ज्ञानार्णव - श्लोक 1083: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
यथा यथा मन:शुद्धिर्मुने: साक्षात्प्रजायते।
तथा तथा विवेकश्रीर्हृदि धत्ते स्थिरं पदम्।।1083।।
मन:शुद्धि की प्रगति के अनुसार विवेकश्री की प्रगति व स्थिरता― जैसे-जैसे मन की शुद्धि बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे भेदविज्ञानरूपी लक्ष्मी हृदय में स्थिर और दृढ़ होती जाती है। मन की शुद्धि होने से उत्तरोत्तर विवेक बढ़ता है। मन विषयों में पगा हो, इसका नाम हे मन की अशुद्धि और मन विषयों में न पगा रहे, विषयरहित निर्दोषपरमात्मस्वरूप में मन लगे तो उस मन को कहते हैं पवित्र मन। मुनि के जैसे-जैसे मन की पवित्रता बढ़ती जाती है उनमें भेदविज्ञान भी बढ़ता जाता है। भेदविज्ञान नहीं होता तब ये चेतन अचेतन वैभव बड़े प्रिय लगते हैं। जहाँभेदविज्ञान जगता तब प्रिय नहीं लगते। देखो देखने में ये सब शरीर कितने सुहावने लगते हैं। जबकि एक बाह्य दृष्टि से रखी जाय औरजब इनके स्वरूप को देखा जाय कि है क्या यह शरीर? ऊपर से यह चाम मढ़ा हुआ है और भीतर खून, पीक, नाक, धूल, मल, मूत्र, मांस, मज्जा आदि सारी अपवित्र चीजें भरी हैं।ऊपर का चाम भी अशुद्ध है। अनेक मलों से पूरित यह शरीर है। जब राग कम हो तो ऐसा दिखता है और जब राग अधिक है तो हड्डी रुधिर आदि पर कहाँ दृष्टि जाती है? उसे यह सब कुछ सुंदर दिखता है। ज्ञानवैभवसंपदा की बात देखो तो जब व्यवहारदृष्टि में लगे हैं तो ये सब धन, धान्य, चाँदी, स्वर्ण, रकम, पैसा, जायदाद ये सब कितने सुहावने लगते हैं, जिसे देख देखकर इतराते हैं और जब भेदविज्ञान की दृष्टि बनतीतो ये सारे परपदार्थ हैं, इनसे तो हमारा रंच भी संबंध नहीं है। मैं अपने स्वरूप किले में बैठा हूँ। सब पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं। जैसे भिखारी का जीव सब पुद्गलों से न्यारा है ऐसे ही यह में भी सब पुद्गलों से न्यारा हूँ। में केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ ऐसा जब यह भेदविज्ञान से देखता हे तो इसे वैभव आफत मालूम होने लगता है। जब कोई धनिक पुरुष मरने लगता है तब उसको ये धन वैभव आफत मालूम होने लगते हैं। कहाँछोडूँ, कहाँले जाऊँ, किसको दे जाऊँ, ये सब वैभव बाहरी व्यवहारदृष्टि से तो भले जँचते हैं किंतु जब भेदविज्ञान जगे तो यह वैभव संपदा भी इसे भार मालूम होता है। सम्यग्दृष्टि जीव को तो भार ही मालूम देता है। मैं इन सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ, मेरा करतब, मेरा कर्तृत्व, मेरा भोक्तृत्व, मेरी दुनिया सब कुछ मेरे प्रदेशों में ही समाया है। प्रदेशों से बाहर मेरा कुछ करतब नहीं, भोक्तृत्व नहीं, स्वभाव नहीं, कुछ भी नहीं है। मैं केवल अपने ज्ञानानंद स्वरूपमात्र हूँ, किंतु जब अपने इस स्वरूप से डिग जाता हूँ, अपने निज प्रदेशों में टिक नहीं पाता हूँतो बाहर-बाहर ही विषयों में दौड़ लगाता हूँ और दु:खी होता रहता हूँ। ये समस्त परिग्रह भाररूप हैं। ध्यान में बाधा देने वाले मन की शुद्धि बिगाड़ने के कारण हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष को ये समस्त परिग्रह भाररूप मालूम देते हैं। जब भेदविज्ञान बढ़ता है, जब बाह्य पदार्थों से सही मायने में हटते हैं और अपने स्वरूप में मग्न होते हैं, बस वही निज पवित्रता है। वे ही पुरुष महंत हैं, उनके गुणानुराग से अपना उद्धार संभव है।