इष्टोपदेश - श्लोक 44: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>अगच्छंस्तद्विशेषेणामनभिज्ञश्च जायते।</strong></p> | ||
< | <p><strong>अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते ।।44।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>विशेषों के अनुपयोग से बंधन का अभाव</strong>―जिस मनुष्य का उपयोग जिस विषय मे चिरकाल तक रहता है उसकी उस विषय में ही प्रीति हो जाती है, फिर वह पुरुष उस ही मे रमता है। उस विषय के सिवाय अन्य किसी भी जगह उसका चित्त नहीं जाता है। जब उसकाचित किसी अन्य विषय में नहीं जाता है तो उन विषयों की विशेषतावों का भी वह अनभिज्ञ रहता है। विशेषताएँ क्या है यह वस्तु सुंदर है, यह असुंदर है, इष्ट है, अनिष्ट है, मेरा है, तेरा है आदि जो विशेषतावों की तरंगें है वे कहाँ से उठे? जब उस विषय के संबंध में उपयोग दिया ही नहीं जा रहा है तो वे विशेष कहाँ से उत्पन्न होगे। जब वे विशेष उत्पन्न नहीं हुए अर्थात् परपदार्थ के संबंध मे इष्ट अनिष्ट भावना न हुई तो यह जीव बँधता नहीं है बल्कि बाह्यसंयम होने के कारण मुक्त हो जाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>स्नेह का गुप्त, विलक्षण, दृढ़ बंधन</strong>―लोक में भी देख लो, जिसको इष्ट माना उसी का बंधन लग गया। आप सब यहाँ बैठे है, प्रदेशों में न घर बँधा है, न स्वजन परिजन बँधे है, सब पदार्थ अपने-अपने स्थान में है, लेकिन चित्त उनमें है, उनका स्नेह है तो आप घर छोड़कर नहीं जा सकते। यह बंधन कहाँ से लग गया? न कोई रस्सी का बंधन है, न सांकल का बंधन है, न कोई पकड़े हुए है। यह ही खुद स्नेह परिणमन से परिणमकर बँध जाता है। इस पदार्थ का विशेष ज्ञान न हो तो स्नेह क्यों होगा, चारुदत्त सेठ जब लोकव्यवहार की बातो से परे रहता था, उसकी निष्काम प्रवृत्ति थी विवाह हो जाने पर भी वह अपने केवल धर्मसाधना मे ही रहता था। तब परिवार ने चिंता की यह तो घर में रहते हुए भी विभक्त है, ऐसे कैसे घर चलेगा तो उपाय रचा। वह उपाय क्या था, किसी से स्नेह का परिणमन तो आ जाय। न घर में सही, पर एक वह प्रगति तो बन जाय कि यह स्नेह करने लगे। उपाय ऐसा ही किया । वेश्या की गली में से उसका चाचा चारुदत्त को साथ लेकर गया। पहिले से ही प्रोग्राम था। सामने से कोई हाथी छुड़वाया गया। उससे कैसे बचें सो एक वेश्या के घर वे दोनों चले गए। जान तो बचाना था। वहाँ जाकर शतरंज आदि खिलवाया और जो-जो कुछ खटपट है उनमें भुलाया। यह चतुर था, यह भी खेल में शामिल हो गया। बस स्नेह का बंधन बँध गया। सबसे बडा़ बंधन है स्नेह के बंधन से जकड़ देना।</p> | ||
<p | <p><strong>स्नेह बंधन में विडंबनायें</strong>―एक दोहा में कहते है―(हाले फूले वे फिरैं होत हमारो व्याव। तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पाव ।।) केवल एक विवाह की बात नहीं है। किसी से किस ही प्रकार स्नेह का बंधन हो जाय तो वह जीवन में शल्य की तरह दुःख देता है। परिचय हो गया ना अब। बोलचाल रहन-सहन सब होने से स्नेह बन गया। अब इस मोही की दृष्टि में जगत के अन्य जीव कुछ नहीं लगते और ये एक दो जीव इसके लिए सर्व कुछ है। घर का आदमी जिससे बंधन है, बीमार पड़ जाए तो कर्जा लेकर भी उसका उपचार करता है। घर को तो सब लगा ही देगा और कदाचित् कोई पड़ौसी बीमार हो जाए तो कुछ भी लगा सके ऐसी हिम्मत भी नहीं कर पाता। कोई धर्मात्मा बीमार हो जाय तो उसके लिए कुछ भी नहीं है। यदि कुछ थोड़ा बहुत लगाया जाता तो लोकलाज से, पर जैसे भीतर से एक रुचि उत्पन्न होकर घर वाले की सेवा की जाती है इस प्रकार अंतरंग से रुचि उत्पन्न होकर किसी धर्मात्माजनों की सेवा की जा सके, ऐसा नहीं हो पाता है। ये सब मोह के नचाये हुए कहाँ-कहाँ क्या-क्या नाच नचाते है? रहना कुछ नहीं है साथ में। चंद दिनों की चाँदनी है, छोड़ना सब कुछ पड़ता है, पर उन ही चंद दिनों में ऐसी वासना बना लेते हैं कि भव-भव में क्लेश भोगने पड़ते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>आत्मगुणानुराग में बाह्य का अनुपयोग</strong>―जो मनुष्य जिन पदार्थों के चिंतन में तन्मय हो जाता है उसे तो उसमे गुण दिखते हे और उसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ के गुण नहीं दिखते, न दोष दिखते, हित अहित किसी भी प्रकार से ज्ञान नहीं रहता, इसी कारण अन्य से संबंध नहीं रहता है। ज्ञानी पुरुष को ऐसे ज्ञानप्रकाश का अनुभव होता है कि उसका चित्त अब किसी भी बाह्य विषय प्रसंग में नहीं लगता । जैसे मोही जीव विवश है ज्ञान और वैराग्य में मन लगाने को, इसी प्रकार ज्ञानी जीव विवश है विषय प्रसंगो मेंचित्त लगाने की।</p> | ||
<p | <p><strong>गुणों को आत्मवास देने की प्रभुता</strong>―एक काव्य में मानतुंग स्वामी ने कहा है कि हे भगवान ! आप में सब गुण समा गये। सारे गुणो ने आपका ही आश्रय लिया। सो हमें इसमें तो कुछ आश्चर्य नहीं लगता है। उन गुणों ने हम सब जीवो के पास वास करने के लिए आ आकर कहा कि हमें जरा स्थान दे दो, तो हम सबने उन गुणों को ललकारा। हटो जावो यहाँ से । वे सारे गुण क्या करे, झक मार कर आपके पास आ गए। हमें इसमें कोई अचरज नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि दोषों ने हम लोगों के पास आ आकर थोड़ी भी मिन्नत की कि थोड़े दिनों को हमको भी स्थान दे दो। तो हम सबने स्थान देने के लिए होड़ मचा दी। आवो सब दोष, तुम्हारा ही तो घर है। खूब आराम से रहो, तुमसे ही तो हम मौज से रहते हैं। तुम्हारी ही वजह से तो हमारी बनती है। जब सब दोषों को हम लोगो ने स्थान दिया तो एक भी दोष आपके पास आ सके क्या? आप में एक भी दोष नहीं आ सके, क्योंकि सब दोषों को हम लोगो ने बड़ा स्थान दिया। उससे शिक्षा यह लेनी है कि स्थान तो हमारे दोष और गुणों को विराजने के योग्य है। अब हम ऐसा विवेक करें कि जिसको स्थान देने में शांति संतोष हो सकता हो उन्हें स्थान दे।</p> | ||
<p | <p><strong>दोषवाद से लाभ का अभाव</strong>―भैया ! लोगो मे प्रकृति दूसरों की निंदा करने की हो जाती है, उनके प्रति देखो―दूसरों की निंदा कर करके वे कुछ मोटे हो गए या चारित्रवान हो गए, या कर्म काट लिए, बल्कि बात उल्टी हुई, दोषमय हो गये वे, क्योंकि दोषों में उपयोग लगाये बिना दोषों का कोई बखान कर नहीं सकता। जब दोषों में उपयोग लगाया तो उपयोग देने वाला सदोष हो गया। जब यह सदोष हो गया तो उससे उन्नति की कहाँ आशा की जा सकती है। कुछ अपनी प्रगति बनाएँ, जिन जीवों के दोष बखानने की रुचि है उनके तो कषायों से बढ़कर भी मोह का पाप समाया हुआ है। किसी का दोष खुद अपनी दृष्टि बुरी बनाए बिना बखान किया नहीं जा सकता है। यदि अपनी रक्षा रखने के लिए अथवा अपने परम स्नेही किसी बंधु की रक्षा करने के लिए किसी के दोष बताने पड़े और उसे कठिन अवसर समझा जाय कि बताये बिना काम न चलेगा, नहीं तो हमारे ये मित्र जो हमारी धर्मसाधना में सहायक है इनको धोखा हो जायगा। वे अपनी व धर्म मित्र की सुरक्षा के लिए दोष बता सकते हैं,अमुक मेंऐसा दोष है, उसके संग से लाभ न होगा, पर जिसकी प्रकृति ऐसी है कि कोई अवसर नहीं है, कोई बात नहीं फंसी है कि कहना ही पड़े और एक को नहीं अनेक को, जिस चाहे को, जो मिले उसी को दोष बखानने की प्रवृत्ति हो, यह कषायों के अभिप्राय बिना नहीं हो सकता। इससे उसको लाभ क्या मिला? कुछ नहीं। जिसमे लाभ मिले वह काम करने योग्य है। कुछ आत्मा का लाभ मिल जाता हो तो दोष ही बखानते रहे, पर लाभ दोष बखानने से नहीं मिलता, किंतु अपने को गुणरत करने से मिलता है।</p> | ||
<p | <p><strong>भली प्रतिक्रिया</strong>―यदि किसी के प्रति कुछ ईर्ष्या भी हो गई हो तो उसका बदला दोष बखानना नहीं है, किंतु स्वयं गुणी हो जाय और धर्मात्मा बन जाय तो उससे बढ़कर यह स्वयं हो जायगा, यही भली प्रतिक्रिया है। किसी भी परवस्तु में दोष देखने की आदत अपने भले के लिए नहीं होती है, गुण देखने की आदत अपने भले के लिए होती है। जगत में सभी जीव है, सबमें दोष है, सबमें गुण है, पर उन दोष और गुणो में से गुणों पर दृष्टि न जाय, दोषों पर ही दृष्टि जाय तो ऐसी वृत्ति और भी अनेक छोटे मोटे कीड़ेमकोड़ों में भी होती है। जोंक गाय के स्तन में लग जाय तो दूध को ग्रहण नहीं करती है, खून को ही ग्रहण करती है और उसमें भी अच्छे खून का ग्रहण नहीं करती किंतु खोटे गंदे खून का ही ग्रहण करती है। हम ऐसी आदत क्यों व्यर्थ में बनाएँ, हमको क्या पड़ी है इसकी?</p> | ||
<p | <p><strong>स्नेह बंधन</strong>―जब यह चित्त नहीं भ्रमता बाह्य पदार्थों में, विशेषतावों का विस्तार नहीं बनाता तब यह जीव बँधता नहीं है। स्नेह ही विकट बंधन है। मोह मय जगत में मोहमय स्नेह की तारीफ की जाती है, किंतु अध्यात्म जगत में स्नेह को बंधन बताया गया हे। आत्मज्ञ योगी जिस समय ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व में रत होता है उसकी प्रवृत्ति शरीरादि बाह्य पदार्थों में नहीं होती है। उन्हें बाह्य में अच्छे बुरे का ज्ञान भी नहीं रहता। इष्ट अनिष्ट संकल्प विकल्प न होने से रागद्वेष रूप परिणति नहीं होती। हम यह न सोचे कि यह साधु संतों के करने योग्य बात गृहस्थावस्था में क्यों जानी जाय ? यहाँ यह भावो का सौदा इस ही प्रकार का है। ऊँचा भाव बन गया, ऊँची दृष्टि बन गयी तो छोटे मोटे व्रत आसानी से पल सकेंगे। यहाँ ऐसा माप तौल न चल सकेगा कि हम जितने व्रत करें उतनी भर दृष्टि रक्खें, उससे आगे हम क्यों चले? दृष्टि बल होने पर थोड़ा बहुत आचरण बना भी सकते हैं,ऐसे ज्ञान के रुचिया अध्यात्मयोगी के शुभ-अशुभ पुण्य-पाप आदि का बंधन नहीं होता है, प्रत्युत छुटकारा मिल जाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी की विशेषों की उपेक्षा</strong>―यह ज्ञानी पुरुष ज्ञानमय स्वरूप के अनुभवन से एक अनुपम आनंद के स्वाद को पा चुका है। अब यह दो भिन्न वस्तुवों के मिलाप से होने वाले जो विषय क्षणिक सुख है उसका स्वाद लेने में असमर्थ हो गया है, वह तो अपने वस्तुस्वरूप को ही अनुभव रहा है, यह अपने ज्ञानानुभव के प्रसाद से विवश हो गया है, विषयों में नहीं लग सकता अब। अब अन्य बातों की तो कथा छोड़ो, अपने आप में उदित ज्ञान के विशेषों को भी गौण कर रहा है। जैसे दौड़ता हुआ पुरुष जिस जमीन पर से दौड़ रहा है उस जमीन को नहीं निरखता है, उस जमीन से गुजर रहा है, निरख रहा है किसी अन्य लक्ष्य को। ऐसे ही यह ज्ञानी इस ज्ञान के ज्ञान से गुजर रहा है, पर जो ज्ञान विशेष है, ज्ञेयाकार है उस ज्ञेयाकार को नहीं ग्रहण कर रहा है, एक निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप को ग्रहण कर रहा है। उसके ज्ञान की एकता होने से जो एक विशुद्ध आनंद जगता है उसके आगे सब रस फीके हो जाते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>औपाधिक भाव परिणत वस्तु में भी सहजस्वरूप का भान</strong>―भैया ! दर्पण मे दर्पण की स्वच्छता भी है, और दुनिया के जो भी सामने पदार्थ है, उनका प्रतिबिंब भी हे। जो विवेकी होगा वह तो प्रतिबिंबित दर्पण में भी स्वच्छता का भान कर सकता है। न होती स्वच्छता तो यह प्रतिबिंब भी कहाँ से होता, किंतु विवेकी पुरुष जिस दर्पण में पूरा ही प्रतिबिंब पड़ा हुआ है, किसी कोने में भी स्वच्छता नजर आती है, इसको तो वह दर्पण का स्वरूप नहीं मानता। ऐसे ही यह ज्ञानी ज्ञेयाकार की निरंतरता होने पर भी ज्ञान की स्वच्छता निहारता है। इस ज्ञान में स्वच्छता शक्ति है और यह ज्ञान कभी भी ज्ञेयो को जाने बिना नहीं रहता है। अब उन ज्ञेयाकारों से, विकल्पों से, आकार ग्रहण से परिणत हुए उस ज्ञानस्वरूप में ज्ञान की स्वच्छता जो निहार सके उसे ही तो ज्ञानी कहते हैं। न होती वह शाश्वत स्वच्छता तो यह ज्ञेय विकल्प ही कहाँ से बन पाता? जब इन ज्ञेय विकल्पो को ग्रहण नहीं किया, केवल ज्ञान को ग्रहण किया तो इसी का अर्थ यह है कि ऐसा सामान्य आकार बना कि वह ज्ञान गुण में समा गया है पृथक नहीं मालूम होता ।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी का ज्ञान की और झुकाव</strong>―जैसे मानो जब दर्पण के सामने कोई वस्तु न रक्खी हो तो दर्पण अपने आप में अपने आकार को अपने आप में समा लेता है, वहाँ पर भी स्वच्छता खाली नहीं रह सकती। वह कुछ न कुछ काम करता है। अपने ही आकार को अपनी ही स्वच्छता में झलका कर बना रहता है, पर स्वच्छता का कार्य न हो तो स्वच्छता का अभाव हो जायगा। ऐसे ही अध्यात्मयोगी संत ज्ञानी पुरुष ज्ञानाकार को ज्ञान द्वारा ग्रहण करके एकमेक समाकर विश्रांत और शांत रहते हैं,उस समय का जो आनंद है उसको जो प्राप्त कर लेता है उसे कोई व्यवहार में घर का उत्तरदायी होने के कारण अथवा किन्ही परिस्थितियों में बाह्य कामों में लगना पड़े तो उसे बड़ा अनुताप होता है, वह खेद मानता है। इस प्रकार यहाँ तक के वर्णन से हमें यह शिक्षा लेना है कि हम केवल घर गृहस्थी विषय धन संपदा सुख लौकिक बातें इनके लिए अपना जीवन न माँगें, ये सब नष्ट हो जाने वाली चीजें है, दुर्लभ मनुष्य जीवन से जीकर कोई अलौकिक तत्त्वज्ञान का आनंद प्राप्त कर लिया जाय तो वह ही परम विवेक है। यहाँ क्या है, धन कम पाया या ज्यादा पाया, तो उससे क्या हो गया? आनंद शांति तो ज्ञान के अनुरूप होती है, बाह्य धन संपदा के अनुरूप नहीं होती है।</p> | ||
<p | <p><strong>संबंध का धर्म संबंध में परिवर्तन</strong>―भैया ! ज्ञानार्जन का मन में आशय रक्खे। इस ज्ञान की साधना के लिए अपना तन, मन, वचन, धन सर्वस्व न्यौछावर करके भी यदि कुछ ज्ञानप्रकाश पा लिया तो जीवन सफल माने और घर के जिन लोगो से संबंध है उनको यह समझावो, इस संबंध को वैषयिक विषयों में न ढालकर इस मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्धति में बसा लो। मित्रता यह भी कहलायी और मित्रता वहाँ भी कहलायी। इस संबंध और मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्धति में बदल दो। ऐसा संबंध बन सका तो यह असंबंध का उत्साह देने वाला संबंध रहा। यह सब हमें किस प्रकार मिले सो पूजन करके रोज पढ़ लेते हैं। 7 चीजें रोज माँगते हो। शास्त्रों का अभ्यासचले, सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की भक्ति रहे, सदा सज्जन पुरुषों के साथ संगति रहे, गुणी पुरुषों के गुण कहने में समय जाय, दूसरों के दोष कहने के लिए गूँगा बन जाये, और वचन कुछ भी कभी बोलने पड़े तो सबको प्रिय हो और हितकारी हो। निरंतर यह ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व ही हितरूप है ऐसी भावना रक्खे। तो इन कर्तव्यों के प्रसाद से नियम से अलौकिक तत्त्व और आनंद प्रकट होगा।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
अगच्छंस्तद्विशेषेणामनभिज्ञश्च जायते।
अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते ।।44।।
विशेषों के अनुपयोग से बंधन का अभाव―जिस मनुष्य का उपयोग जिस विषय मे चिरकाल तक रहता है उसकी उस विषय में ही प्रीति हो जाती है, फिर वह पुरुष उस ही मे रमता है। उस विषय के सिवाय अन्य किसी भी जगह उसका चित्त नहीं जाता है। जब उसकाचित किसी अन्य विषय में नहीं जाता है तो उन विषयों की विशेषतावों का भी वह अनभिज्ञ रहता है। विशेषताएँ क्या है यह वस्तु सुंदर है, यह असुंदर है, इष्ट है, अनिष्ट है, मेरा है, तेरा है आदि जो विशेषतावों की तरंगें है वे कहाँ से उठे? जब उस विषय के संबंध में उपयोग दिया ही नहीं जा रहा है तो वे विशेष कहाँ से उत्पन्न होगे। जब वे विशेष उत्पन्न नहीं हुए अर्थात् परपदार्थ के संबंध मे इष्ट अनिष्ट भावना न हुई तो यह जीव बँधता नहीं है बल्कि बाह्यसंयम होने के कारण मुक्त हो जाता है।
स्नेह का गुप्त, विलक्षण, दृढ़ बंधन―लोक में भी देख लो, जिसको इष्ट माना उसी का बंधन लग गया। आप सब यहाँ बैठे है, प्रदेशों में न घर बँधा है, न स्वजन परिजन बँधे है, सब पदार्थ अपने-अपने स्थान में है, लेकिन चित्त उनमें है, उनका स्नेह है तो आप घर छोड़कर नहीं जा सकते। यह बंधन कहाँ से लग गया? न कोई रस्सी का बंधन है, न सांकल का बंधन है, न कोई पकड़े हुए है। यह ही खुद स्नेह परिणमन से परिणमकर बँध जाता है। इस पदार्थ का विशेष ज्ञान न हो तो स्नेह क्यों होगा, चारुदत्त सेठ जब लोकव्यवहार की बातो से परे रहता था, उसकी निष्काम प्रवृत्ति थी विवाह हो जाने पर भी वह अपने केवल धर्मसाधना मे ही रहता था। तब परिवार ने चिंता की यह तो घर में रहते हुए भी विभक्त है, ऐसे कैसे घर चलेगा तो उपाय रचा। वह उपाय क्या था, किसी से स्नेह का परिणमन तो आ जाय। न घर में सही, पर एक वह प्रगति तो बन जाय कि यह स्नेह करने लगे। उपाय ऐसा ही किया । वेश्या की गली में से उसका चाचा चारुदत्त को साथ लेकर गया। पहिले से ही प्रोग्राम था। सामने से कोई हाथी छुड़वाया गया। उससे कैसे बचें सो एक वेश्या के घर वे दोनों चले गए। जान तो बचाना था। वहाँ जाकर शतरंज आदि खिलवाया और जो-जो कुछ खटपट है उनमें भुलाया। यह चतुर था, यह भी खेल में शामिल हो गया। बस स्नेह का बंधन बँध गया। सबसे बडा़ बंधन है स्नेह के बंधन से जकड़ देना।
स्नेह बंधन में विडंबनायें―एक दोहा में कहते है―(हाले फूले वे फिरैं होत हमारो व्याव। तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पाव ।।) केवल एक विवाह की बात नहीं है। किसी से किस ही प्रकार स्नेह का बंधन हो जाय तो वह जीवन में शल्य की तरह दुःख देता है। परिचय हो गया ना अब। बोलचाल रहन-सहन सब होने से स्नेह बन गया। अब इस मोही की दृष्टि में जगत के अन्य जीव कुछ नहीं लगते और ये एक दो जीव इसके लिए सर्व कुछ है। घर का आदमी जिससे बंधन है, बीमार पड़ जाए तो कर्जा लेकर भी उसका उपचार करता है। घर को तो सब लगा ही देगा और कदाचित् कोई पड़ौसी बीमार हो जाए तो कुछ भी लगा सके ऐसी हिम्मत भी नहीं कर पाता। कोई धर्मात्मा बीमार हो जाय तो उसके लिए कुछ भी नहीं है। यदि कुछ थोड़ा बहुत लगाया जाता तो लोकलाज से, पर जैसे भीतर से एक रुचि उत्पन्न होकर घर वाले की सेवा की जाती है इस प्रकार अंतरंग से रुचि उत्पन्न होकर किसी धर्मात्माजनों की सेवा की जा सके, ऐसा नहीं हो पाता है। ये सब मोह के नचाये हुए कहाँ-कहाँ क्या-क्या नाच नचाते है? रहना कुछ नहीं है साथ में। चंद दिनों की चाँदनी है, छोड़ना सब कुछ पड़ता है, पर उन ही चंद दिनों में ऐसी वासना बना लेते हैं कि भव-भव में क्लेश भोगने पड़ते हैं।
आत्मगुणानुराग में बाह्य का अनुपयोग―जो मनुष्य जिन पदार्थों के चिंतन में तन्मय हो जाता है उसे तो उसमे गुण दिखते हे और उसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ के गुण नहीं दिखते, न दोष दिखते, हित अहित किसी भी प्रकार से ज्ञान नहीं रहता, इसी कारण अन्य से संबंध नहीं रहता है। ज्ञानी पुरुष को ऐसे ज्ञानप्रकाश का अनुभव होता है कि उसका चित्त अब किसी भी बाह्य विषय प्रसंग में नहीं लगता । जैसे मोही जीव विवश है ज्ञान और वैराग्य में मन लगाने को, इसी प्रकार ज्ञानी जीव विवश है विषय प्रसंगो मेंचित्त लगाने की।
गुणों को आत्मवास देने की प्रभुता―एक काव्य में मानतुंग स्वामी ने कहा है कि हे भगवान ! आप में सब गुण समा गये। सारे गुणो ने आपका ही आश्रय लिया। सो हमें इसमें तो कुछ आश्चर्य नहीं लगता है। उन गुणों ने हम सब जीवो के पास वास करने के लिए आ आकर कहा कि हमें जरा स्थान दे दो, तो हम सबने उन गुणों को ललकारा। हटो जावो यहाँ से । वे सारे गुण क्या करे, झक मार कर आपके पास आ गए। हमें इसमें कोई अचरज नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि दोषों ने हम लोगों के पास आ आकर थोड़ी भी मिन्नत की कि थोड़े दिनों को हमको भी स्थान दे दो। तो हम सबने स्थान देने के लिए होड़ मचा दी। आवो सब दोष, तुम्हारा ही तो घर है। खूब आराम से रहो, तुमसे ही तो हम मौज से रहते हैं। तुम्हारी ही वजह से तो हमारी बनती है। जब सब दोषों को हम लोगो ने स्थान दिया तो एक भी दोष आपके पास आ सके क्या? आप में एक भी दोष नहीं आ सके, क्योंकि सब दोषों को हम लोगो ने बड़ा स्थान दिया। उससे शिक्षा यह लेनी है कि स्थान तो हमारे दोष और गुणों को विराजने के योग्य है। अब हम ऐसा विवेक करें कि जिसको स्थान देने में शांति संतोष हो सकता हो उन्हें स्थान दे।
दोषवाद से लाभ का अभाव―भैया ! लोगो मे प्रकृति दूसरों की निंदा करने की हो जाती है, उनके प्रति देखो―दूसरों की निंदा कर करके वे कुछ मोटे हो गए या चारित्रवान हो गए, या कर्म काट लिए, बल्कि बात उल्टी हुई, दोषमय हो गये वे, क्योंकि दोषों में उपयोग लगाये बिना दोषों का कोई बखान कर नहीं सकता। जब दोषों में उपयोग लगाया तो उपयोग देने वाला सदोष हो गया। जब यह सदोष हो गया तो उससे उन्नति की कहाँ आशा की जा सकती है। कुछ अपनी प्रगति बनाएँ, जिन जीवों के दोष बखानने की रुचि है उनके तो कषायों से बढ़कर भी मोह का पाप समाया हुआ है। किसी का दोष खुद अपनी दृष्टि बुरी बनाए बिना बखान किया नहीं जा सकता है। यदि अपनी रक्षा रखने के लिए अथवा अपने परम स्नेही किसी बंधु की रक्षा करने के लिए किसी के दोष बताने पड़े और उसे कठिन अवसर समझा जाय कि बताये बिना काम न चलेगा, नहीं तो हमारे ये मित्र जो हमारी धर्मसाधना में सहायक है इनको धोखा हो जायगा। वे अपनी व धर्म मित्र की सुरक्षा के लिए दोष बता सकते हैं,अमुक मेंऐसा दोष है, उसके संग से लाभ न होगा, पर जिसकी प्रकृति ऐसी है कि कोई अवसर नहीं है, कोई बात नहीं फंसी है कि कहना ही पड़े और एक को नहीं अनेक को, जिस चाहे को, जो मिले उसी को दोष बखानने की प्रवृत्ति हो, यह कषायों के अभिप्राय बिना नहीं हो सकता। इससे उसको लाभ क्या मिला? कुछ नहीं। जिसमे लाभ मिले वह काम करने योग्य है। कुछ आत्मा का लाभ मिल जाता हो तो दोष ही बखानते रहे, पर लाभ दोष बखानने से नहीं मिलता, किंतु अपने को गुणरत करने से मिलता है।
भली प्रतिक्रिया―यदि किसी के प्रति कुछ ईर्ष्या भी हो गई हो तो उसका बदला दोष बखानना नहीं है, किंतु स्वयं गुणी हो जाय और धर्मात्मा बन जाय तो उससे बढ़कर यह स्वयं हो जायगा, यही भली प्रतिक्रिया है। किसी भी परवस्तु में दोष देखने की आदत अपने भले के लिए नहीं होती है, गुण देखने की आदत अपने भले के लिए होती है। जगत में सभी जीव है, सबमें दोष है, सबमें गुण है, पर उन दोष और गुणो में से गुणों पर दृष्टि न जाय, दोषों पर ही दृष्टि जाय तो ऐसी वृत्ति और भी अनेक छोटे मोटे कीड़ेमकोड़ों में भी होती है। जोंक गाय के स्तन में लग जाय तो दूध को ग्रहण नहीं करती है, खून को ही ग्रहण करती है और उसमें भी अच्छे खून का ग्रहण नहीं करती किंतु खोटे गंदे खून का ही ग्रहण करती है। हम ऐसी आदत क्यों व्यर्थ में बनाएँ, हमको क्या पड़ी है इसकी?
स्नेह बंधन―जब यह चित्त नहीं भ्रमता बाह्य पदार्थों में, विशेषतावों का विस्तार नहीं बनाता तब यह जीव बँधता नहीं है। स्नेह ही विकट बंधन है। मोह मय जगत में मोहमय स्नेह की तारीफ की जाती है, किंतु अध्यात्म जगत में स्नेह को बंधन बताया गया हे। आत्मज्ञ योगी जिस समय ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व में रत होता है उसकी प्रवृत्ति शरीरादि बाह्य पदार्थों में नहीं होती है। उन्हें बाह्य में अच्छे बुरे का ज्ञान भी नहीं रहता। इष्ट अनिष्ट संकल्प विकल्प न होने से रागद्वेष रूप परिणति नहीं होती। हम यह न सोचे कि यह साधु संतों के करने योग्य बात गृहस्थावस्था में क्यों जानी जाय ? यहाँ यह भावो का सौदा इस ही प्रकार का है। ऊँचा भाव बन गया, ऊँची दृष्टि बन गयी तो छोटे मोटे व्रत आसानी से पल सकेंगे। यहाँ ऐसा माप तौल न चल सकेगा कि हम जितने व्रत करें उतनी भर दृष्टि रक्खें, उससे आगे हम क्यों चले? दृष्टि बल होने पर थोड़ा बहुत आचरण बना भी सकते हैं,ऐसे ज्ञान के रुचिया अध्यात्मयोगी के शुभ-अशुभ पुण्य-पाप आदि का बंधन नहीं होता है, प्रत्युत छुटकारा मिल जाता है।
ज्ञानी की विशेषों की उपेक्षा―यह ज्ञानी पुरुष ज्ञानमय स्वरूप के अनुभवन से एक अनुपम आनंद के स्वाद को पा चुका है। अब यह दो भिन्न वस्तुवों के मिलाप से होने वाले जो विषय क्षणिक सुख है उसका स्वाद लेने में असमर्थ हो गया है, वह तो अपने वस्तुस्वरूप को ही अनुभव रहा है, यह अपने ज्ञानानुभव के प्रसाद से विवश हो गया है, विषयों में नहीं लग सकता अब। अब अन्य बातों की तो कथा छोड़ो, अपने आप में उदित ज्ञान के विशेषों को भी गौण कर रहा है। जैसे दौड़ता हुआ पुरुष जिस जमीन पर से दौड़ रहा है उस जमीन को नहीं निरखता है, उस जमीन से गुजर रहा है, निरख रहा है किसी अन्य लक्ष्य को। ऐसे ही यह ज्ञानी इस ज्ञान के ज्ञान से गुजर रहा है, पर जो ज्ञान विशेष है, ज्ञेयाकार है उस ज्ञेयाकार को नहीं ग्रहण कर रहा है, एक निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप को ग्रहण कर रहा है। उसके ज्ञान की एकता होने से जो एक विशुद्ध आनंद जगता है उसके आगे सब रस फीके हो जाते हैं।
औपाधिक भाव परिणत वस्तु में भी सहजस्वरूप का भान―भैया ! दर्पण मे दर्पण की स्वच्छता भी है, और दुनिया के जो भी सामने पदार्थ है, उनका प्रतिबिंब भी हे। जो विवेकी होगा वह तो प्रतिबिंबित दर्पण में भी स्वच्छता का भान कर सकता है। न होती स्वच्छता तो यह प्रतिबिंब भी कहाँ से होता, किंतु विवेकी पुरुष जिस दर्पण में पूरा ही प्रतिबिंब पड़ा हुआ है, किसी कोने में भी स्वच्छता नजर आती है, इसको तो वह दर्पण का स्वरूप नहीं मानता। ऐसे ही यह ज्ञानी ज्ञेयाकार की निरंतरता होने पर भी ज्ञान की स्वच्छता निहारता है। इस ज्ञान में स्वच्छता शक्ति है और यह ज्ञान कभी भी ज्ञेयो को जाने बिना नहीं रहता है। अब उन ज्ञेयाकारों से, विकल्पों से, आकार ग्रहण से परिणत हुए उस ज्ञानस्वरूप में ज्ञान की स्वच्छता जो निहार सके उसे ही तो ज्ञानी कहते हैं। न होती वह शाश्वत स्वच्छता तो यह ज्ञेय विकल्प ही कहाँ से बन पाता? जब इन ज्ञेय विकल्पो को ग्रहण नहीं किया, केवल ज्ञान को ग्रहण किया तो इसी का अर्थ यह है कि ऐसा सामान्य आकार बना कि वह ज्ञान गुण में समा गया है पृथक नहीं मालूम होता ।
ज्ञानी का ज्ञान की और झुकाव―जैसे मानो जब दर्पण के सामने कोई वस्तु न रक्खी हो तो दर्पण अपने आप में अपने आकार को अपने आप में समा लेता है, वहाँ पर भी स्वच्छता खाली नहीं रह सकती। वह कुछ न कुछ काम करता है। अपने ही आकार को अपनी ही स्वच्छता में झलका कर बना रहता है, पर स्वच्छता का कार्य न हो तो स्वच्छता का अभाव हो जायगा। ऐसे ही अध्यात्मयोगी संत ज्ञानी पुरुष ज्ञानाकार को ज्ञान द्वारा ग्रहण करके एकमेक समाकर विश्रांत और शांत रहते हैं,उस समय का जो आनंद है उसको जो प्राप्त कर लेता है उसे कोई व्यवहार में घर का उत्तरदायी होने के कारण अथवा किन्ही परिस्थितियों में बाह्य कामों में लगना पड़े तो उसे बड़ा अनुताप होता है, वह खेद मानता है। इस प्रकार यहाँ तक के वर्णन से हमें यह शिक्षा लेना है कि हम केवल घर गृहस्थी विषय धन संपदा सुख लौकिक बातें इनके लिए अपना जीवन न माँगें, ये सब नष्ट हो जाने वाली चीजें है, दुर्लभ मनुष्य जीवन से जीकर कोई अलौकिक तत्त्वज्ञान का आनंद प्राप्त कर लिया जाय तो वह ही परम विवेक है। यहाँ क्या है, धन कम पाया या ज्यादा पाया, तो उससे क्या हो गया? आनंद शांति तो ज्ञान के अनुरूप होती है, बाह्य धन संपदा के अनुरूप नहीं होती है।
संबंध का धर्म संबंध में परिवर्तन―भैया ! ज्ञानार्जन का मन में आशय रक्खे। इस ज्ञान की साधना के लिए अपना तन, मन, वचन, धन सर्वस्व न्यौछावर करके भी यदि कुछ ज्ञानप्रकाश पा लिया तो जीवन सफल माने और घर के जिन लोगो से संबंध है उनको यह समझावो, इस संबंध को वैषयिक विषयों में न ढालकर इस मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्धति में बसा लो। मित्रता यह भी कहलायी और मित्रता वहाँ भी कहलायी। इस संबंध और मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्धति में बदल दो। ऐसा संबंध बन सका तो यह असंबंध का उत्साह देने वाला संबंध रहा। यह सब हमें किस प्रकार मिले सो पूजन करके रोज पढ़ लेते हैं। 7 चीजें रोज माँगते हो। शास्त्रों का अभ्यासचले, सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की भक्ति रहे, सदा सज्जन पुरुषों के साथ संगति रहे, गुणी पुरुषों के गुण कहने में समय जाय, दूसरों के दोष कहने के लिए गूँगा बन जाये, और वचन कुछ भी कभी बोलने पड़े तो सबको प्रिय हो और हितकारी हो। निरंतर यह ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व ही हितरूप है ऐसी भावना रक्खे। तो इन कर्तव्यों के प्रसाद से नियम से अलौकिक तत्त्व और आनंद प्रकट होगा।