चारित्रपाहुड - गाथा 34: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
सुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोधं च ।
एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मोसंविसंवादो ।।34।।
(89) अचौर्य महाव्रत की प्रथम भावना शून्यागारनिवास―अब अचौर्य महाव्रत की 5 भावनायें बता रहे हैं । अचौर्य महाव्रत की पहली भावना है शून्यागार निवास । सूने घर में रहना । कहीं कोई कुटी है, कोई घर बिल्कुल सूना पड़ा हैं, जंगल है । किवाड़ रहित है, ऐसी जगह साधुसंत निवास करते हैं क्योंकि कोई सूना घर न हो याने किसी गृहस्थ का घर है वहाँ पर रहे तो वहाँ तो बहुत सी चीजें दिखेगी । उनमें से कई चीज पसंद की भी हो जाती हैं, और चीजें पसंद आयें तो उसका अर्थ है कि यह चीज मुझको मिलती तो अच्छा होता । ऐसी बात मन में आयी तो फिर इसका अर्थ क्या हुआ? उसमें कुछ न कुछ चोरी का दोष तो आ ही गया, विकल्प तो लग हो गया । चाहे वह प्रकट चोरी न करे, पर पसंद आने में ही चोरी का दोष आ जाता है क्योंकि उसका फलित अर्थ यह है कि किसी तरह यह चीज मेरे पास आ जाये । जहाँ किवाड़ आदिक लगे हों ऐसे घर में यदि निवास करे तो चोरी की हुई चीज को छुपाने का साधन बना है ना, तो ऐसे साधन में किसी प्रकार चौर्य पाप के भाव का सूक्ष्म दोष लग सकता है । इसलिए शून्यागार निवास होता है और इसकी ही भावना संत पुरुषों के रहती है । बिल्कुल सूने घर में रह रहा हो तो वहाँ चोरी की बात सोचने का प्रसंग ही नहीं रहता । कहां छुपाकर रखना?
(90) अचौर्य महाबल की द्वितीय भावना विमोचितावास―दूसरी भावना है अचौर्य महाव्रत की विमोचितावास । किसी कारण से लोग गांव छोड्कर चले गए हों, कोई घर विमोचित हो तो ऐसे छोड़े हुए घर में रहना विमोचितावास कहलाता है, क्योंकि छोड़े हुए घर में कोई साधन परिग्रह नहीं रहता । जो घर छोड़कर जायेगा वह सब कुछ लेकर जायेगा । तो जब वहाँ कोई वस्तु नहीं है, वहाँ कुछ चीज दिखेगी नहीं तो उसके मन में कुछ उस प्रकार की कल्पना न जगेगी । तो विमोचितावास अचौर्य महाव्रत की यह दूसरी भावना है ।
(91) अचौर्यमहाव्रत की तृतीय भावना परोपरोधाकरण―अचौर्यमहाव्रत की तीसरी भावना है परोपरोधकरण । दूसरों को ठहरने से रोकना नहीं । कोई पुरुष दूसरों को ठहरने से क्यों रोकता है ? जिस घर में, जिस कमरे में वह रह रहा है वहाँ दूसरों का ठहरना किसी को पसंद नहीं आता और वह किसी को वहाँ ठहरने नहीं देता तो वह मुख्य बात क्या है? तो बात यह है कि उसके चित्त में यह बात आती कि कहीं मेरी कोई चीज यह चुरा न ले । इसी ख्याल से दूसरों को ठहरने से रो का जाता है, पर साधु जनों के पास तो कोई चीज होती नहीं । जब चुराने लायक कुछ वस्तु ही नहीं तो वह दूसरों को रोकना ही क्यों चाहेगा? अथवा किसी जगह पर अधिकार भी नहीं मुनि का कि जिसे वह यह कह सके कि यह जगह मेरी है, यहाँ तुम नहीं ठहर सकते । अगर वह यह सोचता है कि यह जगह मेरी है तो वही एक चोरी का दोष हो गया, क्योंकि जो परमार्थत: मेरी चीज नहीं, लौकिक दृष्टि से भी मेरी चीज नहीं उसको मेरी कहना और उसको अपनाने का भाव रखना यह भी एक चोरी है । तो दूसरे पुरुषों को ठहरने से रोकना नहीं यह है अचौर्य महाव्रत की तीसरी भावना ।
(92) अचौर्य महाव्रत की चतुर्थ भावना एषणाशुद्धि―अचौर्य महाव्रत की चौथी भावना है एषणाशुद्धि, निर्दोष आहार लेना । भिक्षावृत्ति से चर्या करके निर्दोष आहार लेना एषणाशुद्धि कहलाती है । जिस प्रकार से जिसके आहार विहार की चर्या है उसके खिलाफ कोई प्रवृत्ति करे तो उसमें दिल काँप जाता है । मानो वह चोरी कर रहा । जैसे राजा का भोजन थाली सजाकर आये, लोग निवेदन करें तब खाये, और इसके खिलाफ यदि वह स्वयं ही जाकर रसोईघर में से चीज उठाकर खाये तो थोड़ा वह इस बात का विचार जरूर करता है कि कहीं कोई मुझे इस प्रकार से खाते हुए देख तो नहीं रहा । जिसकी जो विधि है आहार विहार की उसके खिलाफ करे तो उस भी चोरी का दोष रहता है । तो एषणा न रखे, गृहस्थों की भांति किसी भी तरह भोजन निर्माण संग्रह आदिक करे तो उसमें चोरी का दोष है अथवा कोई अंतराय आया और उसे छुपा लिया तो यह भी चोरी का हो रूप है । तो अचौर्य महाव्रत की चौथी भावना है एषणाशुद्धि ।
(93) अचौर्य महाव्रत की पांचवीं भावना साधर्मिजनाविसंवाद―अचौर्य महाव्रत की 5वीं भावना है साधर्मी अविसम्वाद । जो अपने साधर्मी बंधु हैं उनमें विसम्वाद करना, झगड़ा करना, यह अचौर्य महाव्रत का दोष है । प्राय: ऐसा होता है कि किसी का किसी से झगड़ा हुआ तो उस झगड़े में जो क्रोध आया तो तत्काल अगर कुछ बदला न दे सके तो भीतर यह भावना रहती है कि मैं इसको नुक्सान पहुंचाऊं, या इसका धन लुट जाये । जब कलह होती है तो उस कलह से उसको नुक्सान पहुंचाने की भावना जगती है और उस भावना में उसको चोरी का दोष लगता है । तो जो अचौर्य महाव्रत का नियम रखने वाले साधु-संत जन हैं उनका यह कर्तव्य है कि वे साधर्मी जनों में विसम्वाद नहीं करते । साधर्मी पुरुषों के साथ विवाद करने के और भी दोष हैं । जिन्हें धर्म से प्रीति नहीं होती वे ही धर्मात्मा जनों से विवाद करते हैं । यदि धर्म से प्रीति है तो फिर धर्मात्मा जनों से विवाद करन का काम ही क्या है? जिसको धर्म से रुचि नहीं है वही पुरुष धर्मात्मा जनों को देखकर ईर्ष्या करेगा, विरोध करेगा, उनसे उपेक्षा करेगा । झगड़ा भी ठनेगा । तो धर्म में अवात्सल्य सिद्ध करता है साधर्मी जनों से झगड़ा करने में । और भी अनेक दोष आते हैं । तत्काल अपने आपमें महा संक्लेश होता, क्योंकि सामान्य जनों से विवाद करें तो उसमें संक्लेश विशेष करना पड़ता, पर साधर्मी जनों से विवाद करें तो उसमें संक्लेश विशेष करना पड़ता । तो साधर्मी जनों से विवाद रखना यह अचौर्य महाव्रत का दोष है । अत: अचौर्य महाव्रत का पालन करने के इच्छुक संतों को साधर्मी जनों से विवाद न करने की भावना रहती है, और कभी विसम्वाद करते भी नहीं हैं । इस प्रकार ये भावनायें अचौर्य महाव्रत की कही गई हैं ।