ज्ञानार्णव - श्लोक 1099: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
दिक्चक्रं दैत्याधिष्ठयं त्रिदशपतिपुराण्यंबुवाहांतरालं।
द्वीपांभोधिप्रकांडं खचरनरसुराहींद्रवासं समग्रम्।।
एतत्त्रैलोक्यनीडं वचनचयचितं चापलेन क्षणार्द्धे―
नाश्रांतं चित्तदैत्यो भ्रमति तनुमतां दुर्विचिंत्यप्रभाव:।।1099।।
चित्तदैत्यप्रभाव की दुर्विचिंत्यता― कहते हैं कि इस चैत्यरूपी दैत्य का बड़ा दुर्निवार प्रभाव है, यह समस्त दिशाओं में फैल जाता है। मन की गति उतनी तीव्र होती है जितनी तीव्र और किसी की नहीं बतायी जा सकती है। शब्दों को भी देर लगती है कहीं से कहीं पहुँचने में। वायु को भी समय लगता है, तार बेतार वगैरह को भी समय लगता है। किंतु इस मन के लिए कोई समय नहीं लगता। विचार करें और अलोकाकाश में पहुँच जावें। लोक की बात तो दूर है। विचार ही की तो बात है। तो समस्त दिशाओं में इस दैत्य का गमन है। स्वर्गों में, मेघों में, द्वीपों में, समुद्रों में सर्वत्र यह मनरूपी दैत्य क्षण भर में पहुँच जाता है। दोनों लोक में सर्वस्थानों में चाहे वह वातवलय का स्थान हो, क्षण भर में यह दैत्य घूम आता है, इसका दुर्निवार प्रभाव है। कभी-कभी अपने देह में ऐसा लगता है कि कोई दो शक्तियाँपरस्पर में एक दूसरे को जवाब दिया करती है। मन विषयों में प्रवृत्ति का प्रस्ताव रखता है तो ज्ञान विवेक उससे रोकने का यत्न रखता है और इस स्थिति में मन अपनी बात रखता है, ज्ञान अपनी बात रखता है। जिसका मन प्रबल हो उसका मन जीत जाता है, ज्ञान हार जाता है और जिसका ज्ञान प्रबल हो तो मन हार जाता है और ज्ञान जीत जाता है। ऐसी कुछ दो चीजें हैं नहीं आत्मा में कि मन अलग हो, ज्ञान अलग हो। एक ही चीज है, ज्ञान मन भाव विचार।उन विचारों में उथल पुथल मचती रहती है। जब कोई मझोली पर्याय होती है जीव तो दुर्विचार और सद्विचार एक के बाद एक परिणमन करते हैं और अंत में यदि विचार खोटा है तो दुर्निवार हामी हो जाता है और यदि उसका मूल में तथ्य है, प्रतिबोध है तो ये सद्विचार अपना अधिकार जमा लेते हैं। इन मनदैत्य को वश कर लेना आवश्यक है और देखिये मन के बहाव में यह जीव क्षणमात्र में बह जाता है, परंतु उसका फल चिरकाल में भोगना पड़ता है। तो मन का दुर्विचिंत्य प्रभाव है, फिर भी जो धर्मींजन हैं वे मन को हटाने का ही यत्न किया करते हैं। चींटी कभी भींत पर चढ़ती है तो वह कई बार गिरती भी है, पर यत्न करते-करते अंत में चढ ही जाती है, ऐसे ही यह मन इस संसारी प्राणी को हैरान कर रहा है, फिर भी यह विवेकी पुरुष हिम्मत नहीं हारता। कितने ही बार यह गिरता है, फिर भी यह जानता है कि आखिर हमारा ज्ञान ही शरण है। ज्ञान से ही हमारा उद्धार होगा तो मन से हार हारकर भी विवेक को ही आगे रखता है और विवेक से अपने आपको बनाने का ही यत्न किया करता है। यह ध्यान के प्रकरण में चित्तशुद्धि की बात इसलिये बहुत जोर देकर कही जा रही है कि चित्तशुद्धि के बिना मनुष्य आत्मध्यान का पात्र नहीं हो सकता। और आत्मध्यान के बिना शांति अथवा मुक्ति का मार्ग नहीं मिलता। इस कारण चित्त में उद्दंडतायें बताकर चित्त से विमुख होने के लिये प्रेरणा दी गई है।