पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 68: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
आमां वा पक्कां वा खादति य: स्पृशति वा पिशितपेशीम् ।
स निहंति सततनिचितं पिंडं वहुजीवकोटीनाम् ।।68।।
मांसभक्षण में अनेक जीवसमूहों की हिंसा―जो जीव कच्चे अथवा पके हुवे मांस की डली को छूता भी है वह बहुत समय से एकत्रित हुए अनेक जाति के जीवों के पिंड को छूता है क्योंकि समस्त मांस पिंड में जीवों की उत्पत्ति होती रहती है, इसलिये मांस का खाना तो दूर रहा उसके छूने में भी हिंसा का दोष लगता है । जो लोग मांस खाने वाले हैं उनके चित्त में क्रूरता रहती है इसलिये क्रूरता का भाव होने से उनके और भी हिंसा का दोष लगता है इसलिये माँस भक्षण में बहुत बडी हिंसा है । उस हिंसा का त्याग करने के लिए अष्ट मूल गुणों में बताया गया है । मांस में दोष बताया कि हर पर्याय में उस जाति के जीव उत्पन्न होते रहते हैं जिसका भक्षण करने से जीव मर जाते हैं इसलिये मांसभक्षण का त्याग अवश्य होना चाहिये ।