इष्टोपदेश - श्लोक 50: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।</strong></p> | ||
< | <p><strong>यदन्यदुच्यते किंचत्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः।।50।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>संक्षिप्त तत्त्वसंग्रह</strong>―ग्रंथ समाप्ति से पहिले द्विचरम श्लोक में यह बताया जा रहा है कि समस्त प्रतिपादित वर्णनों का सारभूत तत्त्व क्या है? हमें यह पूर्ण ग्रंथ सुनने पर शिक्षा लेने योग्य बात कितनी ग्रहण करनी है, यह जानना है, वही कहा जा रहा है कि जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है। इतना ही मात्र तत्त्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ कहा जाता है वह सब इसी तत्त्व का विस्तार है।</p> | ||
<p | <p><strong>मूल में सत्स्वरूपता</strong>―मूल में तत्त्व सन्मात्र कहा गया है। जो है वह तत्त्व है, इस दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे समस्त पदार्थ सत्रूप है और इस ही दृष्टि को लेकर अद्वैतवादों की उत्पत्ति होती है। कोई तत्त्व को केवल एक सद्ब्रह्म मानते हैं,कोई तत्त्व को केवल शून्य मात्र मानते हैं,कोई ज्ञानमात्र, कोई चित्रोद्वैतरूप। नाना प्रकार के इन अद्वैतवादों की एक इस सद्भाव से उत्पत्ति हुई है, और इस स्थिति से देखो तो कोई भी पदार्थ हो, प्रत्येक पदार्थ है, है की अपेक्षा सब समान है। जैसे मनुष्य की अपेक्षा बाल, जवान, बूढ़ा किसी भी जाति कुलका, देश का हो सबका संग्रह हो जाता है और जीव की अपेक्षा से मनुष्य हो, पशु हो, कीट हो सबका संग्रह हो जाता है और सत् की अपेक्षा जीव हो अथवा दिखने वाले ये चौकी, भीत आदि अजीव हो सबका संग्रह हो जाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>विशेष से अर्थक्रिया की सिद्धि</strong>―सत् की दृष्टि समस्त अर्थों के समान होने पर भी अर्थ क्रिया की बात देखना आवश्यक है। काम करने की बात है, प्रत्येक पदार्थ है और वे सब कुछ न कुछ काम कर रहे हैं,उनमें ही परिणमन हो रहा है। और इस अर्थक्रिया की दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे सब एक अपने-अपने स्वरूप में अपना एकत्व लिए हुए है। जैसे गौ जाति और न्यारी-न्यारी गौयें। गऊ जाति से दूध नही निकलता किंतु जो व्यक्तिगत गौ है उससे दूध निकलता है। जाति तो काम करने वाले अर्थक्रिया से परिणमने वाले, पदार्थ के संग्रह करने वाले धर्म का नाम है। जो ऐसी-ऐसी अनेक गौयें है। उनका संग्रह गौ जाति में होता है। तो वास्तव में पदार्थ अनंतानंत तो जीव है, अनंतानंत पुद्गल है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य है। उन सबका सत्त्व धर्म से संग्रह हो जाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>जीव और पुद्गलों की अनंतता</strong>―जीवद्रव्य अनंत है, इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक जीव अपने में अपना ही परिणमन करता है। एक परिणमन जितने में समाये और जितने से बाहर कभी न जाय उसको एक पदार्थ बोला करते हैं। जैसे मेरा सुख-दुःख मेरी कल्पना आदिक रूप परिणमन जितने में अनुभूत होता है। और जिससे बाहर होता ही नही है उसको हम एक कहेंगे। यह मैं एक हूं, ऐसे ही आपका सुख दुःख रागद्वेष समस्त अनुभव आप में ही परिसमाप्त होते हैं सो आप एक है। इस प्रकार एक-एक करके अनंत जीव है, लेकिन सभी जीवों का मूल स्वरूप एक समान है। अतः सब जीव एक जीव जाति में अंतर्निहित हो जाते हैं। पुद्गल भी अनंत है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाए, उसे पुद्गल शब्द में यह अर्थ भरा है―पुद् मायने जो पूरे और गल मायने जो गले। जहाँ मिल-जुल कर एक बड़ा रूप बन सके और बिखर बिखरकर हल्के क्षीण रूप हो जायें उनको पुद्गल कहते हैं। ये रूप, रस, गंध, स्पर्श, गुण के पिंड रूप जो इंद्रिय द्वारा ज्ञान में आते हैं वे सब पुद्गल है।</p> | ||
<p | <p><strong>अचेतन अमूर्त द्रव्यों की प्रसिद्धि</strong>―धर्मद्रव्य एक ही पदार्थ है। जो ईथर, सूक्ष्म समस्त आकाश में नही किंतु केवल लोकाकाश में व्याप्त है वह जीव व पुद्गल के चलने के समय निमित्तभूत होता है। जैसे मछली को चलाने में जल निमित्तमात्र है। जल मछली को जबरदस्ती नही चलाता किंतु जल के अभाव में मछली नही चल पाती है। मछली के चलाने में जल भी निमित्त है, इसी प्रकार व्याप्त यह धर्मद्रव्य हम आपको जबरदस्ती नही चलाता, किंतु हम आप जब चलने का यत्न करते हैं तो धर्मद्रव्य एक निमित्तरूप होता है। इसी प्रकार चलकर ठहरने में निमित्तभूत अधर्मद्रव्य है। वह भी एक है। आकाश के बारे में यद्यपि वह अमूर्त है, इस धर्म आदिक की तरह अरूपी है फिर भी लोगों के दिमाग में आकाश के संबंध में बड़ी जानकारी बनी रहती है। यह ही तो है आकाश जो पोल है और हाथ फैलाकर बता देते हैं। है वह भी अमूर्त, न हाथ से बताया जा सकता और न दिखाया जा सकता और इस लोक में एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है जिस पर स्थित हुए समस्त द्रव्यों की वर्तना में जो कारण है।</p> | ||
<p | <p><strong>जीवगत क्षोभ व उसके विनाश के लिए निज ध्रुव तत्त्व के आश्रय की आवश्यकता</strong>―इन सब द्रव्यों में से केवल जीव और पुद्गल ही विभावरूप परिणम सकते हैं। हम आप जीवों को क्षोभ लगे है तो इस पुद्गल के संबंध से धन, संपदा, घर, मकान, शरीर, ये कुटुंबी जन इनको देखकर न कहना, ये तो निमित्तभूत कार्माण पुद्गल के नोकर्म है, आश्रयभूत है। जो यह सब दृश्यमान है उसको देखकर इन सबके झंझट कल्पना में आते हैं,जो रात दिन परेशान किए रहते हैं इस जीव को। तो जीव का हित इसमें है कि वह झंझटों से मुक्त हो। झंझटों से मुक्त तब ही हो सकता है जब इसको कोई ध्रुव आश्रय मिले। जितने भी ये बाह्य पदार्थ है जिनका यह मोही जीव आश्रय किए रहता है वे सब अध्रुव है। जैसे चलते हुए मुसाफिरको रास्ते में पेड़ मिलते हैं तो पेड़ निकलते जाते हैं,उन पेड़ों से मुसाफिर को मोहब्बत नही होती है, उनको देखकर निकल जाता है, ऐसे ही यात्रा करते हुए हम आप सब जीवों को ये समागम थोड़ी देर को मिलते हैं,निकलते जाते हैं,इन अध्रुव पदार्थों के प्रीति करने में हित नही है। जिनको अपने ध्रुव तत्त्व का परिचय नही है वे आश्रय लेंगे अध्रुव का।</p> | ||
<p | <p><strong>देहदेवालयस्थ देव के शुद्ध परिचय की शक्यता</strong>―इन पुद्गलों से भिन्न मैं हूं, ऐसा समझने के लिए स्वरूप जानना होगा, यह मै जीव चेतन हूं और ये पुद्गल अचेतन है, इनसे मैं न्यारा हूं। शरीर में बँधा होकर भी यह जीव अपने स्वरूप को पहिचान ले, इसमें क्या कुछ अनुमान प्रमाण भी हो सकता है? हाँ है। जब हम आप किसी एंकात में बैठ जाते हैं तो वहाँ केवल एक प्रकार की कल्पना-कल्पना में ही उपयोग बसा रहता है। उस समय यह भी स्मरण नही रहता कि मेरा देह है, मेरा घर है। केवल एक कल्पना ही रहा करती है। कोई काम धुनिपूर्वक कर रहे हो, उसमें किसी तत्त्व की धुन लगी हो तो अपने शरीर का भी भान नही रहता है। कोई एक तत्त्व ज्ञान में रहता है। अब तो जाननहार तत्त्व है उस ही का स्वरूप कोई जानने में लग जाये, ऐसी धुन बने तो उसे इस देह का भी भान नही रहता है, जिस पर दृष्टि हो उसका ही स्वाद आता है चाहे कही बस रहे हो, जहाँ दृष्टि होगी अनुभव उसका ही होगा।</p> | ||
<p | <p><strong>दृष्टि के अनुसार स्वाद</strong>―एक छोटी सी कथानक है―किसी समय सभा में बैठे हुए बादशाह ने बीरबल से मजाक किया बीरबल को नीचा दिखाने के लिए। बीरबल! आज हमें ऐसा स्वप्न आया है कि हम और तुम दोनो घूमनें जा रहे थे। रास्ते में दो गड्ढे मिले, एक में शक्कर भरी थी और एक में गोबर, मल आदि गंदी चीजें भरी थी। सो में तो गिर गया शक्कर के गड्ढे में और तुम गिर गये मल के गड्ढे में। बीरबल बोला―हजूर ऐसा ही स्वप्न हमें भी आया। न जाने हम और आपका कैसा घनिष्ट संबंध है कि जो आप देखते स्वप्न में सो ही मैं देखता। सो मैंने स्वप्न में देखा कि हम और तुम दोनों घूमने जा रहे थे, रास्ते में दो गड्ढे मिले। एक था शक्कर का गड्ढ़ा और एक था मल, गोबर आदि का गड्ढा। शक्कर के गड्ढे में तो आप गिर गये और मै गोबर मल के गड्ढे में गिर गया, पर इसके बाद थोड़ा और देखा कि आप हमको चाट रहे थे और आप हमको चाट रहे थे। अब देखो― बादशाह को क्या चटाया ? गोबर, मल आदि, और स्वंय ने क्या चाटा? शक्कर। तो कहाँ हम पड़े है, कहा विराजे है, इसका ख्याल न करना, किंतु जहाँ दृष्टि लगी है उस पर निगाह करना। स्वाद उसी का आयगा जहाँ पर दृष्टि लगी है। यह ज्ञानी गृहस्थ अनेक झंझटों में फंसा है, घर में है, कितना उत्तरदायित्व है ऐसी स्थिति में रहकर भी उसकी दृष्टि वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर है। अपने सहज ज्ञानस्वरूप का भान है, उस और कभी दृष्टि हुई थी। उसका स्मरण है तो उसको अनुभव और स्वाद परमपदार्थ का आ रहा है।</p> | ||
<p | <p><strong>श्रद्धाभेद से फलभेद</strong>―कोई पुरुष बड़ी विद्याएँ सीख जाए, अनेक भाषाएँ जान जाय, और ग्रंथों का विषय भी खूब याद कर ले, लेकिन एक सहजस्वरूप का भान न कर सके और अपनी प्रकट कलावों द्वारा विषयों के पोषण में ही लगा रहे तो बतलावों कि ऐसे जानकारो के द्वारा स्वाद किसका लिया गया? विषयों का, और एक न कुछ भी जानता हो और स्थिति भी कैसी हो विचित्र हो, किंतु भान हो जाय निज सहजस्वरूप का तो स्वाद लेगा अंतस्तत्त्व का आनंद का। भैया ! श्रद्धा बहुत मौलिक साधन है। हो सकता है कि पशु पक्षी, गाय, बैल, भैस, सूवर, गधा, नेवला, बंदर आदि ये अंतस्तत्त्व का स्वाद कर लें अर्थात् ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर ले, इस ज्ञानशक्ति का प्रत्यय करलें―मैं ज्ञानानंदमात्र हूं। जो जिस से बोल भी नही सकते, जिनकी कोई व्यक्ति भी नही हो पाती है। कहो उन जीवों में से कोई निज सहजस्वरूप का भान कर ले और बहुत विद्यावों को पढ़कर भी न कर सके तो अंतर एक श्रद्धा की पद्धति का रहा। सप्तम नरक का नारकी जीव तो सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है और भोग विषयों में आसक्त जीव मनुष्य है और बड़ी प्रतिष्ठा, यश अनेक बातें हो, पर विषयों का व्यामोही पुरुष इस सम्यक्त्व का अनुभव नही कर सकता है। श्रद्धा एक मौलिक साधन है उन्नति के पथ में बढ़ने का।</p> | ||
<p | <p><strong>पार्थक्य प्रतिबोध</strong>―यहाँ इतना ही समझना है संक्षेपरूप में कि जीव जुदे हैं पुद्गल जुदे हे। ये सामने दो अंगुली है, ये दोनों अंगुली जुदी-जुदी है क्योंकि यह अनामिका अंगुली मध्यमा रूप नही हो सकती और मध्यमा अंगुली अनामिका अंगुली रूप नही हो सकती। इस कारण हम जानते हैं कि ये दो अंगुलियाँ जुदी-जुदी है। ऐसे ही ये दो मनुष्य जुदे-जुदे है क्योंकि यह एक मनुष्य दूसरे मनुष्यरूप नही हो पाता और यह दूसरा मनुष्य इस मनुष्य रूप नही हो पाता यही तो भिन्नता समझने का साधन है। तो ये समस्त पुद्गल प्रसंग जिनके व्यामोह में विपत्ति और विडंबना रहती है, ये अचेतन है और यह मै जीव चेतन हूं। इस प्रकार का उनका आसाधारणस्वरूप जानना, बस यही एक हेय पदार्थ से अलग होकर उपादेय पदार्थ में लगने का साधन है। इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसका विस्तार है। सात तत्त्व जीव पुद्गल के विस्तार है, तीन लोक का वर्णन यह जीव पुद्गल का विस्तार है। सर्वत्र जानना इतना है कि यह मैं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा जुदा हूं और ये देहादिक पुद्गल मुझसे जुदे है।</p> | ||
<p | <p><strong>यथार्थ प्रतिबोध के बिना शांति का अनुपाय</strong>―भैया! शांति यथार्थ ज्ञान बिना नही मिल सकती, चाहे कैसा ही कुटुंब मिले, कितनी ही धन संपदा मिले, पर अपना ज्ञानानंद स्वभाव यह मैं हूं ऐसी प्रतिति के बिना संतोष हो ही नही सकता। कहाँ संतोष करोगे?</p> | ||
<p | <p><strong>तृष्णा के फेर में अशांति</strong>―एक सेठ जी एक बढ़ई ये दोनो पास-पास के घर में रहते थे। बढ़ई दो रुपये रोज कमाता था और सब खर्च करके खूब खाता पीता था और सेठ सैकड़ों रुपयों कमाता था और दाल रोटी का ही रोज-रोज उसके यहाँ भोजन होता था। सेठानी सेठजी से कहती है कि यह गरीब तो राज पकवान खाता है और आपके घर में दाल रोटी ही बनती है तो सेठ जी बोले कि अभी तू भोली है, जानती नही है यह बंढ़ई अभी निन्यानवे के फेर मे नही पड़ा है। निन्यानवे का फेर कैसा? सेठ जी एक थैली में 99 रुपये रखकर रात्रि को बढ़ई के घर में डाल दिये। सोचा कि एक बार 99 रुपये जाये तो जाये, सदा के लिए झंझट तो मिटे, घर की लड़ाई तो मिटे। बढ़ई ने सुबह थैली देखी तो बड़ा खुश हुआ। गिनने लगा रुपये―एक दो, 10, 20, 50, 70, 80, 90, 98, और 99। अरे भगवान ने सुनी तो खूब है मगर एक रुपया काट लिया। कुछ हर्ज नही, हम आज के दिन आधा ही खर्च करेंगे, 1 रुपये उसमें मिला देंगे तो 100) हो जायेंगे। मिला दिया। अब 100) हो गये। सोचा कि हमारा पड़ौसी तो हजारपति है उसको बहुत सुख है, अब वह जोड़ने के चक्कर में पड़ गया। सो हजार जोड़ने की चिंता लग गई। अब तो वह दो रुपये कमाए तो चार आने में ही खाने पीने का खर्चा चला ले। अब जब हालत हो गयी तो सेठ कहता है सेठानी से कि देख अब बढ़ई के यहां क्या हो रहा है? तो सेठानी ने बताया कि अब तो वहाँ बड़ा बुरा हाल है। बस यही तो है निन्यानवे का फेर।</p> | ||
<p | <p><strong>शांति का स्थान</strong>―यह अनुमान तो कर लो कि कहाँ शांति मिलेगी? निर्लेप आकिंचन्य ज्ञानानंदस्वरूपमात्र मैं हूं, मेरा कही कुछ नही है, ऐसा अनुभव करने में ही शांति मिलेगी, अन्यत्र नही। इसलिए कहा है कि तत्त्व का संग्रह इतना ही है। पुद्गल जुदे है और मैं इस पुद्गल से जुदा हूं।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यते किंचत्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः।।50।।
संक्षिप्त तत्त्वसंग्रह―ग्रंथ समाप्ति से पहिले द्विचरम श्लोक में यह बताया जा रहा है कि समस्त प्रतिपादित वर्णनों का सारभूत तत्त्व क्या है? हमें यह पूर्ण ग्रंथ सुनने पर शिक्षा लेने योग्य बात कितनी ग्रहण करनी है, यह जानना है, वही कहा जा रहा है कि जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है। इतना ही मात्र तत्त्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ कहा जाता है वह सब इसी तत्त्व का विस्तार है।
मूल में सत्स्वरूपता―मूल में तत्त्व सन्मात्र कहा गया है। जो है वह तत्त्व है, इस दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे समस्त पदार्थ सत्रूप है और इस ही दृष्टि को लेकर अद्वैतवादों की उत्पत्ति होती है। कोई तत्त्व को केवल एक सद्ब्रह्म मानते हैं,कोई तत्त्व को केवल शून्य मात्र मानते हैं,कोई ज्ञानमात्र, कोई चित्रोद्वैतरूप। नाना प्रकार के इन अद्वैतवादों की एक इस सद्भाव से उत्पत्ति हुई है, और इस स्थिति से देखो तो कोई भी पदार्थ हो, प्रत्येक पदार्थ है, है की अपेक्षा सब समान है। जैसे मनुष्य की अपेक्षा बाल, जवान, बूढ़ा किसी भी जाति कुलका, देश का हो सबका संग्रह हो जाता है और जीव की अपेक्षा से मनुष्य हो, पशु हो, कीट हो सबका संग्रह हो जाता है और सत् की अपेक्षा जीव हो अथवा दिखने वाले ये चौकी, भीत आदि अजीव हो सबका संग्रह हो जाता है।
विशेष से अर्थक्रिया की सिद्धि―सत् की दृष्टि समस्त अर्थों के समान होने पर भी अर्थ क्रिया की बात देखना आवश्यक है। काम करने की बात है, प्रत्येक पदार्थ है और वे सब कुछ न कुछ काम कर रहे हैं,उनमें ही परिणमन हो रहा है। और इस अर्थक्रिया की दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे सब एक अपने-अपने स्वरूप में अपना एकत्व लिए हुए है। जैसे गौ जाति और न्यारी-न्यारी गौयें। गऊ जाति से दूध नही निकलता किंतु जो व्यक्तिगत गौ है उससे दूध निकलता है। जाति तो काम करने वाले अर्थक्रिया से परिणमने वाले, पदार्थ के संग्रह करने वाले धर्म का नाम है। जो ऐसी-ऐसी अनेक गौयें है। उनका संग्रह गौ जाति में होता है। तो वास्तव में पदार्थ अनंतानंत तो जीव है, अनंतानंत पुद्गल है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य है। उन सबका सत्त्व धर्म से संग्रह हो जाता है।
जीव और पुद्गलों की अनंतता―जीवद्रव्य अनंत है, इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक जीव अपने में अपना ही परिणमन करता है। एक परिणमन जितने में समाये और जितने से बाहर कभी न जाय उसको एक पदार्थ बोला करते हैं। जैसे मेरा सुख-दुःख मेरी कल्पना आदिक रूप परिणमन जितने में अनुभूत होता है। और जिससे बाहर होता ही नही है उसको हम एक कहेंगे। यह मैं एक हूं, ऐसे ही आपका सुख दुःख रागद्वेष समस्त अनुभव आप में ही परिसमाप्त होते हैं सो आप एक है। इस प्रकार एक-एक करके अनंत जीव है, लेकिन सभी जीवों का मूल स्वरूप एक समान है। अतः सब जीव एक जीव जाति में अंतर्निहित हो जाते हैं। पुद्गल भी अनंत है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाए, उसे पुद्गल शब्द में यह अर्थ भरा है―पुद् मायने जो पूरे और गल मायने जो गले। जहाँ मिल-जुल कर एक बड़ा रूप बन सके और बिखर बिखरकर हल्के क्षीण रूप हो जायें उनको पुद्गल कहते हैं। ये रूप, रस, गंध, स्पर्श, गुण के पिंड रूप जो इंद्रिय द्वारा ज्ञान में आते हैं वे सब पुद्गल है।
अचेतन अमूर्त द्रव्यों की प्रसिद्धि―धर्मद्रव्य एक ही पदार्थ है। जो ईथर, सूक्ष्म समस्त आकाश में नही किंतु केवल लोकाकाश में व्याप्त है वह जीव व पुद्गल के चलने के समय निमित्तभूत होता है। जैसे मछली को चलाने में जल निमित्तमात्र है। जल मछली को जबरदस्ती नही चलाता किंतु जल के अभाव में मछली नही चल पाती है। मछली के चलाने में जल भी निमित्त है, इसी प्रकार व्याप्त यह धर्मद्रव्य हम आपको जबरदस्ती नही चलाता, किंतु हम आप जब चलने का यत्न करते हैं तो धर्मद्रव्य एक निमित्तरूप होता है। इसी प्रकार चलकर ठहरने में निमित्तभूत अधर्मद्रव्य है। वह भी एक है। आकाश के बारे में यद्यपि वह अमूर्त है, इस धर्म आदिक की तरह अरूपी है फिर भी लोगों के दिमाग में आकाश के संबंध में बड़ी जानकारी बनी रहती है। यह ही तो है आकाश जो पोल है और हाथ फैलाकर बता देते हैं। है वह भी अमूर्त, न हाथ से बताया जा सकता और न दिखाया जा सकता और इस लोक में एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है जिस पर स्थित हुए समस्त द्रव्यों की वर्तना में जो कारण है।
जीवगत क्षोभ व उसके विनाश के लिए निज ध्रुव तत्त्व के आश्रय की आवश्यकता―इन सब द्रव्यों में से केवल जीव और पुद्गल ही विभावरूप परिणम सकते हैं। हम आप जीवों को क्षोभ लगे है तो इस पुद्गल के संबंध से धन, संपदा, घर, मकान, शरीर, ये कुटुंबी जन इनको देखकर न कहना, ये तो निमित्तभूत कार्माण पुद्गल के नोकर्म है, आश्रयभूत है। जो यह सब दृश्यमान है उसको देखकर इन सबके झंझट कल्पना में आते हैं,जो रात दिन परेशान किए रहते हैं इस जीव को। तो जीव का हित इसमें है कि वह झंझटों से मुक्त हो। झंझटों से मुक्त तब ही हो सकता है जब इसको कोई ध्रुव आश्रय मिले। जितने भी ये बाह्य पदार्थ है जिनका यह मोही जीव आश्रय किए रहता है वे सब अध्रुव है। जैसे चलते हुए मुसाफिरको रास्ते में पेड़ मिलते हैं तो पेड़ निकलते जाते हैं,उन पेड़ों से मुसाफिर को मोहब्बत नही होती है, उनको देखकर निकल जाता है, ऐसे ही यात्रा करते हुए हम आप सब जीवों को ये समागम थोड़ी देर को मिलते हैं,निकलते जाते हैं,इन अध्रुव पदार्थों के प्रीति करने में हित नही है। जिनको अपने ध्रुव तत्त्व का परिचय नही है वे आश्रय लेंगे अध्रुव का।
देहदेवालयस्थ देव के शुद्ध परिचय की शक्यता―इन पुद्गलों से भिन्न मैं हूं, ऐसा समझने के लिए स्वरूप जानना होगा, यह मै जीव चेतन हूं और ये पुद्गल अचेतन है, इनसे मैं न्यारा हूं। शरीर में बँधा होकर भी यह जीव अपने स्वरूप को पहिचान ले, इसमें क्या कुछ अनुमान प्रमाण भी हो सकता है? हाँ है। जब हम आप किसी एंकात में बैठ जाते हैं तो वहाँ केवल एक प्रकार की कल्पना-कल्पना में ही उपयोग बसा रहता है। उस समय यह भी स्मरण नही रहता कि मेरा देह है, मेरा घर है। केवल एक कल्पना ही रहा करती है। कोई काम धुनिपूर्वक कर रहे हो, उसमें किसी तत्त्व की धुन लगी हो तो अपने शरीर का भी भान नही रहता है। कोई एक तत्त्व ज्ञान में रहता है। अब तो जाननहार तत्त्व है उस ही का स्वरूप कोई जानने में लग जाये, ऐसी धुन बने तो उसे इस देह का भी भान नही रहता है, जिस पर दृष्टि हो उसका ही स्वाद आता है चाहे कही बस रहे हो, जहाँ दृष्टि होगी अनुभव उसका ही होगा।
दृष्टि के अनुसार स्वाद―एक छोटी सी कथानक है―किसी समय सभा में बैठे हुए बादशाह ने बीरबल से मजाक किया बीरबल को नीचा दिखाने के लिए। बीरबल! आज हमें ऐसा स्वप्न आया है कि हम और तुम दोनो घूमनें जा रहे थे। रास्ते में दो गड्ढे मिले, एक में शक्कर भरी थी और एक में गोबर, मल आदि गंदी चीजें भरी थी। सो में तो गिर गया शक्कर के गड्ढे में और तुम गिर गये मल के गड्ढे में। बीरबल बोला―हजूर ऐसा ही स्वप्न हमें भी आया। न जाने हम और आपका कैसा घनिष्ट संबंध है कि जो आप देखते स्वप्न में सो ही मैं देखता। सो मैंने स्वप्न में देखा कि हम और तुम दोनों घूमने जा रहे थे, रास्ते में दो गड्ढे मिले। एक था शक्कर का गड्ढ़ा और एक था मल, गोबर आदि का गड्ढा। शक्कर के गड्ढे में तो आप गिर गये और मै गोबर मल के गड्ढे में गिर गया, पर इसके बाद थोड़ा और देखा कि आप हमको चाट रहे थे और आप हमको चाट रहे थे। अब देखो― बादशाह को क्या चटाया ? गोबर, मल आदि, और स्वंय ने क्या चाटा? शक्कर। तो कहाँ हम पड़े है, कहा विराजे है, इसका ख्याल न करना, किंतु जहाँ दृष्टि लगी है उस पर निगाह करना। स्वाद उसी का आयगा जहाँ पर दृष्टि लगी है। यह ज्ञानी गृहस्थ अनेक झंझटों में फंसा है, घर में है, कितना उत्तरदायित्व है ऐसी स्थिति में रहकर भी उसकी दृष्टि वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर है। अपने सहज ज्ञानस्वरूप का भान है, उस और कभी दृष्टि हुई थी। उसका स्मरण है तो उसको अनुभव और स्वाद परमपदार्थ का आ रहा है।
श्रद्धाभेद से फलभेद―कोई पुरुष बड़ी विद्याएँ सीख जाए, अनेक भाषाएँ जान जाय, और ग्रंथों का विषय भी खूब याद कर ले, लेकिन एक सहजस्वरूप का भान न कर सके और अपनी प्रकट कलावों द्वारा विषयों के पोषण में ही लगा रहे तो बतलावों कि ऐसे जानकारो के द्वारा स्वाद किसका लिया गया? विषयों का, और एक न कुछ भी जानता हो और स्थिति भी कैसी हो विचित्र हो, किंतु भान हो जाय निज सहजस्वरूप का तो स्वाद लेगा अंतस्तत्त्व का आनंद का। भैया ! श्रद्धा बहुत मौलिक साधन है। हो सकता है कि पशु पक्षी, गाय, बैल, भैस, सूवर, गधा, नेवला, बंदर आदि ये अंतस्तत्त्व का स्वाद कर लें अर्थात् ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर ले, इस ज्ञानशक्ति का प्रत्यय करलें―मैं ज्ञानानंदमात्र हूं। जो जिस से बोल भी नही सकते, जिनकी कोई व्यक्ति भी नही हो पाती है। कहो उन जीवों में से कोई निज सहजस्वरूप का भान कर ले और बहुत विद्यावों को पढ़कर भी न कर सके तो अंतर एक श्रद्धा की पद्धति का रहा। सप्तम नरक का नारकी जीव तो सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है और भोग विषयों में आसक्त जीव मनुष्य है और बड़ी प्रतिष्ठा, यश अनेक बातें हो, पर विषयों का व्यामोही पुरुष इस सम्यक्त्व का अनुभव नही कर सकता है। श्रद्धा एक मौलिक साधन है उन्नति के पथ में बढ़ने का।
पार्थक्य प्रतिबोध―यहाँ इतना ही समझना है संक्षेपरूप में कि जीव जुदे हैं पुद्गल जुदे हे। ये सामने दो अंगुली है, ये दोनों अंगुली जुदी-जुदी है क्योंकि यह अनामिका अंगुली मध्यमा रूप नही हो सकती और मध्यमा अंगुली अनामिका अंगुली रूप नही हो सकती। इस कारण हम जानते हैं कि ये दो अंगुलियाँ जुदी-जुदी है। ऐसे ही ये दो मनुष्य जुदे-जुदे है क्योंकि यह एक मनुष्य दूसरे मनुष्यरूप नही हो पाता और यह दूसरा मनुष्य इस मनुष्य रूप नही हो पाता यही तो भिन्नता समझने का साधन है। तो ये समस्त पुद्गल प्रसंग जिनके व्यामोह में विपत्ति और विडंबना रहती है, ये अचेतन है और यह मै जीव चेतन हूं। इस प्रकार का उनका आसाधारणस्वरूप जानना, बस यही एक हेय पदार्थ से अलग होकर उपादेय पदार्थ में लगने का साधन है। इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसका विस्तार है। सात तत्त्व जीव पुद्गल के विस्तार है, तीन लोक का वर्णन यह जीव पुद्गल का विस्तार है। सर्वत्र जानना इतना है कि यह मैं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा जुदा हूं और ये देहादिक पुद्गल मुझसे जुदे है।
यथार्थ प्रतिबोध के बिना शांति का अनुपाय―भैया! शांति यथार्थ ज्ञान बिना नही मिल सकती, चाहे कैसा ही कुटुंब मिले, कितनी ही धन संपदा मिले, पर अपना ज्ञानानंद स्वभाव यह मैं हूं ऐसी प्रतिति के बिना संतोष हो ही नही सकता। कहाँ संतोष करोगे?
तृष्णा के फेर में अशांति―एक सेठ जी एक बढ़ई ये दोनो पास-पास के घर में रहते थे। बढ़ई दो रुपये रोज कमाता था और सब खर्च करके खूब खाता पीता था और सेठ सैकड़ों रुपयों कमाता था और दाल रोटी का ही रोज-रोज उसके यहाँ भोजन होता था। सेठानी सेठजी से कहती है कि यह गरीब तो राज पकवान खाता है और आपके घर में दाल रोटी ही बनती है तो सेठ जी बोले कि अभी तू भोली है, जानती नही है यह बंढ़ई अभी निन्यानवे के फेर मे नही पड़ा है। निन्यानवे का फेर कैसा? सेठ जी एक थैली में 99 रुपये रखकर रात्रि को बढ़ई के घर में डाल दिये। सोचा कि एक बार 99 रुपये जाये तो जाये, सदा के लिए झंझट तो मिटे, घर की लड़ाई तो मिटे। बढ़ई ने सुबह थैली देखी तो बड़ा खुश हुआ। गिनने लगा रुपये―एक दो, 10, 20, 50, 70, 80, 90, 98, और 99। अरे भगवान ने सुनी तो खूब है मगर एक रुपया काट लिया। कुछ हर्ज नही, हम आज के दिन आधा ही खर्च करेंगे, 1 रुपये उसमें मिला देंगे तो 100) हो जायेंगे। मिला दिया। अब 100) हो गये। सोचा कि हमारा पड़ौसी तो हजारपति है उसको बहुत सुख है, अब वह जोड़ने के चक्कर में पड़ गया। सो हजार जोड़ने की चिंता लग गई। अब तो वह दो रुपये कमाए तो चार आने में ही खाने पीने का खर्चा चला ले। अब जब हालत हो गयी तो सेठ कहता है सेठानी से कि देख अब बढ़ई के यहां क्या हो रहा है? तो सेठानी ने बताया कि अब तो वहाँ बड़ा बुरा हाल है। बस यही तो है निन्यानवे का फेर।
शांति का स्थान―यह अनुमान तो कर लो कि कहाँ शांति मिलेगी? निर्लेप आकिंचन्य ज्ञानानंदस्वरूपमात्र मैं हूं, मेरा कही कुछ नही है, ऐसा अनुभव करने में ही शांति मिलेगी, अन्यत्र नही। इसलिए कहा है कि तत्त्व का संग्रह इतना ही है। पुद्गल जुदे है और मैं इस पुद्गल से जुदा हूं।