ज्ञानार्णव - श्लोक 1071: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
मनोरोधे भवेद्रुद्धं विश्वमेव शरीरिभि:।
प्रायोऽसंवृतचित्तानां शेषरोधोऽप्यपार्थक:।।1071।।
मनोरोध का महत्त्व― जिसने मन का निरोध किया उसने सबका निरोध किया। सारे विश्व को नियंत्रण में ले लिया। जिसने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया उसने सब विश्व पर नियंत्रण कर लिया। जो मन का पापी है उसे सारे विश्व में सब जगह भय है, जो मन का स्वच्छ है उसके लिए जगत में कहीं भी भय का स्थान नहीं है। मुनिराज जंगल में स्वच्छंद विराजते हैं जहाँ सिंह, हाथी, बाघ, स्याल आदि सभी जीव रहते हैं, वे मुनिराज निर्भय क्यों रहते हैं कि उन्होंने अपने मन को स्वच्छ कर लिया, वे सब जीवों को अपने स्वरूप के समान मानने लगे, निरखने लगे सो निर्भय रहते हैं। हिंसक क्रूर जानवरों के बीच भी और वहाँ रहते हुए कदाचित् कोई जानवर खा भी ले तो वे यों परवाह नहीं करते कि मेरा बिगड़ेगा क्या? में आत्मा अपने स्वरूप में हूँ, यहाँ से चला जाऊँगा, दूसरी जगह आनंद करूँगा। तो जिन्होंने मन पर नियंत्रण किया है उन्होंने समस्त विश्व पर समझिये नियंत्रण कर लिया और जिन्होंने मन को वशीभूत नहीं किया वे इंद्रिय आदिक को रोकने में समर्थ नहीं हो सकते अथवा वे इंद्रिय विषयों को रोके भी तो उनका यह काम व्यर्थ है। मन रुक गया तो अन्य-अन्य सब व्यवहारधर्म भी कार्यकारी हैं। लोग कहते है मुख में राम बगल में छुरी― यह बाहरी नक्शा है जो धर्म के कार्यों में तो बड़ा दिखावा रखता है और भीतर में क्रोध, मान, माया, लोभ ये तीव्र कषायें जग रही हैं। ऐसे लोग बहुत दिनों तक धर्मसाधना दिखावे के लिए करते रहते हैं और अंत में उनके कोई ऐसा अनर्थ बन जाता है कि सारी जिंदगी का किया हुआ सब खराब हो जाता है। तो जिन्होंने मन वश किया है वे ही पुरुष महान् हैं, उपासनीय हैं। उनके चरणों में अपना चित्त सदैव रहे, ऐसी भावना निरंतर कल्याणार्थी जन किया करते हैं।
मनोरोध का अमोघ उपाय तत्त्वज्ञान― यह मन रुकेगा तत्त्वज्ञान से। प्राणायाम आदिक विधियों से कदाचित् मन को जबरदस्ती रोक भी लिया जाय तो यह मन बड़ी तेजी से फिर ऐसा अपना काम करता हे कि फिर यह किसी के रोके भी नहीं रुकता। जैसे नदी के प्रवाह को जबरदस्ती मिट्टी के भींत से रोका जाय तो कुछ समय के लिए भले ही रुक जाय। पर जितना रुका है उतनी ही तेजी के साथ पहिले से भी और तेजप्रवाह के साथ वह फूटेगी और नदी उसमें से बह निकलेगी। तत्त्वज्ञान के बिना मन के नियंत्रण करने का ऐसा हाल होता है। उसका कारण यह है कि मन को कुछ वश में किया, पर वासना ज्यों की त्यों रही। वह वासना भीतर ही भीतर संचित होकर इतने वेग में बन जाती है कि फिर किसी के रोके वासना रुक भी नहीं सकती। जब सीता का चित्र नारद ने भामंडल के सामने डाल दिया क्रुद्ध होने के कारण तो भामंडल उसको देखकर मूर्छित हुआ और जब नारद ने यह और कह दिया कि यह तो तुम केवल चित्र देखकर आकार देखकर ही मोहित हो रहे हो, पर गुण उसमें इतने हैं कि संसार की किसी भी कन्या में नहीं हैं। तब भामंडल तो विवश हो गया, खाना पीना छोड दिया, एकदम निर्लज्जता की बातें भी करने लगा, माँपिता सबका लिहाज टूट गया। और जब सुना कि सीता का स्वयंवर तो हो चुका है और राम से बरी गई हैं तब भामंडल इस विचार से सेना सजाकर चला कि कुछ भी हो सीता को छुडाकर लायेंगे। गया, पर रास्ते में एक जंगल मिला जिसमें सीता और भामंडल की कई पूर्व घटनाएँ हुई थी, वहाँ यह स्मरण हो आया कि वह तो मेरी इस भव की भी बहिन है तब उसका चित्त शांत हो सका। तो तत्त्वज्ञान के बिना मनके रोकने से मन नहीं रुकता है। कितना ही उस समय लोगों ने मना किया, बहुत से लोगों ने उसके मन को जबरदस्ती रोका भी होगा, पर वासना न रुकी थी। जब ज्ञान हुआ और भीतर में सीता के प्रति विकारभाव दूर हुआ तब मन एकदम वश में हो गया। तो तत्त्वज्ञान हो, सर्व पदार्थों का भिन्न-भिन्न स्वरूप समझ में आये तो ऐसे ज्ञानपूर्वक मन वश मेंरहता है। मन वश में रहने पर हम अपने को इस योग्य बना सकें कि अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान दर्शन और आचरण ठीक बनाये रहेंगे।