युक्त्यनुशासन - गाथा 10: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
येषामवक्तव्यमिहात्मतत्त्व- देहादनन्यत्वपृथसम्यक्त्वकक्लृप्ते: ।
तेषां ज्ञतत्त्वेऽनवधार्यतत्त्वे
का बंधमोक्षस्थितिरप्रमेये ।।10।।
(37) अवक्तव्यैकांतवाद में दोषापत्ति―जिन पुरुषों के यहाँ ऐसा सोच करके कि इन जीवों को देह से भिन्न मानते तो दोष है, अभिन्न मानते तो दोष है, इस कारण यह आत्मतत्त्व अवक्तव्य है । इस तरह से यदि कोई अवक्तव्यपने का एकांत कर जाये तो वह भी अनेक दूषणों से दूषित है । अवक्तव्यत्व के एकांतवादियों के यह समस्या सामने आयी थी कि अगर आत्मा और देह को एक मान लेते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर और आत्मा एक हो गए और जब आत्मा व शरीर एक हो गए तो शरीरके साथ आत्मा रहा । जब तक शरीर है तब तक है, परभव में फिर जायेगा कैसे? शरीरसहित कोई भी तो जीव परभव में नहीं जाता । और यदि कहा जाये कि नहीं जाता और यहाँ शरीर नष्ट होता है, मुर्दा बनता है, जलाया जाता है तो इसके मायने आत्मा भी
नष्ट हो गया क्या? तो देह को, आत्मा को सर्वथा एक मानने पर संसार का अभाव बन जाता है, क्योंकि देहसहित आत्मा अन्य भव में तो जा नहीं सकता, इस कारण उसी भव में उसका विनाश हो जायेगा । और विनाश हो और नित्य रहे; ये दो बातें कैसे संभव हैं? विनाश होना मानने पर तो ठीक चार्वाक मत आयेगा याने यह शरीर पृथ्वी आदिक चार भूतों से बना है और ये भूत विघटे तो आत्मा भी विघट गया यों दोष आता है और यदि आत्मा को देह से भिन्न मान लिया जाता तब फिर देह में कुछ भी काम होते रहे, फिर इस जीव को दुःख क्यों होता? और और विकल्प क्यों होते? तो जीव को देह से भिन्न मानने पर भी बात नहीं बनती । तो इस कारण जीव को देह से भिन्न मानना भी नहीं बनता और अभिन्न मानना भी नहीं बनता । तो यह अवक्तव्य है । इस तरह अवक्तव्यपने का यह एकांत बनता है । तो उस एकांत में क्या दोष है कि जब वह अवक्तव्य रहा तब फिर अप्रमेय रह गया याने उसका कुछ निर्णय ही नहीं बन सकता, ज्ञान में ही नहीं आ सकता । तो फिर बंध की स्थिति और मोक्ष की स्थिति वहाँ बन कैसे सकती है? इस कारण से अवक्तव्यवादियों का एकांत मानने पर बंध और मोक्ष को सारी चर्चायें असंगत हो जाती हैं । तो यह अवक्तव्यवाद भी उचित नहीं ठहरता ।