भावपाहुड - गाथा 163: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
इय भावपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्मं ।
जो पढइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ।।163।।
(597) भावपाहुडड़ का भाव से पठन का फल अविचल स्थान की प्राप्ति―सर्वज्ञदेव द्वारा कथित इस समस्त भावपाहुड़ को जो पढ़ता है, सुनता है, भावना करता है वह अविचल स्थान को प्राप्त होता है । जो भावों से बढ़ता है अर्थात् भावों की परीक्षा करते हुए बढ़ता है देखिये विकारभाव आये, चाहे वह क्रोध हो, मान हो, माया हो, लोभ हो, बस उसी क्षण इस आत्मा ने इसे पीस डाला और क्षण भर को आया, वह मिट गया, मगर क्षणभर आये हुए विकारों ने सागरों पर्यंत के लिए ऐसे खोटे कर्म का बंध कराया कि अब संसार में रुलते ही रहें । ये रागद्वेष भाव तुरंत तो सुहावने लगते हैं, किसी से राग किया जा रहा है, बहुत सुहावना लगता, किसी से द्वेष किया जा रहा है तो वहाँ भी बहुत भला लग रहा, मगर यह विकारपरिणाम इनको लाखों करोड़ों भव तक परिज्ञान करेगा और एक क्षण को विशुद्धभाव से रह ले कोई, अपने आत्मा के अविकारस्वरूप का ध्यान कर ले कोई उसको फिर यह परेशानी नहीं होती । वह मोक्ष मार्ग में लगता है । मोक्ष का साक्षात् अधिकारी मुनि है । इस कारण भावपाहुड़ ग्रंथ में मुनियों को संबोध करके शिक्षा दी है कि हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वज्ञ देव के द्वारा कहा हुआ भावपाहुड़ ग्रंथ बड़े भावों से सुनो और जो-जो तत्त्व बताये हैं उनका अंतरंग में मनन करिये । मैं जीव हूँ, देह नहीं, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ अज्ञानमय नहीं । मेरे में खुद के स्वरूप में कोई विकार नहीं है । ये विकार कर्म की छाया है । इन विकारों में मैं क्यों फंसूं ? अपने विकारस्वरूप का चिंतन करता हुआ ध्यान में बढ़े, ऐसा मुनियों को संबोधन है ।
(598) सप्ततत्त्व का परिचय―मुख्य परिचय कीजिये 7 तत्त्व का, जो मोक्षमार्ग की एक आधारशिला बनाता है जीव अजीव, जीव को दो तरह से देखा गया है । अपने स्वरूप को देखा तो यह अविकार है, ज्ञानस्वरूप है । तो इस रूप से जीव को देखा तो उससे 7 तत्त्व नहीं बनते । वह तो एक परमार्थ स्वरूप है । तब पर्यायरूप में जीव को देखिये―जो औपशमिक भाव में है, क्षायोपशमिक भाव में है, कोई औदयिक भाव में है तो औदयिक भावों के रूप में निरखा गया यह जीव आखिर जीव ही तो है । वह तो तत्त्व लिया जहाँ 7 तत्त्व बने है और क्रम से ये तत्त्व थोपे जायेंगे और अजीव है कर्म जो जीव के साथ लगे हुए हैं । जीव में अजीव कर्म का आस्रव है, कर्म कैसे आते? बाहर से नहीं आते, इस जीव के साथ ही कार्माणवर्गणायें लगी हैं । जैसे यह पुद्गल लगा है वैसे ही कार्माणवर्गणायें लगी हैं, तो जैसे ही जीव ने कषायभाव किया कि वे कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बन जाती है । और जैसी कषाय रखा तेज मंद उसके अनुसार उन कर्मों में स्थिति पड़ जाती है कि ये कर्म इतने वर्षों तक सागरों पर्यंत जीव के साथ बंधे रहेंगे । उनका जब उदय आयेगा तो यह जीव उनका फल भी पायगा । यह बंध हुआ । अब जीव अपने भावों को संभाले, जीव का जो असली स्वरूप है ज्ञान, उस ज्ञान रूप में ही अपने को देखे तो कर्म न बंधेंगे और इसी उपाय से पहले बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जायेगी । निर्जरा होते-होते जब सब कर्मों की निर्जरा हो चुकेगी तब उसको मोक्ष कहेंगे । तो इस संसार में रहने से, जन्ममरण करने से आपको क्या लाभ होने का? और यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा तो एक ही लक्ष्य है कि इस संसार के जाल से हम को निकलना है, हमें इस जाल में नहीं फंसना है । अगर यह लक्ष्य बन जाये संसार के सारे दुःख जानकर तो आपको गृहस्थी में रहते हुए भी चाहे कैसी ही घटनायें घटे, आपको कभी आकुलता नहीं हो सकती ꠰
(599) सप्ततत्त्व का परिचय करके सप्ततत्त्वविकल्परहित शाश्वत स्वभाव की आराधन का फल उत्तमधाम का लाभ―7 तत्त्वों का ज्ञान करके भावना भाइये ऐसे जीवस्वरूप की कि जो अपनी सत्ता से स्वयं सहज सिद्ध है ऐसे अपने सहज परमात्मतत्त्व की उपासना से यह जीव इन कर्मों से छूटता है । तो यह जानकर कि सब कुछ लाभ हमको भावों की विशुद्धि में ही है, अन्य कामों में नहीं है, इसलिए अपने भाव शुद्ध करके यह जीवन बिताना चाहिए । कर्म यह नहीं देखते हैं कि यह कैसे खड़ा है, कैसे बैठा है, कैसे रह रहा है तो हम बंधे । कर्म देखते हैं भावों को । चाहे वह किसी धर्मस्थान में बैठा हो, चाहे शौचालय जैसी अशुद्ध जगह में बैठा हो, यदि इसकी दृष्टि आत्मस्वरूप में हो जाये तो वहाँ कर्म न बंधेंगे । तो सर्वत्र भावों की ही प्रधानता है, और जीव भावमय ही है । यह जीव पुद्गल की तरह ढेला पत्थर रूप नहीं है । यह जीव किसी भी इंद्रिय से दिख सकने वाला नहीं है । यह तो केवल चैतन्य भावस्वरूप है, तो ऐसा ध्यान बने । मैं ज्ञानमात्र हूँ, मेरे स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं । तब मेरे पर भार क्या? मैं ज्ञानघन हूँ, ज्ञान से भरा हुआ हूँ, पूर्ण हूँ, मेरे में अधूरापन है ही नहीं, फिर घबड़ाहट किस बात की? कुछ करने का काम है ही नहीं । अपने स्वरूप को ही अनुभव लूं । मेरे में सहज ही आनंद है, स्वरूप ही आनंद है, मेरे में कष्ट नहीं, फिर क्यों बाहरी पदार्थों में उपयोग फंसाकर कष्ट मानूं? तो इस तरह इस समस्त जगजाल से उपेक्षा रखना और एक ही लक्ष्य रखना अपना कि मुझको तो संसारजाल से छूटना है, मुक्त होना है । दूसरी बात मुझे न चाहिए । जो होता है सो हो, उसका मैं जाननहार रहूंगा । उसमें मेरे को रागद्वेष मोह न होना चाहिए । ऐसा निर्णय बने और फिर प्रभुध्यान करें, आत्मध्यान करें, ज्ञान में बढ़े, इस आनंद का लाभ चाहिए । सांसारिक सुखों में, इंद्रियविषयों में उलझकर मौज मानना, इसमें बड़ा धोखा है । आज इस भावपाहुड़ ग्रंथ की समाप्ति के समय एक दृढ़ निश्चय बनायें कि मुझे तो वह भाव चाहिए जिससे मुक्ति मिलती है । इस संसारजाल का रुलना हमें इष्ट नहीं है ।
।। भावपाहुड़ प्रवचन समाप्त ।।