चारित्रपाहुड - गाथा 19: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ।
णियगुणसाराहंतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ।।19।।
(62) मोहरहित जीव के रत्नत्रय के भाव―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन भाव मोहरहित जीव के होते हैं । सम्यग्दर्शन नाम है अविकार सहज चैतन्यस्वरूप का हितरूप में श्रद्धा । सीधी एक दृष्टि बने उसमें सर्व सिद्धि है । और जो आचरण चाहिए मोक्षमार्ग के लिए जो उपयोगिता चाहिए वह सबकी सब सहज होती है । केवल एक यह दृष्टि चाहिए कि मैं अविकार चैतन्यस्वरूप हूँ । मैं हूँ, स्वयं सत् हूँ तो मैं ही स्वयं सत् किस रूप में हूँ उसकी दृष्टि चाहिए । मैं चेतन हूँ और चेतन का कार्य चेतनामात्र है, प्रतिभास हो गया । जैसे प्रकाशमान वस्तु का कार्य प्रकाशमात्र है, अन्य कार्य नहीं, ऐसे ही आत्मा का कार्य केवल प्रतिभासमात्र है, अन्य जो कुछ बातें उत्पन्न होती हैं वह सब कर्मविपाक की छाया है । कर्म रस है, कर्मविपाक का प्रतिफलन है । तो परपदार्थ के सबंध का स्वरूप में क्या मतलब ? पर पर में हैं, मैं आत्मा अपने में हूँ । तो मैं सहज जो स्वरूप हूँ उस रूप में अपनी श्रद्धा बने कि मैं यह हूँ, इसका नाम है सम्यग्दर्शन । अब इतनी बात पड़े लिखे भी कर सकते, बिना पड़े लिखे भी कर सकते । सम्यक्त्व होने में बहुत विद्या कला हो तब ही हो सके सो बात नहीं । वह तो एक दृष्टि की बात है । जिसको अपने बारे में इस सहज चित्प्रकाश की दृष्टि हो गई उसको सम्यग्दर्शन होता, और यह कहलाता है अनुभव अपने आपका । तो इस अनुभवसहित फिर जो ज्ञान चलता है वह सब सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान होनेपर फिर इस जीव के बाहर में उत्सुकता नहीं रहती कि अमुक पदार्थ को मैं यों बनाऊँ और तब फिर इसका अपने आप में ही रमने का भाव रहना है । यह हुआ सम्यक्चारित्र । तो ये तीन भाव मोहरहित जीव के होते हैं ।
(63) स्वतंत्र स्वतंत्र स्वरूपास्तित्व के परिचय में मोहरहितता―मोह मायने पदार्थ का स्वतंत्र सत्व न जानकर एक को दूसरे का संबंधी मानना यह है मोह । तो स्वतंत्र सत्त्व जब दृष्टि में आ गया, मोहरहित हो गया तो उसके ये तीन भाव होते हैं । तो ऐसा यह मोहरहित जीव आत्मा के गुणों की आराधना करता हुआ अर्थात् अपने आपको चित्प्रकाश निरखता हुआ यथाशीघ्र कर्मो को दूर कर देता है । जैसे लोक में थे निमित्तनैमित्तिक भाव दृष्टि में आ रहे हैं कि अग्नि पर तवा रखा तो तवा गर्म हो गया, रोटी सिक गई, जैसे हर एक बात निमित्तनैमित्तिक भाव में आ रही है इसी तरह यह भी एक निमित्तनैमित्तिक भाव निरखिये कि जीव के जब परपदार्थों के प्रति इष्ट अनिष्टपन का विकल्प होता है तो वहाँ कर्म बँध जाते हैं और जहां अविकार चिन्मात्र अपने स्वरूप में दृष्टि होती है, मैं यह हूँ और तद्विषयक इष्ट अनिष्ट रागद्वेष न रहे वहां कर्म अपने आप झड़ जाते हैं । यह बात पूर्ण सत्य है पैर ऐसी विधि में ये ही काम हुआ करते हैं । तो जब यह जीव अपने उस चैतन्यस्वरूप की आराधना करता है तो वह इन कर्मों का नाश कर लेता है ।