ज्ञानार्णव - श्लोक 1219: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
हते निष्पीडिते ध्वस्ते जंतुजाते कदर्थिते।
स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसा रौद्रमुच्यते।।1219।।
कोई जीवसमूह मर जाय, पीड़ित किया जाय, ध्वस्त हो जाय अथवा उसे बिखलाया जाय अपने द्वारा या दूसरे के द्वारा उसमें हर्ष माने यह हिंसानंद नाम का रौद्रध्यान है। बाजारों में कोई मदारी नेवला और सर्प की लड़ाई दिखाते हैं। सर्प और नेवले का तो बैर है। नेवला सर्प को इधर उधर काट लेता है फिर भी देखने वाले सभी लोग उसमें मौज मानते हैं। तो उन सभी दर्शकों ने वहाँ रौद्रध्यान किया। गृहस्थावस्था में कैसा विचित्र समन्वय है कि कोई धर्म पर अथवा अपने परिवार पर हमला करे तो उसकी रक्षा करते हुए में यदि शत्रु का मरण भी हो जाय तो वहाँ हिंसा नहीं माना है। कभी-कभी मदारी लोग ऐसा दृश्य दिखाते हैं कि एक मुर्गा के पैर में पैनी छुरी बाँध दिया और किसी दूसरे मुर्गे से लड़ा दिया। वह मुर्गा छुरी से छेद भी जाता है पर लोग उस दृश्य को देखकर मौज मानते हैं। तो सभी दर्शक लोग वहाँ रौद्रध्यान कर रहे हैं। किसी युद्ध के प्रसंग में अपनी रक्षा करते हुए में यदि शत्रु का प्राणघात भी हो जाय तो चूँकि वहाँ किसी के मारने का भाव नहीं है, अपनी रक्षा का मात्र-भाव है तो वहाँ हिंसा नहीं माना। इस रौद्रध्यान का बड़ा विस्तार है, कोई-कोई लोग चूहे के पैर को रस्सी से बाँध लेते हैं और उसके पीछे कुत्ता दौड़ाते हैं। कुत्ता चाहे मारकर खा भी डाले, पर लोग उस दृश्य को देखकर खुश होते हैं, ये सब रौद्रध्यान हैं। यह हिंसाविषयक नाम का रौद्रध्यान है।