रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 44: Difference between revisions
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Revision as of 11:56, 17 May 2021
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च ।
आदर्शमिव तथामतिरवेति करणानुयोगं च ।।44।।
प्रथमानुयोग के वर्णन के पश्चात् क्रम प्राप्त करणानुयोग के वर्णन का प्रारंभ―यह दूसरा अध्याय सम्यग्ज्ञान के प्रकरण का चल रहा है । सम्यग्ज्ञान का लक्षण बताया था कि जो न कम जाने,न ज्यादह जाने न उल्टा जाने,न संदेहसहित जाने ऐसे ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । फिर यह सम्यग्ज्ञान चार अनुयोगों से मिलेगा । भगवान जिनेंद्रदेव की दिव्यध्वनि से प्रसारित ये चार अनुयोग हैं जिनका कि आचार्य परंपरा से अब तक बोध चला आया है और आज भी शास्त्रों में निबद्ध है उन अनुयोगों का ज्ञान करें । वे अनुयोग चार प्रकार के बताये गए―(1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग और (4) द्रव्यानुयोग । पहिले प्रथमानुयोग का वर्णन किया गया था । उसका नाम प्रथमानुयोग क्यों पड़ा कि धर्ममार्ग में प्रवेश करने वाले को यह प्रथमानुयोग उत्साह पैदा करता है तब वह आगे बढ़ता है । इसी कारण इसका नाम प्रथमानुयोग है । जिसमें धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का पुराण पुरुषों के चरित्र में वर्णन किया है । कौन महापुरुष कैसे उत्पन्न हुवे कैसे जीवन चला,कैसे विरक्त हुए,कैसे निर्वाण पाया? उनके चरित्र के सुनने से अपने को भी धर्म मार्ग में लगने की प्रेरणा मिलती है । वास्तव में तो हम आपको मात्र धर्म ही शरण है,दूसरा शरण नहीं है । एक वैज्ञानिक बात है अपने आत्मा के संबंध में जैसे कि बाहरी अमुक चीज का अमुक से संयोग हुआ तो क्या अवस्था बनती है? अगर उस चीज में से उस सयोगवाली चीज को हटा दिया जाय तो क्या अवस्था बनती है? यह ही तो वैज्ञानिक प्रयोग है,ऐसे ही अपने आत्मा में देखें―पर पदार्थों का संयोग होने से आत्मा की क्या अवस्था बनती है? जीव है एक ज्ञानस्वरूप पदार्थ । जैसे बाहरी पुद्गलों में देखते हैं कि रूप है,रस है,गंध है,अमुक है ऐसे ही आत्मा में तो बताओ क्या है? वहाँ रूप नहीं रस नहीं गंध नहीं स्पर्श नहीं तो क्या है? ज्ञानप्रतिभास चेतना । जैसे आकाश अमूर्त है और वस्तु है । आकाश में चेतना नहीं,आत्मा में चेतना है,तो यह है ज्ञानमात्र पदार्थ । इस आत्मा के साथ अन्य वस्तुवों का संयोग कर लेने से आत्मा संसार में दुःखी होता है,चारों गतियों में प्रमाण करता है ।
दुःखों का कारण अन्यसंयोग―कर्म का संयोग सबके साथ है मगर कर्म के बारे में अन्य लोग बहुत कम जानते हैं । हां जैन शास्त्रों में कर्म के बारे में इतना वर्णन आया है जितना कि संपूर्ण जैनागम का आधा । वह वास्तविक चीज है । जैसे शरीर है यह मोटा पुद्गल है वैसे ही कर्म है वह एक सूक्ष्म पुद्गल है,पर है वह अचेतन रूप,रस,गंध,स्पर्श वाला अत्यंत सूक्ष्म । सो जीव के जब विकार जगता है तो वे कर्मपरमाणु कर्मरूप बन जाते है । एक तो उनका संयोग लगा है जीव के साथ । एक शरीर का संयोग लगा है जीव के साथ सो तो प्रकट मालूम हो रहा है । इन दो के लिए क्या करें? लगा है अभी,मगर यह जीव इनके अलावा धन,मकान,परिजन,कुटुंब आदिक अनेक लोग इनका भी लगाव बना डालते है । सो जीवों के साथ कितना परपदार्थों का लगाव चल रहा है उसके फल में जीव की आज क्या दशायें हैं । दुःखी हैं । धन बढ़ गया तो भी दुःख है,धन कम हो गया तो भी दु:ख है,जिनके बालबच्चे हैं वे भी दुःखी हैं,जिनके बालबच्चे नहीं हैं,वे भी दुःख मानते । संसार की कौनसी स्थिति है कि जिसमें शांति मिलती हो जीवको? पुत्र कुपुत हुआ तो भी दुःख मानते । सपूत हो गया तो भी दुःख मानते । बल्कि कुपुत होने में तो एक बार उससे मन हटा लिया और अगर वह उद्दंडता करता है तो जाहिर कर दिया कि मेरा इससे कुछ मतलब नहीं,निवृत्त हो गए और यदि सपूत लड़का है तो उसके राग में आकर जिंदगी भर उसके पीछे रुलेगा,मैं इसे खूब धन जोड़कर धर जाऊं,इसको खूब पढ़ा लिखाकर होशियार कर दूं,इसको कोई कष्ट न होने दूं... यों कितने ही विकल्प उसके पीछे मचते हैं । नहीं है पुत्र तो मन में उसकी आशा करके दुःख मानते है । अच्छा धन बढ़ गया तो भी दुःख मानते हैं,यह तो धनी लोग खुद अनुभव करते होंगे । कभी-कभी तो लोग ऐसा भी विचार कर डालते कि इससे तो हमारी 50 वर्ष पूर्व की स्थिति अच्छी थी जब हम थोड़ा ही काम करते थे या थोड़ा ही धन था । यहाँ तक ख्याल कर डालते और यदि कम धन है तो उन धनिकों को देखकर भीतर ही भीतर भुनते रहते,...हाय कैसा पाप का उदय है कि मुझे अधिक धन न मिला ।
कर्म के संयोग वियोग के परिणाम―अच्छा कर्म के संयोग की बात देखो―पुण्य कर्म का उदय आया तो कौनसी विजय प्राप्त कर ली? पुण्यकर्म के उदय से धन वैभव राज्यपद,चलाबा,प्रभुता,हुकूमत ये ही तो मिलते हैं । इनके मिलने से कौनसी आत्मा की विजय हो गई? तो यह सब जितने संयोग हैं ये संयोग होने से आत्मा की बुरी दशा हो रही है । और संयोग न रहे,मानों कर्म हट गए जीव के,शरीर हट गया तो वह सिद्ध दशा हो गई । केवल ज्ञानज्योति आत्मा जिसके विकल्प नहीं,जिसके आरंभ नहीं,जिसके रागद्वेष मोह नहीं,केवल ज्ञान से समस्त विश्व को युगपत् जानते रहते हैं,वह है सिद्ध दशा । तो यह एक निर्णय बना लें कि जितना भी परपदार्थ का संबंध है वह मेरे आत्मा के अहित के लिए है । मानो एक भव में किसीने प्रशंसा कर दी हम बड़े कहलाये,लोगों ने अच्छा माना,पर इस मानने से मेरा गुजारा तो न चलेगा । मरण होगा,आगे क्या दशा होगी,उसमें कोई रक्षा करने वाला तो नहीं । इसलिए पुण्यानुसार जो आये उसमें ही व्यवस्था बनाना हमारा काम है और इसको मैं अधिक पा लूं ऐसी कल्पना लाना हमारा काम नहीं । यदि ऐसी धीरता है तो धर्म में मन लगेगा । धर्म में उत्साह होगा । सो पहले यह निर्णय बनाना चाहिए कि उदयानुसार जो होगा उसमें हम व्यवस्था बना लेंगे,हम आशा तृष्णा में अपना चित्त न डुलायेंगे । इतनी धीरता होती है सम्यग्दृष्टि जीव में । तो ऐसे ज्ञानबल से कुछ चिंतन करें और पुराण पुरुषों के चरित्र को सुनें तो उससे आपको बड़ी स्फूर्ति मिलती है । सो प्रथमानुयोग का वर्णन पहले किया था,आज करणानुयोग का वर्णन किया जा रहा है ।
करणानुयोगमें कथित लोकरचना का दिग्दर्शन―करणानुयोग के शास्त्रों में कौनसा विषय आता है? तो एक तो लोक और अलोक की रचना । लोक कितना बड़ा है जब यह ज्ञान में आता है तो राग और मोह शिथिल हो जाता है और जगत में प्रेम करने की उमंग नहीं रहती । कितना बड़ा है लोक? तो पहले यहीं से चलो । जहाँ हम आप बैठे है जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखंड के जरा से हिस्से में । यह जंबूद्वीप कितना बड़ा है? तो यह थाली की तरह गोल है और एक किनारे से दूसरे किनारे तक जिसे सलाका कहते वह एक योजन है । और एक लाख योजन होता है दो हजार कोश का और एक कोश होता है करीब पौने तीन मील का सही मायनेमें । यों तो कहीं सवा मील का कोश मानते,कहीं दो मील का,पर कोश का सही-सही प्रमाण 3 मील का होता है धनुष के प्रमाण से । तो अब समझिये कि यह जंबूद्वीप कितना बड़ा है? उसको घेरकर लवण समुद्र है जो एक तरफ दो लाख योजन का है । दूसरी तरफ भी 5 लाख योजन का है । मगर लवण समुद्र के आखिरी किनारे से सामने के लवण समुद्र का आखिरी किनारा नापा जाय तो 2 लाख योजन पड़ेगा बीच का हिस्सा । फिर लवण समुद्र को घेरकर दूसरा द्वीप है वह एक तरफ है चार लाख योजन और दूसरी तरफ भी चार लाख योजन,उसको घेरकर है एक समुद्र । वह दूने विस्तार वाला है । फिर तीसरा द्वीप,चौथा द्वीप समुद्र,इस तरह अनगिनते द्वीप समुद्र हैं याने नील शंख महाशंख की तो बात ही क्या है । कई अंक प्रमाण संख्यात बहुत बड़ा होता है । संख्यात की भी गिनती नहीं पर उससे भी आगे कितने अनगिनते द्वीप समुद्र हैं और वे एक दूसरे से दूने-दूने विस्तार वाले हैं तो देखियेकितना विस्तार हो गया । इतना सारा विस्तार अभी समतल के हिसाब से भी एक राजू नहीं है,फिर एक राजू चारों तरफ होवे जिसे घनराजू कहते,मोटा भी एक राजू,विस्तार भी एक राजू । इतने को कहते हैं एक राजू । ऐसे-ऐसे 343 घनराजू लोक है जिसको हम आप दो अंगुल के नक्शा से बना डालते हैं ।
लोकरचना के परिचय से लाभ―इतने बड़े लोकं में कोई भी प्रदेश नहीं बचा जहाँ हम आप अनंत बार पैदा न हुए हो,मरे न हों और इतने बड़े लोक के सामने आपकी नगरी । आपका देश तो उतना सा भाग है जैसे बड़े समुद्र में से एक बूंद । तो इतने बड़े लोक में जब मेरा कुछ नहीं तो फिर जरासी जगह में जितना परिचय होता है उसकी क्यों ममता करना? सारी दुनिया पर ध्यान दें तो जरा से क्षेत्र की ममता दूर हो जायगी । यह भी क्या चीज रही । इस लोक से परे है अलोक,जिसकी सीमा ही नहीं है अलोक के मध्य अवस्थित लोक की क्या-क्या रचनायें है उनको देखो । जिस जगह हम बैठे हैं यह कहलाता है मध्यलोक और यह मध्यलोक 1 हजार योजन तक तो नीचे चला गया और 99 हजार योजन ऊपर तक चला गया,इसको मध्यलोक कहते है जो सूर्यचंद्र तारे दिख रहे ये ऊर्द्ध लोक में नहीं है,ये मध्यलोक में है । तो अधोलोक में 7 पृथ्वी हैं । पहली पृथ्वी तो यह ही है जिसपर हम आप बैठे है । यह पृथ्वी इतनी मोटी है कि जिसमें विभाग बड़े-बड़े आये है । तो पहले विभाग में कुछ भवनवासी व्यंतर रहते हैं,दूसरे विभाग में भी भवनवासी व्यंतर रहते हैं और दूसरे भाग में नारकी रहते हैं,उससे नीचे बहुत आकाश हैं,फिर दूसरी पृथ्वी लगी उसमें दूसरे नारकी हैं,फिर ऐसा ही आकाश है,फिर पृथ्वी है,इस तरह नीचे 7 नरक हैं और 99 हजार योजन से ऊपर स्वर्ग हैं,फिर ग्रैवेयक है,अनुदिश है,अनुत्तर है,सबसे ऊपर सिद्धलोक है । लोक की रचना जरा स्पष्ट ज्ञान में हो तो मिली हुई जगह में ममता नहीं रहती । इसका क्या मूल्य है कितने समय का रहना है और इससे क्या संबंध है? तो करणानुयोग में लोक और अलोक का विभाग और रचना बतायी गई हैं ।
करणानुयोग में वर्णित कालरचना का दिग्दर्शन―करणानुयोग में काल का परिवर्तन बताया गयाहै । काल परिवर्तन सिर्फ भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में होता है,थोड़ासा फर्क क्लेच्छ खंड मेंभी पड़ता है,पर मुख्य अंतर आर्य खंड में है । जैसे हम आप इस भरत क्षेत्र के आर्यखंड में है तो क्या काल परिवर्तन चलता है । आज पंचम काल है अवसर्पिणी का । अवसर्पिणी उसे कहते हैं जिसमें दिन प्रतिदिन बात घटती चली जाय । बल घटे,शरीर घटे,उम्र घटे,श्रद्धान घटे,धर्म घटे,यों ही सभी बातों में लगा लीजिए । जहाँ घटती की ओर सब बातें चलें उसे कहते हैं अवसर्पिणीकाल । और दूसरा होता है उत्सर्पिणीकाल । जिसमें शरीर बढ़े,बल बढ़े,आयु बढ़े,ज्ञान बढ़े... यों ही सब बातें बढ़ती की ओर चलें उसे कहते हैं उत्सर्पिणीकाल । तो प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 6-6 काल होते हैं जिनका संख्या से आप ज्ञान करले―पहला,दूसरा आदिक । तो आज यह पंचमकाल है । अवसर्पिणी काल है इसके बाद छठा काल आयगा । उस छठे काल में धर्म,अग्नि ये कुछ न मिलेंगे । तब मनुष्य तो होंगे,तिर्यंच भी होंगे पर सब मांसभक्षी होंगे । मनुष्य-मनुष्य को मारकर खायेंगे । जैसे कि यहाँ एक तिर्यंच दूसरे तिर्यंच को मारकर खा लेता है,फिर तिर्यंचों को मारकर खा जाना उनके लिए कोई कठिन बात नहीं । ऐसा ही आयगा छठा काल जिसमें मनुष्य केवल एक हाथ के लंबे होंगे । इस छठे काल के बाद प्रलय होगा । 7-7 दिन 7 तरह की खोटी वर्षा होगी―अग्नि वर्षा,तेज हवा चलना,तेज विष जैसी बरसा । मालूम पड़ता है कि आज जो बम हाइड्रोजन और रासायनिक चीजें,विष भरी चीजें जो तैयार हो रही है वे शायद प्रलय के ही साधन अभी से बन रहे है । आखिर वे एक न एक दिन फूटेंगे । चाहे स्वयं फूटे चाहे किसी के फोड़नेसे? प्रलय बताया है छठे काल के अंत में पर उसके आसार अभी से दिखने लगे ।
छठे काल के अंत में प्रलय के बाद कालरचना का दिग्दर्शन―इस प्रलय के बाद अवसर्पिणीकाल खतम हो जायगा फिर उत्सर्पिणीकाल लगेगा । तो उत्सर्पिणीकाल में पहला होगा छठा काल जिसमें इस छठे काल की तरह ही बात होगी,मगर बढ़ने की ओर होगी । शरीर बढ़ेगा,ज्ञान बढ़ेगा,बल बढ़ेगा,आयु बढ़ेगी,फिर आयगा पंचमकाल । जो इस काल की तरह होगा । मगर यहाँ तो घटती की ओर है और उस पंचमकाल में बढ़ती की ओर होगा । फिर होगा चौथा काल । जिसमें 24 तीर्थंकर होंगे,फिर आयगा तीसरा भोगभूमि,दूसरा आयगा भोगभूमि और पहला आयगा भोगभूमि । यहाँ उत्सर्पिणीकाल खतम हो जायगा फिर अवसर्पिणीकाल लगेगा तो पहला काल आयगा भोगभूमि,दूसरा भोगभूमि,तीसरा भोगभूमि,चौथे काल में 24 तीर्थकर होंगे,फिर वही पंचमकाल जैसा कि आज है । प्रश्न―भोगभूमि किसे कहते? उत्तर―भोगभूमि में कुछ आजीविका चलाने के लिए खेती व्यापार,सेवा आदिक कार्य नही करने पड़ते । वहाँ ऐसे कल्पवृक्ष होते 10 प्रकार के जिनसे कि आवश्यक सभी चीजें प्राप्त होती रहती हैं । वैसे हम यह नहीं बता सकते कि किस तरह के होते थे कल्पवृक्ष क्योंकि उन्हें आँखों देखा नहीं पर शास्त्रों में आयी हुई बात असत्य नहीं है । यहाँ भी तो देखने में आता कि अनेक वृक्ष ऐसे होते जिनके पत्ते स्वयं आभूषण जैसे होते । कभी देखा होगा कि बच्चे लोग नीम के गल्ले पहन लेते है तो वे भी आभूषण जैसे लगते । कीकर की फली भी गोल मटोल आभूषण जैसी होती । वहाँ कुछ विशेष प्रकार के होते होंगे । तो ऐसे ही कितने ही आभूषण उन कल्पवृक्षों से प्राप्त होते हैं । वस्त्र वाले,बर्तन वाले,आभूषण वाले,बाजे वाले यों 10 प्रकार के कल्पवृक्ष पाये जाते हैं जिनसे जो चाहे प्राप्त करलो । और वहाँ भूख की वेदना भी बेर प्रमाण आंवले प्रमाण हैं । किसी को तीन दिनमें,दूसरे काल में दो दिन में,तीसरे काल में एक दिन में,इतनी भूख है । मतलब कि वहाँ ऐश आराम भोग के बड़े अच्छे साधन है । और कर्मभूमि में ये सब बातें नहीं होती,वहाँ तो खेती,व्यापार,सेवा आदिक करके आजीविका चलाना होता हे । तो छह काल का स्वरूप जानने से यह बात ज्ञान में आती है कि ऐसे उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंत बीत गए । इतने अनंतकाल में यदि यह 100-50 वर्ष का जीवन मिला है तो इसमें क्या ममत्व करना? तो काल का परिवर्तन जानने से भी मोह ममत्व दूर होता है ।
करणानुयोगमें वर्णित चतुर्गतिभ्रमण का दिग्दर्शन―करणानुयोग में तीसरी बात कही गई मुख्यता से चार गतियों में परिभ्रमण । (1) नरक (2) तिर्यंच (3) मनुष्य और (4) देव । इनमें कैसा स्थान है उनका कैसा भाव है । गुणस्थान जीवसमास मार्गणा आदिक जो कुछ वर्णन आता है वह यह करणानुयोग संबंधी ही तो है । नरकगतिमें कैसे जन्म होता? जो मनुष्य बहुत आरंभ और परिग्रह में मूर्छा करता है वह नरकायु का बंध करता है और नरकायु में गमन होता है । इस असार मायामयी संसार में इन दिखने वाले लोगों में सबसे बड़ा कहलाऊं इस भावना के बराबर मूढ़ता और कुछ नहीं है । आत्मा का ज्ञान नहीं इस कारण इस ओर चित्त जाता है । कोई कल्पना से बड़ा नहीं बनता । जिसकी योग्यता है,जिसका उदय है वह सहज बड़ा बनता है बड़ा बने तो क्या न बने तो क्या जिसको आत्मा का बोध है वह अपने आत्मा के स्वरूप के चिंतन में ही संतुष्ट रहता है । मैं यह हूँ जो पुण्य पाप के अनुसार बीतेगी,मेरे में मेरी व्यवस्था है । तिर्यंचगति में जन्म होता है मायाचार अधिक करने से । छल किया,कपट किया,चुगली की,निंदा की,जिसके मन का पता ही न पड़े कि मन में क्या है और कर क्या डाले । ऐसा जिसका भाव रहता है वह मनुष्य मरकर तिर्यंच होता है । जिसके शांत परिणाम है,जो कषाय अधिक नहीं रखता,थोड़ा आरंभ है । थोड़ा परिग्रह है ऐसा जीव मरकर मनुष्य होता है और व्रत,तप संयम शील इन सबके पालन से यह देवगति में जन्म लेता है । तो इन चारों गतियों में जिस ढंग से परिभ्रमण दूर होता है,जिन कारणों से परिभ्रमण होता है उनका वर्णन करणानुयोग के ग्रंथों में है । सो यह करणानुयोग इस लोक अलोक के विभाग को काल और चतुर्गतिभ्रमण जीव की प्रति समय की घटना का वर्णन दर्पण की तरह इसमें स्पष्ट झलकता है । सो यह करणानुयोग एक दूसरा वेद है । करणानुयोग में जीव के परिणाम का मुख्यता से वर्णन है । सो करणानुयोग के स्वाध्याय में बढ़े ज्ञान में बढ़ें तो अपना उपयोग निर्मल रहेगा,धर्म में आस्था बढ़ेगी,अपना आत्मा स्वच्छ होगा । जिससे इस वक्त भी सुख पायेंगे और भविष्य में भी सुखी रहेंगे । इस कारण सम्यग्ज्ञान बनाने के लिए अपना पौरुष करें और ज्ञान में संतुष्ट रहने का अभ्यास बनायें ।