मोक्षपाहुड - गाथा 42: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणिय अवियप्यं कम्मरहिएण ꠰꠰42।।
योगी के पुण्यपाप का परिहार―यह मैं आत्मा अमूर्त ज्ञानस्वरूप हूँ इस मुझमें अपने आप अपने ही कारण स्वभावत: ज्ञान की ही विशुद्ध तरंग निरंतर चलती रहती है । यह मेरा सहज व्यवसाय है और इस ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व के सिवाय अन्य जितने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप तत्त्व हैं वे सब मुझसे जुदे हैं । मैं जैसा हूँ अपने आप मेरे में जैसा सहज परिणमन होता वही मैं हूँ । मुझे अन्य परिणमन न चाहिए । भले ही पुण्य के फल में संसार के वैभव मिलते हैं, बड़े-बड़े राजपाट ऐश्वर्य मिलते हैं, लेकिन वह सब अपवित्रता है, विकार है, वह भी मुझे न चाहिए । मुझे तो वही इष्ट है जो मेरे में अपने आप निरपेक्षतया चलता रहे, ऐसा निर्णय करने वाले योगी पुण्य पाप दोनों भावों का परिहार करते हैं । देखिये, ऐसे निर्मल भावों के होने पर जब तक संसार में रहना होगा तब तक वह बड़े पुण्य वैभव के साथ रहेगा और उससे भी विरक्त रहेगा और निकटकाल में ही निर्ग्रंथ दिगंबर बाह्य-आभ्यंतररूप से होकर शुक्ल ध्यान के प्रताप से निर्वाण पायेगा । तो एक ही निर्णय रखना है सब बात के लिए । लोक में सबसे ऊ̐चा सुख मिले उसका भी यह ही साधन है और मोक्षमार्ग और मोक्ष मिले उसका भी यह ही साधन है । क्योंकि अपना जो सहज चैतन्यस्वरूप है उस रूप अपने आपको मानना कि मैं यह हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ । देखिये, धर्मपालन अपने आपकी दृष्टि से होता है । बाहरी चीजों के मिलने से या क्रियाओं से धर्म नहीं होता । बाहरी चीजें और क्रियायें ये सुलझे हुए ज्ञानी व्यक्ति को अपने ध्येय में एक सहयोग देती हैं किसी रूप से, पर धर्मपालन होगा तो एक अपने इस चैतन्यस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभवने से होगा । जिसको इस अंतस्तत्त्व का परिचय मिला है उस जीव को जब तक मोक्ष नहीं होता तब तक बड़े ठाठबाठ, इंद्र पद, चक्रवर्ती पद, तीर्थंकर पद आदि ऊंचे-ऊंचे वैभव प्राप्त होते हैं, मगर वह ज्ञानी ऐसे महान वैभवों से भी विरक्त रहता है । तब ही उसका मोक्षमार्ग चल रहा और वह इस यही स्वभाव के आलंबन के प्रसाद से मुनिव्रत से गुजर कर निर्वाण को प्राप्त करता है । तो एक ही दृष्टि रखें ।
अंतस्तत्त्व के आश्रय का सर्व महान चमत्कार―‘एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ।’ यदि अपने आपके आत्मस्वरूप की साधना बना ली, धीर होकर अपने आपके अभिमुख होकर यदि एक अपने आपकी साधना बना ली तो समझो कि मैंने सब कुछ पाया । और बाहरी चीजों पर ही दृष्टि रही या कुछ थोड़े ऊपरी व्यवहार धर्म पर ही दृष्टि रही और उसमें ही पूरा संतोष मानकर चलें तो कुछ न बन पायेंगे । जो बात योगी करते हैं वही बात श्रावकों को करना चाहिए । अंतर सिर्फ चारित्र में बढ़ने का रहता है । भीतरी बात एक समान ही होनी चाहिए । वह भीतरी बात क्या है ? आत्मस्वभाव का आश्रय और आत्मस्वभावरूप ही अपने आपको अनुभवने की धुन, यह बात योगियों के होती है, यह ही बात श्रावकों के होना चाहिए । जिस श्रावक के आत्मस्वभाव की धुन बनी है वह अपनी परिस्थिति के कारण उसका प्रयोग नहीं कर पाता, लेकिन उसकी प्रतीति के बल पर ही अनेक कर्म कट जाते हैं । जैसे किसी ने कोई बड़ी अनोखी मीठी चीज खायी और वह खाने का लोभी है तो खाकर उसे उसका ध्यान रहता है, उसकी कथा गाता है और उसका ख्याल करके एक अपनी शान बनाता है । तो ज्ञानी पुरुष जिसने कि आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया है और उस अनुभव में सहज आनंद पाया है वह उतने में अनुभवे हुए आनंद का ध्यान करके निरंतर भीतर में निराकुल रहता है । तो श्रावकजनों को भीतरी काम यही एकमात्र करना योग्य है कि अपने आपके उस शाश्वत चैतन्यस्वरूप में ‘यह मैं हूँ’ ऐसा ध्यान बनायें, अमुकचंद, अमुकलाल, अमुकप्रसाद, अमुक गांव वाला, अमुक वैभव वाला, ऐसे कुटुंब वाला, अमुक का पिता, अमुक का पौत्र, ऐसा अनुभव मुझे न चाहिए । ये सब व्यवहार की बातें हैं । अपने आपको अनुभवना चाहिए कि मैं सबसे निराला चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ और ऐसे अनुभव में, ऐसे ध्यान में जब एक सहज आनंद का अनुभव होता है तब वह कह उठता है, निर्णय करता है कि मुझ को तो बस यह ही स्थिति चाहिए । संसार की अन्य जितनी भी स्थितियां हैं बड़ी-से-बड़ी, ऊ̐चा-से-ऊ̐चा राज्यपद, मिनिस्टर, राष्ट्रपति आदिक ये कुछ भी पद मुझे न चाहिए । जो अपने आत्मवैभव में तृप्त हैं वे सबसे महान हैं । जो अपने आत्मवैभव में तृप्त नहीं हो सकता है, बाह्य पदार्थों में तृष्णा करता है तो वह उस तृष्णा के कारण हैरान हो-होकर जीवन गुजारता है । एक यह अनोखा वैभव आत्मवैभव जिसने प्राप्त कर लिया उसने सब कुछ पा लिया समझिये ।
सहज स्वायत्त स्वत्व का आश्रय करने वाले योगी की चारित्रमयता―जिसको किसी प्रकार की अधीनता नहीं, धनी हो, निर्धन हो, कुटुंब वाला हो, बिना कुटुंब का हो,साथियों में रहता हो या अकेला पड़ा रहता हो, किसी भी स्थिति में हो, जो इस सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव करेगा वह सर्व संकटों से छूट जायेगा । तो यह योगी इस प्रकार स्व और पर को जानकर पुण्य-पाप का परिहार करता है और इस ही स्थिति से कि पुण्यपापभाव न जगें और मात्र एक ज्ञानमात्र का ही अनुभव बने इसी को जिनेंद्र भगवान ने चारित्र कहा है । जैसे कहा जाता कि चारित्र का पालन करो तो इसका आंतरिक अर्थ तो यह है कि अपने ज्ञान को अपने ज्ञानस्वरूप में मग्न कर दो और यह बात न बन सके तो और यहाँ-वहाँ के विकल्प दौड़ रहे हों तो व्रत, नियम, तप, शील संयमरूप आचरण करके रहो और वहाँ सुरक्षित होकर अपने इस ज्ञानस्वरूप का ध्यान बनावो । व्यवहारचारित्र की बड़ी उपयोगिता है पात्रता रखने के लिए, किंतु जो व्यवहारचारित्र को ही निश्चयचारित्र समझ लेते हैं उनकी गति आत्मस्वरूप में मग्न होने की नहीं बन पाती । और जो लोग निश्चयचारित्र के स्वरूप की बात सुनकर केवल उस ही की बात करते हैं याने गप्प करते हैं और व्रत, तप, शील संयम की उपेक्षा करते हैं, उसको निरादर की दृष्टि से देखते हैं वे तो किसी काम के नहीं रहे, इस कारण जिनेंद्र देव के द्वारा बताये गए सिद्धांत से चलते हुए आत्मस्वभाव का ध्यान करना चाहिए । तो चारित्र का यहाँ लक्षण बताया है आत्मस्वरूप में स्थिर होना । जैसे यह ज्ञान दुनियांभर की बातों का ख्याल करता है, ध्यान करता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट का भाव बनाता है, रागद्वेष भी करता है, आकुलित भी होता है तो किसी भी बाह्य तत्त्व का ध्यान न आये और एकमात्र ज्ञान का ही स्वाद चले, ज्ञान में ज्ञान ही समाया हुआ रहे, ऐसी स्थिति बने, उसको कहते हैं चारित्र । सो जब तक इस जीव के पुण्य-पाप में परिणति रहती है तब तक यह ज्ञान की स्थिति कहां बन पाती, क्योंकि पाप पुण्य के भाव कषाय से उत्पन्न होते हैं । कषाय भी दो तरह के हैं जैसे (1) शुभ राग और (2) अशुभ राग । मगर स्वभाव के प्रतिकूल विभाव ही हैं पुण्य भी और पाप भी । तो पुण्य-पाप की स्थिति में संकल्प विकल्प होते हैं और संकल्प विकल्प की दशा में शुद्ध यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता । इस ही के लिए आचार्य महाराज यहाँ मुनिजनों को आदेश कर रहे हैं कि स्व और पर का यथार्थस्वरूप जानकर पुण्य और पाप का परिहार कर अपने उस अखंडज्ञानस्वरूप का अनुभव करें ।