रयणसार - गाथा 14: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
विषापहारं मणिमौषधानि मंत्रं समुदि̖द̖श्य रसायनं च।
भ्राम्यंत्य हो न त्वमिति स्मरंति पर्यायनामानि तवैव तानि।꠰14꠰꠰
मणिक, मंत्र कहो, औषधि कहो, रसायन कहो, ये सब हे प्रभु तुम्हारे पर्यायवाची शब्द हैं लोग व्यर्थ ही इनके लिये यत्र तत्र भटकते हैं। प्रभु भक्ति ही यह सब कुछ है। वहाँ बच्चे का विष दूर जाता है और वह उठकर खड़ा हो जाता है। उसका विष उतर गया प्रभुभक्ति के प्रताप से। प्रभुभक्ति के कुछ चमत्कार―देखिये मानतुंग स्वामी ने भक्ति की उसके फल में बतलाया गया है कि 48 तालों में बंद किए गए थे, वहाँ उन्होंने आदिनाथ स्तोत्र की रचना की, जो कि आज भक्तामर स्तोत्र नाम से प्रसिद्ध है। उस स्तवन का नाम हैं आदिनाथ स्तोत्र। चूँकि उस स्तोत्र के आदि में भक्तामर शब्द आया है इसलिए उसका नाम भक्तामर स्तोत्र प्रचलित हो गया, तो उस भक्ति के प्रताप से वे सभी ताले खुल गए और उनको भी किसी बंधन में डाला गया था, वह बंधन खुल गया। श्रद्धापूर्वक स्तुति हो तो वह फलदायक होती है। स्वयं की श्रद्धा के भी वलवानपना―ऐसी ही कोई एक कथा कहते हैं कि एक हिंदू और एक मुसलमान वे दोनों कहीं यात्रा को जा रहे थे। रास्ते में एक भयानक नदी पड़ी। अब उनके सामने यह समस्या आयी कि उस पार कैसे पहुंचे। वे दोनों अपने-अपने प्रभु का स्मरण करने लगे। हिंदू ने एक देव को बुलाया अपनी भक्ति में, थोड़ी देर में दूसरे देव को बुलाया। मानो पहले जिस देव का स्मरण किया वह आया तो उसकी मदद करने के लिए, पर जब देखा कि दूसरा देव आ गया तो वह वापिस लौट गया। फिर उसने तीसरे देव का स्मरण किया तो वह भी आया उसकी मदद करने को पर उसे देखकर दूसरा देव भी वापिस हो गया, यों सभी देव वापिस होते गए, वह नदी पार न कर सका और मुसलमान ने अपने एक ही इष्ट देव को स्मरण किया तो वह नदी पार हो गया। (यहाँ श्रद्धा का फल बताया) लोग कहते हैं कि णमोकारमंत्र सब पापों का नाश करने वाला है, सर्व मंगलों में पहला मंगल है। एक बार ऐसी ही बात थी―मानो एक कोई जैन था और एक कोई अन्य भाई था, वे दोनों रास्ते में एक जगह भटक गए। उनको रास्ते में तेज प्यास लगी। वह जैन आगे गया तो उसको एक कुवाँ दिखा। उसके मन में आया कि मैं इसमें से पानी निकालकर पी लूँ। उसने बहुत कोशिश की, पर डोर बहुत छोटी होने से वह पानी निकाल कर पी न सका। पानी बहुत गहराई में था। इतने में आया कोई दूसरा भाई। पूछा कि भाई यह क्या कर रहे हो? तो वह बोला कि हम बहुत प्यासे हैं मगर पानी इतनी गहराई में हैं कि हमारी डोर वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। तो उस पुरुष ने णमोकार मंत्र का स्मरण किया जिस के फल में उस कुवें में से पानी उमड़ा और कुछ ऊपर तक आ गया। उसने दुबारा जब कुवें में डोर डाला तो वह पानी तक पहुंच गई और उसने अपनी प्यास बुझायी । तो उस जैन ने पूछा कि भाई तुमने ऐसा क्या जादू कर दिया जिससे कुवें में पानी उमड़कर ऊपर आ गया? तो उसने बताया कि मैंने जादू कोई नहीं किया, मैंने तो णमोकार मंत्र का स्मरण किया जिस के प्रताप से यह सब चमत्कार देखने को मिला। तो वह दूसरा व्यक्ति बोला―अरे मेरे यहाँ तो यह णमोकार मंत्र बच्चा-बच्चा जानता है मगर अश्रद्धा के कारण उसका फल नहीं देखने में आया, और जिसको यथार्थ श्रद्धान था णमोकार मंत्र पर उसको उसका फल देखने में आया। यह श्रद्धा की बात कह रहे हैं। जो दूसरों के प्रति श्रद्धा भक्ति रखता है, विनय करता है उसका खुद भी विनय होता है, और फिर जो प्रभु की विनय करे, वह क्यों न प्रभुता पालेगा। तो जो भक्तिपूर्वक जिन पूजा करता है उसके फल में वह तीन लोकों के देवों द्वारा पूज्य होता है, क्योंकि उस समय उसका मन शुद्ध था। इस भगवान कारण समयसार के प्रति उसकी दृष्टि थी जिससे उसमें स्वयं निर्मल पर्यायों का प्रवाह चल उठा था, तो वह पूज्य होगा ही। मुनिदान से सारसुखलाभ―दूसरे कर्तव्य के बारे में कहते हैं कि दान के फल से ये जीव निश्चय से तीन लोक में सार सुख को प्राप्त करते हैं। मुनिदान के फल को बताया है, स्पष्ट कि वह भोगभूमि में उत्पन्न होता है और यदि सम्यक्त्व सहित है तो वह तो सब मोक्षमार्ग में प्रेरक होता है। उसको देवायु का बंध होता है। भोगभूमि एक ऐसा क्षेत्र है कि जहाँ पुरुषों को कोई चिंता नहीं रहती। इस क्षेत्र में भी भोग भूमि थी। ऋषभदेव से पहले जो थोड़ा ऋषभदेव के समय भी रही मगर मिटती हुई, वहाँ मनुष्य और स्त्री दोनों को किसी प्रकार का कष्ट न था। जब भूख लगी तो झट कल्पवृक्ष से भोजन मिल जाता, जो भी वस्त्रादिक की जरूरत हुई सो सब वहाँ से मिल जाता। एक पुण्य विपाक देखिये कि पुण्योदय होने पर जो मन में चाह हुई वैसी ही कल्पवृक्ष से रचना बनी। उनके संतान होते हैं अंत में। तो बच्चा बच्ची जुगुलिया पैदा होते। उनके एक साथ पैदा होते ही उनके माता पिता मर जाते। न माता पिता बच्चों को देखते और न बच्चे लोग माता पिता का। फिर वहाँ दुःख किस बात का? माता पिता को न देखने से उस विषयक कोई कल्पना नहीं जगती जिससे दुःख का कोई प्रसंग नहीं आता। तो भोगभूमि के सुख पाये, देवगति के सुख पाये, मोक्षमार्ग में आगे बढ़ें, निर्वाणसुख को प्राप्त करें। मुनिदान के फल में यह उत्तम अवस्था प्राप्त होती है। देखिये―बात तो कही गई दो―पूजा और दान, मगर उसमें बात सब आ जाती है क्योंकि जिसको दान दिया जा रहा है उसके स्वरूप की सुध है उसे, और, वह स्वरूप क्या है? जो मुझमें सो उस मुनि में। जो स्वभाव मेरे में हैं सो जगत के सब जीवों में। उस स्वभाव की वे साधना कर रहे हैं, ऐसा मुनि को देखकर ध्यान जगा ना? तो आत्मध्यान की सुध ही तो हुई वहाँ। प्रभु पूजा में भी आत्मध्यान की ही सुध हुई इस कारण प्रभु पूजा के फल में, मुनिदान के फल में जब तक भव शेष हैं तब तक वह नाना प्रकार के सुखों को भोगता है और अंत में सर्व कर्मों का विनाश कर सिद्ध पद प्राप्त करता है। गृहस्थावस्था में मुनिदान की महिमा―गृहस्थावस्था चूँकि बड़े―लाग लपेट की है, जिसे कहते हैं कि कीचड़ में फंसे रहने की है। धनार्जन, परिजन का पालन पोषण, समाज की भी रक्षा और मंदिर पाठशाला आदिक इन सब की व्यवस्था, याने गृहस्थ जनों पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी हैं कि वे धर्म की साधना भी बनाये रहें और अपना जीवन भी चलायें। और, ऐसे प्रसंग में श्रावकों पर कितने ही उपद्रव (कष्ट) आया करते हैं। ग्राहकों के, सरकार के, चोर डाकुओं के परिजनों में कोई बीमार है उसके, यों कितनी ही तरह के उस पर उपद्रव हैं। साधुवों पर तो अधिक से अधिक 22 प्रकार के परीषह हो सकते, पर गृहस्थों के परिषहों को तो गिना भी नहीं सकते। अनगिनते परिषह उन्हें सहन करने पड़ते हैं, मगर सम्यक्त्व और ज्ञान के बल से उन श्रावकों में इतनी प्रभुता संपन्न होती है कि ऐसी एक उलझन वाली स्थिति में रहकर भी अपने आप में आत्मस्वरूप की सुध होने से वे सुलझे हुए होते हैं, उलझे होकर भी सुलझे हुआ करते हैं। क्या है! जहाँ थोड़ी दृष्टि की अपने आप के स्वरूप पर कि सारे संकट तत्काल ही दूर हो जाया करते हैं। श्रावक लगा है अविकार आनंदधाम अपने भगवान आत्मा के ध्यान में। वहाँ कोई कष्ट ही नहीं। तो वह श्रावक क्या करे ऐसी परिस्थिति में कि जिससे वह मार्ग से भ्रष्ट न हो सके? तो आचार्यों ने दया कर के उपदेश किया है कि श्रावकजनों का मुख्य काम हैं दान और पूजा। उस ही के सहारे वे अपने जीवन का समय ठीक-ठीक बनायेंगे और ध्यान अध्ययन भी बनायेंगे और आत्मस्वरूप की उपलब्धि का फल भोगेंगे। तो पूजा और दान इन दोनों के प्रताप से यह जीव प्रभुता को और सुख को प्राप्त करता है।