भावपाहुड - गाथा 83: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो ꠰
ससारतरणहेदुं धम्ममोत्ति जिणेहिं णिद्दिट᳭ठं ꠰꠰83꠰꠰
(245)आत्मा की धर्मरूपता―ऊपर की गाथा में बताया कि भोगनिमित्त कोई पुण्य कार्य करे तो वह मुक्ति का कारण नहीं बनता, तो एक जिज्ञासा होती कि वह कौनसा भाव है जो मुक्ति का कारण नहीं हो सकता ꠰ इस गाथा में बतला रहे हैं कि आत्मा में लग्न होकर, रागादिक दोषों से रहित होकर यह आत्मा ही साक्षात् धर्म है, जो संसार सागर से पार होगा । आत्मा स्वयं धर्म स्वरूप हैं । धर्म क्या? सत्य ज्ञानदृष्टि का रहना । जो आत्मा का स्वरूप है वही रहे, ऐसी अवस्था को धर्म कहते हैं । सो जो आत्मा आत्मा में लीन है वह ही धर्मात्मक हैं ।
(246) मायामय दृश्यों की असारता―इस संसार में जितने मायामयी दृश्य हैं वे लुभा-लुभाकर इस जीव को कष्ट देने वाले हैं और भविष्य में दुःखी में करने वाले हैं । जब सभी लोग प्राय: इस माया में लगें हैं तो उनको देख देखकर सभी का मन प्राय: बदल जाता है, किंतु जिनको सम्यक्त्व है और आत्मकल्याण की तीव्र वांछा हैं उनको एक ही निर्णय है कि मुझे माया का क्या करना? सब बाह्य हैं, छूटने वाले हैं, जब मिले हैं तब भी छूटे हुए ही हैं । आत्मा में किसका प्रवेश है? तो जो ज्ञानी पुरुष है वह अपने श्रद्धान से नहीं फिसलता है और जिसकी धर्म में रुचि है उसका इतना पुण्य तो है ही कि उसे कोई सांसारिक बड़े कष्ट नहीं होते, जैसे खाने पीने पहिनने ओढ़ने आदिक के कष्ट, आखिर उसके इतना पुण्य तो है ही । वह विधि तो उसे मिलती, पर उससे वह चाहता कुछ नहीं है ꠰ तो यह है धर्म । आत्मा आत्मा में लीन हो और रागादिक दोषों से हट जाये । देखिये―यह बड़ी शूरता की बात है―भोग भोगना आसान है पर भोग तजना दूसरों का काम है । अनादि से ऐसी ही वासना लगी आयी कि भोग भोगने की और उनकी सहज सी बात बन रही है मगर जब ज्ञान के लिए बढ़ते
आत्मकल्याण की भावना बनती तब ध्यान आता है कि मुझे इन बाहरी भोगोपभोगों से क्या प्रयोजन? वह रागद्वेष से दूर होता है । वह आत्मा स्वयं धर्म है और संसार से तिराने का कारणभूत है ।
(247) आत्मग्का ऊर्ध्वगमनस्वभाव और निरंतरज्ञानमयपना―यह आत्मा शब्द बना है मत धातु से जिसका गमन होना भी अर्थ है । तो जो स्वभाव से ऊर्द्धगमन करे वह आत्मा है, एक अर्थ यह लगावें । जैसे किसी तूमड़ी में राज भर दी जाये और उसे पानी में डाल दिया जाये तो वह नीचे बैठ जायेगी और घुल घुलकर जैसे राख सारी निकल जाये तो उसका स्वभाव है कि वह ऊपर ही तैर आयेगी । यदि ऐसी ही कर्म की धूल जब आत्मा के साथ चिपकी है तो रागद्वेष आदिक के वश होकर वह संसार में डूबा है, रुल रहा है और जब ज्ञान रूपी जल से उस कर्म धूल को धो डाले कोई तो कर्मभार से रहित होकर यह आत्मा ऊपर ही जाता है । यह बात जरूर है कि यह आत्मा ऊपर जाता ही नहीं रहता है जहाँ तक लोक है कहा तक जाता है, तो ऊर्द्धगमन स्वभाव होने से जो ऊर्द्ध ही गमन करे वह आत्मा है । गति क्रिया दो द्रव्यों में होती है―(1) परमाणु में और (2) आत्मा में । परमाणु भी शुद्ध हो जाये याने स्कंध से हट जाये, एक रह जाये, गति उसमें भी हो सकती, पर उसका कुछ भी नियम नहीं है । गति भी हो, नीचे भी जाये, तिरछी भी जाये, ऊपर भी जाये मगर आत्मा हैं ऐसे ही जो भार से रहित हो जाये और अकेला स्व ही रह आये तो इसके ऊर्ध्वगमन का ही स्वभाव है अथवा अत धातु का अर्थ ज्ञान भी होता है जिससे यह अर्थ निकला कि जो निरंतर जाने सो आत्मा है । आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान है सो वह सदा निरंतर जानता ही रहता है । शुद्ध हो तो शुद्ध जाने, अशुद्ध हो तो रागद्वेष की लपेट के साथ जानेगा । तो इस आत्मा को इसही के स्वरूप में देखे तो वह सुद्ध्र शेद्ध एक स्वभाव है । वह रागादिकरहित है, सो जो आत्मा अपने इस सहजस्वभाव में लीन होता है वह संसार सागर से तिरता है ꠰ उसके रागद्वेषादिक सब दूर हो जाते हैं । तो संसार सागर से तिर जाये ऐसा यह आत्मा, साक्षात् धर्म रूप है ꠰