चारित्रपाहुड - गाथा 7: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्ठी य ।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्लु पहावण य ते अट्ठ ।।7।।
(26) सम्यग्दृष्टि का नि:शंकित सम्यक्त्वाचरण―मोक्षमार्ग सम्यक्त्वाचरण से प्रारंभ होता है । जिसके सम्यक्त्व जैसा आचरण नहीं है वह संयम में कैसे प्रवृत्ति कर सकता? उस सम्यक्त्वाचरण में कैसी कैसी-कैसी वृत्तियाँ होती हैं यह बात इस स्थल में कही जा रही है । इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव के 8 अंगरूप आचरण चलता है । जैसे शरीर के 8 अंग होते हैं, उन अंगों के बिना शरीर किसका नाम? इन 8 अंगों में पहला (1) अंग है निःशंकित अंग । जिनेंद्र भगवान के वचनों में शंका न करना यह तो है व्यवहार नि:शंकित और आत्मा के अविकार सहन स्वरूप में शंका न करना वह है निश्चय नि:शंकित अंग । निःशंकता का आत्मा में अद्भुत प्रभाव पड़ता है । जिसको आगम के वचनों में शंका नहीं वह आगम पर श्रद्धा के बल से ही अपने आत्मा में अद्भुत प्रभाव पैदा कर लेता है और फिर जिसको युक्ति और अनुभव से निर्णीत हो गया, आगम में कहे गये तत्त्व, उसका अद्भुत प्रभाव पड़ता है, वह मुक्ति पाता है ।
(27) नि:शंकित अंग का एक उदाहरण―नि:शंकित अंग में एक कथा आती है अंजन जोर की । उसको एक गुटका भी सिद्ध था कि जिससे चलते हुए भी वह लोगों को न दिखाई पड़े । वह चोर व्यसनी हो गया । जो चोरी करता है उसमें धीरे-धीरे सभी व्यसन आ जाते हैं, सो वह अंजन चोर एक वेश्या में आशक्त हो गया । एक बार उस वेश्या ने अंजन चोर से कहा कि मुझे अमुक रानी के गले में पड़ा हुआ हार लाकर दो, सो वह उस हार को लाने की कोशिश में रहा और अंजन के बल पर शरीर को अदृश्य करके राजमहल में पहुंचकर वह हार भी चुरा लाया, किंतु स्वयं तो चाहे किसी कलाबल से अदृश्य रहे, पर हार को कैसे अदृश्य करे आखिर वह चमकता हुआ हार लिए जा रहा था, उस हार को देखकर उसके पीछे सिपाही लग गए तो इस अंजन चोर ने उस हार को किसी जगह डाल दिया । वहाँ कोई एक मुनिराज बैठे थे । खैर वह अंजन चोर तो आगे बढ़ गया । सिपाहियों ने मुनिराज को ही चौर समझकर उनके ऊपर शस्त्र का प्रहार किया, वह शस्त्र फूलमाला बन गया । खैर यह तो उपकथा है । वह अंजन चोर बेतहासा भागता हुआ एक पेड़ के नीचे पहुंचा । वहाँ एक सेठ णमोकार मंत्र की सिद्धि कर रहा था । नीचे अनेक हथियार सीधे खड़े कर रखे थे―भाला, बरछी, तलवार वगैरह, और एक शाखा से 108 लड़ी का पतले सूत का छीका लटका रखा था और उस पर बैठा हुआ वह णमोकार मंत्र सिद्ध करना चाहता था, पर उसको एक शंका हुई या कुछ हो, वह बार-बार उसमें उतरता और चढ़ता था, वहाँ यह अंजन चोर भो पहुंचा और पूछा कि आप क्या कर रहे हो तो उसने कहा कि हम मंत्र सिद्ध कर रहे....कैसा मंत्र.... आकाशगामिनी विद्या ।....वह मंत्र क्या है?....(णमोकार मंत्र बोलना) णमो अरहंताणं इसको तो हम सिद्ध करेंगे । तो वह छीके पर बैठ गया । आखिर उसने पहली बार ही तो मंत्र सुना था, वह भूल गया । ‘अरहंताणं’ याद न रहा तो लोग बतलाते हैं कि वह केवल यह ही बोलता गया ‘आण ताण सेठ वचन प्रमाणं’ याने जो सेठ ने कहा वह मेरा आराध्य है । ऐसा दृढ़ श्रद्धान करके वह छींके पर बैठा हुआ छींके की लड़ी काटने लगा । बहुतसी लड़ी कट जाने पर उसे आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो गई, फिर चैत्य वंदना को, ज्ञानलाभ लिया फिर धर्म में आगे बढ़ा । तो नियंत्रित आगे की बात इस गाथा में यह बतायी गई कि जिनवचनों पर केवल एक आनुमानिक बात रखकर यदि श्रद्धा की तो उसे सिद्धि मिलती है । तो जो पुरुष आगम मे श्रद्धा रखता है, अपने आत्मस्वरूप में श्रद्धा रखता है वह निशंक होकर मुक्ति का लाभ प्राप्त करता है । तो सम्यग्दृष्टि को अपने आत्मस्वरूप के संबंध में शंकारहित वृत्ति रहा करती है ।
(28) सम्यग्दृष्टि का निःकांक्षित सम्यक्त्वाचरण―(2) दूसरा अंग है―निःकांक्षित अंग । भोगे हुए विषयो की चाह न करना । अपने मन को सम्हाले, और आत्मदया रखे अविकार सहज स्वरूप की भक्ति से अपने आपमें रमकर तृप्त रहे, उसे भोग की इच्छा कभी हो ही नहीं सकती । सम्यग्दृष्टि जीव ने इस आत्मस्वरूप का अनुभव किया और एक अलौकिक आनंद पाया, इस कारण उसको किन्ही भी बाह्य भोगों में वांछा नहीं रहती । एक चक्रवर्ती की कन्या अनंतमती इस अंग में प्रसिद्ध मानी गई हे । वह बहुत सुंदर थी तो अवसर पाकर कोई उसे हर ले गया, फिर पता लगाकर लायी गई, उसी क्षण उसे कोई दूसरा हर ले गया । इस तरह एक विद्याधर उसे हर लिए जा रहा था । पीछे से सेना ने ललकारा तो आखिर वह एक जंगल मे अनंतमती को छोड़कर चला गया । अब उस भयानक जंगल में अनंतमती ने कई हजार वर्ष तक धर्मबुद्धि से रहकर अपने आत्मा को सम्हाला । कदाचित् कुछ खाया पिया भी हो, उपवास बहुत किया, तन ढांकने को कपड़े न रहे तो नग्न ही रहकर या कुछ छाल वगैरह लपेटकर यहाँ समय बिताया और अंत में एक अजगर द्वारा वह गसी गई । उसी समय उसका पिता भी वहाँ पर पहुंचा । अनंतमती का आधा अंग उस समय अजगर के मुख में था । वहाँ उसके पिता ने अजगर के खंड करके अनंतमती को मरने से बचाना चाहा, पर अनंतमती ने वहाँ यही कहा कि हे पिताजी, अब इसे मत मारो, इसे अभयदान दो...., आखिर वह समाधिमरण कर गई । तो देखिये वह अनंतमती भोगों के प्रति कितना विरक्त थी जिसके प्रताप से वह स्वर्गों में देवी हुई, और वहाँ के बाद विशल्या हुई, जिसकी इतनी बड़ी महिमा थी कि उसके नहाये हुए जला की छीट अगर किसी पर पड़ जाये तो उसका रोग दूर हो जाये । तो भोगों के प्रति जिसे आकांक्षा नहीं रहती उसके आत्मा में इतनी पवित्रता बढ़ती है कि उसके नहाये हुए जल के छीट पड़ने से रोगी के रोग दूर हो जाते हैं । जो नि:कांक्षित भाव से अपना जीवन बिताते हैं वे जीव मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।
(29) सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सित सम्यक्त्वाचरण―(3) तीसरा अंग है निर्विचिकित्सा अंग । धर्म में या धर्मात्माजनों में ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है । ज्ञानी ने अविकार सहज ज्ञानस्वभावी धर्मतत्त्व का परिचय किया है और उस दृष्टि का सहज अलौकिक आनंद पाया है तो उसको धर्म में घृणा तो क्या, उसे धर्म में, धर्म के धारक साधुजनों पर अत्यंत रुचि होती है, उनको ग्लानि नहीं होती । धर्म में रुचि करने वालों के दृष्टांत सैकड़ों हैं । बड़े-बड़े उपद्रव उपसर्ग आये सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार आदिक मुनियों पर पर उनको धर्म में इतनी प्रीति थी कि उन उपद्रवों में भी उन्होंने धर्म में ग्लानि नहीं की और व्यावहारिक निधि चिकित्सा अंग में एक सेठ उद्यायन प्रसिद्ध हैं । जिसकी प्रशंसा स्वर्गों में भी आत्मकल्याण चाहने बलों के द्वारा होती हैं । इंद्र की सभा लगती है, धर्म चर्चा होती है तो वहाँ एक चर्चा आयी कि मेरे समान भूमि पर एक सेठ उद्यायन है । उसे धर्म में अडिग प्रीति है, वह धर्मात्माओं की बिना घृणा के बड़ी सेवा करता है । तो एक देव के मन में आया कि यहाँ से चलकर उसकी परीक्षा तो करें । तो एक मुनि का रूप रखकर वह आया । उद्यायन ने उसे पड़गाहा, आहार दिया पर उसे आहार तो करना न था सो उसने अपनी माया से कर दिया । वहाँ वह उद्यायन अपने कर्मों पर (पापोदय पर) बहुत पछताया और मुनि की सेवा बराबर करता रहा, उससे घृणा नहीं की । उसके शरीर को धोया सारा कै साफ किया । पश्चात् उस देव ने अपना सही रूप प्रकट किया और उस उद्यायन को नमस्कार करके कहा कि धन्य है आपकी दृढ़ता को । जैसा कि मैंने स्वर्गों में सुना था ठीक वैसा ही पाया । जैसा मां अपने बालक की सेवा करने में किसी प्रकार की घृणा नहीं करती ऐसे ही ज्ञानीजनों को धर्म और धर्मात्माओं से प्रीति रहती है । तो धर्मात्मा जनों के शरीर से कदाचित् मल मूत्र भी झरे, देह बडा अपवित्र हो गया हो फिर भी उन्हें ग्लानि नहीं आती । तो सम्यग्दृष्टि पुरष ग्लानि रहित होकर धर्मात्माओं के प्रति ऐसा व्यवहार करते हैं ।
(30) सम्यग्दृष्टि का अव्यामोहित आचरण―(4) चौथा अंग है―अमूढ़दृष्टि । अ मायने नहीं, मूढ़ मायने मूर्खता, याने ऐसी दृष्टि बने कि जिसमें मोह का प्रश्रय नहीं, कु व कु शास्त्र और कुगुरु इनमें मुग्ध न हो ऐसी दृढ़ता को कहते हैं अमूढ़ दृष्टि । जिसने आत्मा के अविकार स्वरूप का परिचय पाया है और मुक्ति का सही मार्ग जाना है कि अपने आपको केवल चैतन्य प्रतिभास मात्र अनुभव करें तो मुझे मुक्ति का लाभ हो, ऐसे दृढ़ श्रद्धानी जीव को कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु इनमें कैसे प्रीति जग सकती । इस अंग में रेवती रानी प्रसिद्ध हुई है । एक क्षुल्लक ने किसी मुनि से यह जानकर कि रेवती रानी एक निकट भव्य है, दृढ़ श्रद्धानी है । उसकी परीक्षा करने के लिए माया से, विक्रिया से अनेक दृश्य दिखाया, पर वह किसी भी दृश्य में मुग्ध न हुई । ब्रह्मा विष्णु के जैसे अनेकों प्रकार के चरित्र भी दिखाया किंतु उनमें वह रेवती रानी आकर्षित न हुई । एक तीर्थंकर का जैसा समवशरण या अन्य बातें ये सब दिखाया, पर रेवती रानी ने यह ही श्रद्धा रखा कि आगम में 24 तीर्थंकर कहे गए हैं, 25 वां तीर्थंकर तो कोई अभी हो ही नहीं सकता, सो वह उस समय भी अपनी सही श्रद्धा से न डिगी । वहाँ उस क्षुल्लक ने उस रेवती रानी की बड़ी प्रशंसा की । तो अविकार अंतस्तत्व में ही सम्यग्दृष्टि को प्रीति होतीं, वहाँ ही आस्था है और इसी कारण वह धर्मविरुद्ध प्रसंगो में रंच मात्र भी प्रभावित नहीं होता, तो ऐसे आत्मा के अविकार स्वरूप के अनुरूप सम्यग्दृष्टि का आचरण होता है ।
(31) सम्यग्दृष्टि का उपगूहित आचरण―पाँचवां अंग है उपगूहन धर्म की और धर्मात्माओं की अवज्ञा न करना । कदाचित् किसी धर्मात्मा पुरुष में कर्मोदयवश कोई दोष भी आ जाये तो उस दोष को जनता में प्रकट न करना यह उपगूहन आ कहलाता है । यह धर्म का इतना व्यापक प्रेमी है । सम्यग्दृष्टि जोव कभी धर्म का अनादर नहीं सह सकता । इसका दूसरा नाम उपवृंहण भी है याने आत्मा के गुणों का विकास बने । इस उपगूहन अंग में एक जिनेंद्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुआ है । उसने अपने महल में ही एक चैत्यालय बना रखा था । उस चैत्यालय में कीमती सिंहासन चमर छत्र आदिक थे उनमें कीमती हीरा रत्न वैडूर्यमणि सोना चांदी आदिक कीमती सामान भी लगे थे । एक चोर ने यह बात किसी तरह से सुन रखा था तो उसके मन में आया कि मुझे इस चैत्यालय का सारा कीमती सामान चुराना चाहिए । सो वह एक ब्रह्मचारी का रूप रख कर आया । वह कुछ दिन तक उस चैत्यालय में आकर पूजा पाठ वगैरह के कार्य दिखाकर अपनी बड़ी भक्ति दिखाने लगा । अपने को ब्रह्मचारी बताने लगा । उस सेठ को उस पर विश्वास हो गया । धीरे-धीरे वह नकली ब्रह्मचारी उसी चैत्यालय में रहने लगा । एक दिन सेठ को कही बाहर जाना था सो उस ब्रह्मचारी के सुपुर्द सब काम छोड़कर वह सेठ बाहर चला गया । मौका पाकर एक रात्रि को वह ब्रह्मचारी वैडूर्यमणि लेकर भगा । वैडूर्यमणि की चमक तो छिप नहीं सकती थी सो उस चमकती हुई मणि को देखकर शहर के कोतवाल ने समझ लिया कि यह कोई चोर है जो इस चमकती हुई मणि को चुराकर लिए जा रहा है । सो उस शहर के कोतवाल ने उसका पीछा किया और पकड़ लिया । उसको पकड़े हुए लिए जा रहा था कि इतने में वह सेठ भी वहीं आ गया और पहचान लिया कि यह वही ब्रह्मचारी है और यह मेरे चैत्यालय की वैडूर्यमणि चुराकर लाया है, यह सब जान लिया मगर एक बात का ख्याल उसे हैरान करने लगा कि यदि मैं इसे चोर साबित कर दूँ तो सबेरा होते ही जनता में यह बड़ा अपवाद फैल जायेगा कि देखो इस धर्म के ऐसे ब्रह्मचारी होते हैं सो धर्म की अप्रभावना बचाने के लिए उसने यही कहा कि अरे भाई इसे मत पकड़ कर ले जावो । यह वैडूर्यमणि तो मेरे चैत्यालय का है, मैंने ही इसे इसके द्वारा मंगाया था । आखिर कोतवाल ने उसे छोड़ दिया । बाद में सेठ ने उसे डांटा डपटा या जो भी भला बुरा कहा वह बात और है पर अवसर पर तो उसने धर्म को अप्रभावना से बचाया । तो सम्यग्दृष्टि का धर्म बढ़ाने वाला आचरण हुआ करता है ।
(32) सम्यग्दृष्टि का धर्मस्थितिकर सम्यक्त्वाचरण―छठवां अंग है स्थितिकरण । स्वयं धर्म से चिग रहा हो तो उत्तम भावनाओं द्वारा अपने आपको धर्म में स्थिर कर देना स्थिति करण है । दूसरे लोग धर्म से चिग रहे हों तो उन्हें धर्म में स्थिर करना यह स्थिति करण अंग है । जैसे चींटी भींत पर चढ़ती है तो अनेकों बार गिरकर भी वह अपना चढ़ना बंद नहीं करती आखिर एक न एक बार चढ़ ही जाती है ऐसे ही किसी धर्मात्मा को अनेक मौके आते हैं धर्म से चिगने के परंतु जिन्हें धर्मधारण करने की तीव्र रुचि होती है वे एक न एक बार कभी धर्म के मार्ग में प्रगति कर ही लेते हैं । धर्म बिना किसी का पूरा न पड़ेगा । आखिर कोई धर्म से डिग भी जाये तो भी उसको एक निर्णय है कि हमको इस धर्म का ही आश्रय लेना है ।
(33) स्थितिकरण सम्यक्त्वाचरण का एक उदाहरण―इस स्थितिकरण अंग में वारिषेण महाराज बहुत प्रसिद्ध हुए हैं । एक बार वारिषेण महाराज एक नगरी में आहारचर्या के लिए गए, वह नगरी उनकी स्वयं की जन्मभूमि थी । अब वहाँ उनके ही गृहस्थावस्था के एक मित्र पुष्पडाल के घर उनका आहार हुआ । आहार करने के बाद वारिषेण महाराज जंगल के लिए चल पड़े तो पुष्पडाल उन्हें कुछ दूर तक पहुंचाने के लिए साथ-साथ चल पड़े । करीब 1 मील तक साथ गए, पर वह कैसे कहें कि अब आप हमें वापिस लौट जाने की आज्ञा दें, सो अपनी पुरानी बातों को उन्हें याद दिलाने लगे, यह भावना रखकर कि महाराज यह समझ लें कि इतनी दूर आ गए और वापिस लौटने की आज्ञा दे दें । क्या याद दिलाने लगे पुष्पडाल―महाराज, यह वही जंगल है जो कि शहर से करीब 1 मील दूर है, यही पर हम आप घूमने आया करते थे । महाराज वारिषेण ने कुछ न कहा, फिर करीब 2 मील तक निकल जाने पर पुष्पडाल ने कहा―महाराज यह वही तालाब है जो कि शहर से करीब 2 मील दूर पड़ता है । यहीं हम आप स्नान करने के लिए आया करते थे । महाराज ने कुछ न कहा । आखिर वह पुष्पडाल वारिषेण महाराज के साथ-साथ जंगल चले गए, वहाँ भावुकता में आकर मुनिव्रत अंगीकार किया, पर उन्हें यह ख्याल बार-बार हैरान करता रहा कि मैं बिना स्त्री से कुछ कहे ही यही चला आया हूँ, मुनिदीक्षा ले ली है, वह बेचारी क्या सोचती होगी इस बात का ख्याल उन्हें सताने लगा । और भी मजे की बात देखो कि उसकी स्त्री भी कानी थी, पर उसका राग उन्हें सताने लगा । वारिषेण महाराज ने सब बात समझ लिया और उपाय भी समझ लिया कि किस तरह से इन पुष्पडाल को समझाना चाहिए । विचार किया कि विषयों के प्रति आसक्त हुए लोगों पर आखिर बात तो कुछ असर करेगी नहीं, कोई घटना ही असर करेगी, सो यह विचार करके उन्होंने अपने धर संदेश भेजा कि अमुक दिन हम अपने घर आ रहे हैं, हमारी सभी रानियों के बहुत-बहुत सजाकर रखना । यह समाचार पाकर वारिषेण महाराज की माता मन में विचार करने लगीं कि क्या हो गया अब हमारे लाल को । वह तो एक महामुनि हो गए, पर अब घर आना क्यों विचारा, क्या बात है, फिर विचारा कि अरे वह कोई अज्ञानी तो हैं नहीं, आखिर इसमें भी कोई रहस्य की बात होगी जो उन्होंने घर आने और सभी रानियों को सज-धजकर रखने के लिए कहा । आखिर पहुंचे उसी दिन वह मुनिराज पुष्पडाल मुनि के साथ । तो वहाँ क्या देखा कि दो सिंहासन पड़े हुए थे, एक था काठ का और एक था स्वर्ण का । ये दो सिंहासन इसलिए लगाया था वारिषेण की माता ने कि अगर मेरा बेटा अपने पद से विचलित हो गया होगा तो स्वर्ण के सिंहासन पर बैठेगा और अगर विचलित न हुआ होगा तो काठ के सिंहासन पर बैठेगा । सो वहाँ पहुंचने पर वारिषेण महाराज तो स्वयं काठ के सिंहासन पर बैठ गए और पुष्पडाल को स्वर्ण के सिंहासन पर बैठाया । (देखिये―गुरु की आज्ञा पाने पर व स्थिति जानकर इस तरह में बैठने में कोई दोष की बात नहीं) । अब वहाँ पुष्पडाल मुनि ने सब प्रकार का ठाठ देखा, रानियां देखी तो उस समय उन्होंने अपने को बहुत-बहुत धिक्कारा, अरे कहां मैं व्यर्थ में अपनी कानी स्त्री का राग इतने दिनों से रखता आ रहा था, हमारे ये गुरुदेव तो इतने-इतने वैभव के व इस तरह की सुंदर रानियों के स्वामी थे फिर भी इन्होंने अपने आत्मकल्याण के लिये इन सबका राग छोड़ा । बस अब क्या था? पुष्पडाल का राग गल गया और अपने धर्म में सावधान हो गए । तो धर्मात्मा जनों को धर्म से डिगते हुए देखकर उन्हें धर्म में स्थिर करना यह एक सम्यग्दृष्टि पुरुष का आचरण होता है ।
(34) सम्यग्दृष्टि का वात्सल्यपूर्ण सम्यक्त्वाचरण―(7) सातवां अग है वात्सल्य अंग । इस अंग में प्रसिद्ध हुए हैं विष्णुकुमार मुनि । जिन्होंने 700 मुनियों पर जब बलि आदिक मंत्रियों के द्वारा उपसर्ग ढाया गया था वहाँ उन मुनियों की रक्षा की थी । तभी से तो यह रक्षाबंधन पर्व चला । कथा तो इसकी लंबी है पर संक्षेप में यों समझो कि जब बलि ने 7 दिन का राज्य लेकर अकंपनाचार्य आदिक 700 मुनियों को कैद में रखकर उनके चारों ओर आग जलवा दी थी, उस समय विष्णु कुमार मुनि अपनी विक्रिया से बावन अंगुल का रूप रखकर उस यज्ञ में शामिल हुए केवल एक धर्मात्माओं को रक्षा के ध्येय से, तो उनपर प्रसन्न होकर बलि राजा ने कहा कि तुम जो मांगना चाहते हो सो माँग लो । वहाँ उस बावन अंगुल गात वाले विष्णुकुमार ने सिर्फ तीन पग भूमि मांगी । तो बलि ने हँसकर कहा―अरे इतनीसी भूमि क्यों मांगते, कोई बड़ी चीज मांगो । तो विष्णु कुमार ने कहा―मुझे तो बस तीन पग भूमि ही चाहिए । तो बलि बोला―अच्छा नाप लो तीन पग भूमि । तो विक्रिया से विष्णु कुमार ने अपना इतना बड़ा शरीर बना लिया कि एक पैर तो ढाई द्वीप के बीच में रखा और दूसरे पैर से सारे मानुषोत्तर पर्वत को घेर लिया और तीसरा पग रखने को कही जगह न बची । उस समय का दृश्य बड़ा भयानक था । वहाँ बलि विष्णु कुमार के चरणों में गिरा और बोला―बस अब क्षमा कीजिए, अपना तीसरा पग हमारी पीठ पर रख लीजिए । आखिर वहां देवों ने जल-वृष्टि की, बलि ने क्षमा मांगी, और इस तरह से उन 700 मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ । तो यह है वात्सल्य अंग की बात । सम्यग्दृष्टि पुरुष को धर्म से और धर्मात्माओं से वात्सल्य होता है ।
(35) सम्यग्दृष्टि का धर्मप्रभावनापूरित सम्यक्त्वाचरण―सम्यग्दृष्टि जीव का धर्म प्रभावनापूरित सम्यक्त्वाचरण होता है । स्वयं व्रत, तप, शुद्ध आचरण करके अपने में धर्म की प्रभावना और लोगों में धर्म की प्रभावना करते हैं । और यथासमय जिन पूजा विधान कल्याणक महोत्सव आदिक समारोहों में प्रभावना करते हैं । वास्तविक धर्मप्रभावना तो अज्ञान हटाकर ज्ञानप्रचार करने में है । जैसे कि समंतभद्राचार्य ने कहा है―‘अज्ञानतिमिरव्यातिमपाकृत्य यथायथं, जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्थान प्रभावना ।’ अज्ञानरूपी अंधकार को हटाकर जैनशासन के माहात्म्य का प्रभाव करना सो प्रभावना है । ऊपरी प्रभावना से तो केवल दो-एक दिन ही लोग कुछ कहेंगे कि बड़ी खर्च किया, बड़े धनी हैं । जिसका कि असर बुरा भी हो सकता, पर ज्ञान की प्रभावना बने, ज्ञानविशेष पब्लिक को मिले तो उसमें जो अंदर बात समायी होगी वह स्थिर रहेगी, इस कारण से ज्ञान की प्रभावना ही सच्ची ज्ञानप्रभावना है । इस अंग के विषय में एक उदाहरण वज्रकुमार मुनि का है, जो दो रानियों के बीच एक विवाद खड़ा हो गया कि रथ बौद्ध का पहिने निकले या जैन का तो जैन का रथ पहले निकलता था प्रति वर्ष पर एक रानी के अनुरोध से बौद्ध का रथ पहले चलने का निर्णय सा हो रहा था, उस समय जैन रानी ने इस संबंध में बहुत चिंता की और आखिर यह समाचार वज्रकुमार मुनि के पास पहुंचा और वह बहुत विद्याधरों के मित्र थे तो विद्याधरों की सेना की सहायता से स्वयं ही राजा के भाव बदले और जैनरथ पहले चलाया । एक प्रभावना हुई । यह भी एक लौकिक बात है । वास्तविक प्रभावना तो ज्ञान की प्रभावना से है, पर इस लौकिक प्रभावना के साथ ज्ञानप्रभावना का भी अवसर हुआ करता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष ज्ञानप्रभावना पूर्ण सम्यक्त्वाचरण करता है । इस तरह 8 अंगो के रूप में सम्यग्दृष्टि का अंतरंग व बहिरंग ऐसा आचरण होता है कि जिससे स्वपर का कल्याण हो ।