भावपाहुड - गाथा 131: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
छज्जीवछडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावी अपुव्वं महासत्तं ।।131।।
(523) षट्जीवनिकाय पर दया करने का आदेश―यह भावपाहुड़ ग्रंथ है, इसकी मूल रचना गाथाओं में श्री कुंदकुंदाचार्य ने की । इसमें मुनिवरों को समझाया गया है और यों कल्पना कीजिए कि उनके सत्संग में जो मुनिराज थे उनकी शिथिलतायें देखकर उनके दोष दूर करने के लिए एक आचार्य होने के नाते से उन्हें संबोधन किया । अथवा आगे प्रगति करने के लिए संबोधा । इस गाथा में कह रहे कि हे मुनिवर, मन, वचन, काय से 6 काय के जीवों पर दया करो । 6 काय हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु, वनस्पति और त्रस । षट᳭काय संज्ञा में एकेंद्रिय के तो अलग से नाम दिये और दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय और पंचेंद्रिय में आये सब नारकी, सब मनुष्य, सब देव, पशु, पक्षी आदिक, इन सबको एक त्रस में ही कह दिया । तो देखो अन्य लोगों ने भी पृथ्वी, जल, अग्नि वायु, इन चार को अलग-अलग माना है और वनस्पति को पृथ्वीकाय में ही शामिल कर लिया । जो काठ पत्थर आदि दिख रहे वे सब पृथ्वी हैं, यह अन्य दार्शनिकों का लक्षण है और त्रस की वे कुछ सुध भी नहीं लेते । यहाँ इस प्रकार 6 काय बताये हैं कि जो उपयोग में बहुत आ रहे वे 5 अलग कहे । पृथ्वी कितना सबके उपयोग में आ रही, मकान बनाते तो पृथ्वीकाय से बनाते, ईट है, सीमेन्ट है, गारा है, और पृथ्वी पर चल रहे । जल के बिना प्राण रहना कठिन है । जल का भी उपयोग है और अग्नि के बिना सब भूखे धरे रहेंगे, कहां से भोजन बनाया जा सकेगा और वायु के बिना भी किसी का काम नहीं चलता । आजकल गर्मी के दिन हैं, सभी को पूरा पता है कि जब हवा नहीं चलती तो गर्मी के मारे घबड़ा जाते । वायु का भी खूब उपयोग होता है और वनस्पतिकाय की बात देखो फल, गेहूं, लकड़ी काठ आदिक ये सब वनस्पति हैं, ये सब बहुत-बहुत काम में आते । इनकी संख्या भी नाना प्रकार की है । इस तरह 5 स्थावरों को अलग-अलग काय में गिना, और बाकी सब संसारी जीव त्रस में आ गए । तो ऐसे 6 काय के जीवों पर दया करें । यह गृहस्थों से पूरा नहीं बनता क्योंकि वनस्पति साग भाजी तो रोज लाते ही हैं, हवा बिना भी नहीं बनता । हवा बंद हो गई तो पंखा चालू हो गया, साइकिल, मोटर आदि के पहियों से हवा निकल गई तो उसमें हवा पुन: भरी गई । गृहस्थ अग्निकाय की हिंसा से भी नहीं बच सकते, क्योंकि रोटियां तो पकाना ही है । आजकल तो गैस के रूप में अग्नि को एक टंकी से बंद कर रखा है । तो आग की हिंसा से भी नहीं बच सकते । जल भी बहुत उपयोग में आता । पृथ्वी भी उपयोग में आती, किंतु मुनिराज इन सबकी हिंसा से बचे हुए हैं । कभी यह बात कोई पूछ सकता है कि मुनिजन प्रवास तो लेते, उससे तो अनेकों जीव मर जाते होंगे तो कैसे हिंसा नहीं हुई, तो इसका समाधान यह है कि वे इच्छा करके ये कुछ काम नहीं करते । न करते, न कराते और न उनकी अनुमोदना करते, इस कारण उनको वहाँ हिंसा का दोष नहीं लगता । गृहस्थों को इन हिंसाओं से बचना अत्यंत कठिन है । हां त्रस जीवों की हिंसा बचा सकते हैं ।
(524) छह अनायतनों के परिहार का उपदेश―यहां मुनिवरों को उपदेश है कि हे मुनिवर तू मन, वचन, काय से 6 काय के जीवों पर दया कर । और 6 अनायतनों का परित्याग कर ꠰ कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और इनके सेवक ये 6 काय के अनायतन हैं, धर्म के विरुद्ध ठिकाने हैं । धर्म नाम है अपने आपके सहज स्वरूप में अपना अनुभव करना । जैसे लोगों का चित्त नाम में है ना―फलाने लाल, फलाने चंद, जिनका जो नाम है सो नाम बोला जाने पर वे कितना अपने नाम पर लगाव रखे हैं कि झट समझ जाते कि मेरे लिए कहा, मुझ को कहा । तो जैसे यहाँ पर्याय के नाम में लगाव है तो यह लगाव न रहे और आत्मा के स्वभाव में लगाव बने कि मैं यह हूँ अविकार ज्ञानस्वभाव, तो अपने स्वभाव में लगाव करना सो धर्म है । तो धर्म के विपरीत जो साधन हैं वे अनायतन हैं । कुगुरु को इस धर्म का क्या पता यदि धर्मविधि का पता होता तो धर्मरूप वृत्ति उनकी रहती सन्यास में । लक्कड़ जल रहे हैं, नाम धर रहे पंचाग्नि तप । केवल का भक्षण करना धर्म समझते हैं । आत्मस्वभाव क्या है यह उनके परिचय में नहीं है तो उसमें प्रवेश कैसे बने? कुगुरूओं की जो सेवा करते वे भी अनायतन हैं, धर्म के ठिकाने नहीं हैं । कुदेव तो कोई होता ही नहीं―या देव हो या अदेव हो, दो ही बातें हैं । या तो वीतराग सर्वज्ञ है या देव नहीं है । कुदेव कहा से आये? तो कुदेव उसे कहते हैं कि जो देव तो नही है पर अपनी देवता के रूप में प्रसिद्धि कराये तो वह कुदेव कहलाता है । वे धर्म के स्थान नहीं हैं । कुशास्त्र―जिन में पापों का पोषण किया गया हो वे कुशास्त्र हैं । और जो इनकी उपासना करें सो वे भी अनायतन हैं । तो इन 6 अनायतनों का परित्याग करें ।