना सहित ज्ञानी मुनि उतने कर्मों का अंतर्मुहूर्त में क्षय कर देता है, यह ज्ञान का सामर्थ्य है ॥५३॥