ज्ञानार्णव - श्लोक 1075: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
सम्यगस्मिन् समं नीते दोषा जन्मभ्रमोद्भवा:।
जन्मिनां खलु शीर्यंते ज्ञानश्रीप्रतिबंधका:।।1075।।
साम्यभाव से ज्ञानश्रीप्रतिबंधक दोषों का प्रक्षय― इस मन को भली प्रकार समता में लगाने से जीव के ज्ञान लक्ष्मी के आवरण करने वाले दोष नष्ट हो जाते हैं। इस आत्मा में ज्ञान अपार है ऐसा इसका स्वभाव है। पर उस ज्ञान को रोके कौन है? विषयकषाय रागद्वेष मोह के विकार। निमित्त दृष्टि से तो यह उत्तर आयगा कि ज्ञानावरण कर्म ने आत्मा के ज्ञानविकास हो रोक रखा है, लेकिन आत्मा में ज्ञान हो तो कर्म रुकेंगे और कर्म भिन्न वस्तु है, आत्मा भिन्न वस्तु है। भिन्न पदार्थों का भिन्न पदार्थ में करतब क्या चलेगा, पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है इस कारण उपचार से ऐसा कहा करते हैं कि कर्मों ने आत्मा का ज्ञानधन लूट लिया। और उपादान दृष्टि से यह बात कहेंगे कि हमारे ऐबों ने हमारे ज्ञानधन को बरबाद कर दिया। रागद्वेष मोह आदिक विकार ये आत्मा के ज्ञान को रोक देते हैं। जिस उपयोग में रागद्वेष मोह छाया है वहाँ ज्ञान नहीं आ सकता। रागद्वेष मोह से रहित आत्मा बने तो इसके ऐसा ज्ञान प्रकट हो जो तीन लोक और अलोक का स्पष्ट ज्ञान करता है, तो ज्ञान को रोकने वाला है रागद्वेष मोह आदिक विकार। इन विकारों का उत्पादक निमित्त है मन, सो मन को वश में कर लेने पर फिर रागादिक विकार भी दूर होंगे और रागादिक के नष्ट होने से विशुद्ध ज्ञान उत्पन्न होगा। जीवों की चाह केवल दो ही रहती हैं, हमारे खूब ज्ञान बढ़े और खूब आनंद होवे। इनके अलावा और कुछ इसकी मांग नहीं है। भूल से आनंद का साधन जिसे मान लिया उसकी मांग करते हैं तो दो बातों की चाह रहती है जीवों की ज्ञान और आनंद। सो ज्ञान और आनंद इन दोनों का बाधक है विकार, विषय। और विषय विकार का साधन है मन। तो मन को रोकने से ये विषय विकार रुकेंगे और विकारों के रुकने से ज्ञान और आनंद दोनों असीम प्रकट हो जायेंगे। देखो जब भी कोई आत्मा में तृप्ति आती है, विश्राम जगता है तो अपनी और झुकी हालत बन जाती है, परपदार्थों की ओरदृष्टि गड़ायें हुए में संतोष का घूँट किसी ने नहीं पिया। जिसे संतोष का घूँट आता है तो अपनी ओर झुककर ही आता है। हर बात में देख लो परपदार्थों की ओर दृष्टि करने से तो तृष्णा का दाह बढ़ता है और अपने आपकी ओर झुकने से संतोषरूपी अमृत का घूँट आ जाता है। तो ज्ञान और आनंद दोनों का विकास होने का अमोघ सत्य उपाय है अपने आपको अकिंचन समझना और परपदार्थों से उपेक्षा कर लेना यों पर की दृष्टि से हटकर जो अपने आपके स्वरूप में मग्न होता है उसे ज्ञान और आनंद दोनों प्रकट हो जाते हैं। इसलिए ऐसा ज्ञान और आनंद आत्मा में स्वभाव है और ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा की दृष्टि रहे।