चारित्रपाहुड - गाथा 24: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्तथूले य ।
परिहारो परमहिला परग्गहारंभ परिमाणं ।।24।।
(73) सागारसंयमाचरण में अहिंसाणुव्रत―पहला अणुव्रत है अहिंसाणुव्रत । इसमें त्रस काय के घात का त्याग है और वह भी स्थूल है । स्थूल के मायने यह है कि चार प्रकार को हिंसा कही गई है―(1) संकल्पी, (दे) आरंभी, (3) उद्यमी और (4) विरोधी । किसी जीव को इरादा करके मारना संकल्पी हिंसा है । रसोई बनाने में, बुहारी देने में, पानी लाने में, धान आदिक कूटने में, चक्की पीसने में, इस गृहसंबंधी आरंभ में बचाव करके भी, दुःख भूलकर प्रवृत्ति करके भी जो हिंसा होती है वह आरंभी हिंसा है । उद्यमी हिंसा―देखकर सावधानी से व्यापार करते हुए भी जो हिंसा होती है वह उद्यमी हिंसा है । विरोधी हिंसा―कोई जीव सिंह आदिक या डाकू आदिक जान लेने आया हो उस समय इसके पास शस्त्र हो, बंदूक हो तो उन सबके प्रयोगों से अपना बचाव करता है । ध्येय उसका अपने प्राण बचाने का रहता है, उसकी मारने का विचार नहीं रहता, पर बचाव करने में तो युद्ध जैसा तन जाता है । उसमें यदि कोई दूसरा जीव मर जाता है तो वह है विरोधी हिंसा । गृहस्थ के संकल्पी हिंसा का त्याग है । शेष तीन हिंसाओं का त्याग नहीं बन सकता, इस कारण कह रहे हैं कि सागार के स्थूल त्रस कायवध का त्याग है ।
(74) सागारसंयमाचरण में सत्याणुव्रत, अचौर्याणव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत व परिग्रहारंभ परिमाणव्रत―स्थूल झूठ का त्याग । गृहस्थ ऐसा झूठ नहीं बोल सकता कि जिसमें दूसरे जीव का अहित हो, प्राणवध हो, हितमित, प्रिय वचन बोलेगा, मगर कभी-कभी अच्छे इरादे के कारण थोड़े शब्द विपरीत भी बोल जाये तो उसका यह अणुव्रत भंग नहीं होता । जैसे कुछ परिस्थितियाँ आ सकती हैं कि कोई कसाई किसी गाय को मारने जा रहा था, पकड़े जा रहा था और वह गाय छूट गई और गाय तेजी से आगे भग गई । मानो उसको आगे भागकर जाते हुए किसीने देखा, वहाँ वह कसाई रुका और पूछने लगा―क्या तुमने हमारी गाय इधर जाते देखी? तो उस व्यक्ति ने समझ लिया कि यह कसाई है, यह उस गाय को जान से मारना चाहता है, सो यह बात समझकर वह कुछ भी बोल दे―मुझे नहीं मालूम या मैंने नहीं देखा, तो ऐसा बोलने में उसे अणुव्रत दोष नहीं आता । पहले स्थूलमृषा का त्याग, यहाँ कहा गया है स्थूल चोरी का त्याग, जिसमें पब्लिक का हित हो । पड़ोसी की चीज न चुराये, ऐसी स्थूल चोरी का त्याग है । स्थूल कुशील का त्याग याने अपनी स्त्री को छोड़कर पर स्त्री वेश्या आदिक सबके गमन आगमन का त्याग है इसलिए यह ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है । 5वां है परिग्रहारंभपरिमाणाणुव्रत याने परिग्रह का भी परिमाण और आरंभ का भी परिमाण । इतने से अधिक परिग्रह न जोड़ना और इतने से अधिक आरंभ न करना ये 5 अणुव्रत हैं जिनका यह व्रत प्रतिमाधारी निर्दोष पालन करता है । इन व्रतों को कोई राजा की आज्ञा से करे तो वह व्रत नहीं कहलाता । अपने भीतर के विरक्त परिणाम से करे तो व्रत कहलाता । अब तीन गुणव्रतों को कहते हैं ।