युक्त्यनुशासन - गाथा 64: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
इति स्तुत्य: स्तुत्यैस्त्रिदशमुनिमुख्यै: प्रणिहितैः,
स्तुत: शक्त्या श्रेय: पदमधिगतस्त्वं जिन ! मया ।
महावीरो वीरो दुरितपरसेनाऽभिविजये
विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाप्रतिनिधौ ꠰꠰64।।
(217) दुरित परसेनाऽभिविजय से वीर जिनेंद्र को वीरता का आख्यान―हे वीर जिनेंद्र ! आप दुरित पर की सेना को पूर्णरूप से पराजित कर चुके हैं अतएव वीर हैं । दुरित मायने मोहादिक कर्मशत्रु, दुरित मायने पाप और वे भी उत्कृष्ट पाप, ऊंचे पाप, और वे अन्य हैं, ऐसे मोहादिक कर्मशत्रुओं की सेना को पूर्णरूप से आपने पराजित किया है । मोह दो प्रकार का है―(1) द्रव्यमोह और (2) भावमोह, और ये दोनों ही दो प्रकार के हैं―(1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह । आपने अपने समाधिबल से अंतस्तत्त्व के आश्रय के बल से सर्व प्रकार के मोह को दूर किया है । जैसे-जैसे द्रव्यमोह दूर हुआ वैसे ही वैसे आपने अपना भावमोह दूर किया । द्रव्यमोह के दूर होने में आत्मपरिणाम कारण है और भावमोह के दूर होने में द्रव्यमोह का क्षय कारण है । ऐसा इसमें निमित्तनैमित्तिक योग है । मोहनीय कर्म के 28 प्रकार हैं, जिनमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यग्प्रकृति तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ―इन 7 प्रकृतियों का सर्वप्रथम क्षय हुआ था और इस क्षय के प्रसाद से क्षायिकसम्यक्त्व प्रकट हुआ । सम्यक्त्व प्रकट होने पर अंत:प्रकाश सही जगता है और ज्ञानमात्र चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व हूं―यह प्रतीति निरंतर रहती है और इस प्रतीतिबल से प्रभु की शेष बची हुई 21 प्रकृतियों का भी विनाश हुआ । जिसमें 20 प्रकृतियों का नाश 9वें गुणस्थान में हुआ और सूक्ष्म लोभ का नाश 10वें गुणस्थान के अंत में हुआ । इस प्रकार 28 प्रकार के मोह से रहित होकर आप क्षीणमोह हुए । मोह को पराजित करना आत्मा का अद᳭भुत वीरपना है । तो हे वीर जिनेंद्र ! आप वीर्यातिशय को प्राप्त हैं । ऐसी शक्ति विशेष से आप युक्त हैं कि जहाँ मोह की सेना भी न टिक सके ।
(218) वीर जिनेंद्र के गुणों की उपासना से परमपदप्राप्ति की भावना―हे वीर जिनेंद्र ! आपने मोक्षपद को प्राप्त किया, इस कारण आप महावीर हैं और देवेंद्र मुनींद्रों के द्वारा जो कि स्तुतिकारों में बड़े प्रसिद्ध हैं उनके द्वारा एकाग्र मन से आप स्तवन करने योग्य हैं । प्रभु जिनेंद्र का स्तवन जो कि गणधरदेव कर सकते हैं और जो इंद्र कर सकते हैं वह एक अद᳭भुत स्तवन होता है । तो ऐसे बड़े इंद्रों द्वारा और गणधर आदिक
मुनींद्रों द्वारा आपका स्तवन किया गया है और आपके शासन की महिमा जानकर मुझ परीक्षाप्रधानी के द्वारा भी आप यथाशक्ति स्तवन किए गए हैं ꠰ इस कारण हे प्रभो ! आप अपने ही मार्ग में प्रतिनिधिरहित हैं अर्थात् स्वयं आप स्वतंत्र समर्थ हैं ꠰ आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक᳭चारित्ररूप मोक्षमार्ग का स्वयं अनुष्ठान किया है, जिसकी जोड़ का कोई मार्ग होना योग्य नहीं है, सो ऐसे हे वीर जिनेंद्र ! मेरी भक्ति को विशेष रूप से चरितार्थ कीजिए अर्थात् मोक्ष के मार्ग की निरंतरायता बने और उस मार्ग पर जो चलें उनको अभीष्ट फल की सिद्धि हो । जो पुरुष इस मोक्षमार्ग में चल रहे हैं, परमपद को प्राप्त कर चुके हैं उनके इस अभीष्ट फल की सिद्धि को देखकर उसका भक्तिभाव, हार्दिक अनुराग उन श्रेष्ठ महात्मा और परमात्मा के प्रति उत्तरोत्तर बढ़े, जिससे कि मैं भी उसी मार्गं की साधना करता हुआ कर्मशत्रु की सेना को जीतने में समर्थ होऊं । जिस-जिस उपाय से प्रभु चले, आत्मा में जैसे-जैसे परिणाम विशुद्ध हुए और स्वत: ही जैसी-जैसी दशायें होती गईं ये सब घटनायें होकर ये भी निश्रेयस पथ में बढूं, और अत्यंत कल्याणरूप मोक्षपद को प्राप्त करके कृतकृत्य होऊँ ।
(219) कृतकृत्य अवस्था में परम संतोष―कृतकृत्यता में संतोष होता है ꠰ जब तक चित्त में कोई काम करना शेष होता है तब तक वहाँं असंतोष है । जहाँ ऐसी स्थिति बनती है कि अब करने को कुछ भी नहीं रहा अर्थात् जो श्रेष्ठ करने योग्य है वह सब किया जा चुका तो ऐसी कृतकृत्यता की स्थिति में आत्मा को संतोष होता है । कृतकृत्यता की स्थिति मोक्ष में है । जहाँ केवल आत्मा ही आत्मा किसी भी पर का संबंध नहीं, विशुद्ध निर्मल ज्ञान, जो ज्ञान समस्त तीनों लोक, अलोक को जानता हुआ भी अपने आपमें ही मग्न है और इसी कारण जहाँ अनंत आनंद प्रकट हुआ है, ऐसा जो नि:श्रेयस पद है वह ही कृतकृत्यता का साधन है । तो समाधिभाव से पहले जो विचारों का परिवर्तन चलता रहता है, पदार्थों की ओर आकर्षण रहा करता है वहाँ सब कृतकृत्यता ही है । सो हे प्रभो ! मैं कर्मशत्रुओं को जीतने में समर्थ होऊँ । इन नि:श्रेयसों से मोक्षपद की प्राप्ति करूँ और अपना सफल मनोरथ करूं । क्योंकि वास्तविक विवेकसहित भक्ति ही मार्ग पर चलने में सहायक होती है । वस्तु का पूर्ण निर्णय किए बिना केवल लोकरूढ़ि को देखकर उत्पन्न होने वाली भक्ति और ऐसा ही जहाँ स्तवन हुआ करता है वहाँ मार्ग नहीं मिल पाता । और जहाँ विवेक है सत्य और असत्य का, नित्य और अनित्य का बोध है और सत्य आत्मा की ओर ही झुकाव है, फिर जो स्तवन होता है उससे मार्ग पर चलना सुगम होता है, और जो उस मार्ग पर चलता है उसकी स्तुति करना सार्थक होता है तो स्तवन पूरा किया जाने पर योजनार्थ केवल यह ही कामना रखनी है कि मेरे को इस स्तवन के फल में एक उपलब्धि हुई । अनादिकाल से परंपरा से बसे चले आये इन कर्मजालों से मैं छुटकारा पाऊं, विषम परिणमनों से पृथक् होकर मैं शांति, समाधिभावरूप परिणमन पाऊं और सर्व कर्मों से रहित होकर मोक्षपद पाऊं । मोक्ष से आगे फिर इस जीव की कोई मंजिल नहीं । यही एक उत्कृष्ट पद है । मोक्षदशा में यह जीव अनंतकाल तक अनंत आनंदरूप वर्तता है, ज्ञानमात्र जानता है और अंतरंग में सहज आनंद जगता है । एक ही धारा से ऐसा ही परिणमन सदाकाल के लिए मोक्ष में चलता है और कभी भी विषम परिणमन नहीं होता । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके स्तवन के फल में मैं ऐसा ही मोक्षपद चाहता हूँ ।
꠰꠰ युक्त्यनुशासन प्रवचन समाप्त ꠰꠰