ज्ञानार्णव - श्लोक 1234: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
असत्यवाग्वंचनया नितांतं प्रवर्त्तयत्यत्र जनं वराकम्।
सद्धर्ममार्गादतिवर्त्तनेन मदोद्धतो य: स हि रौद्रधामा।।1234।।
असत्य वचनों की ठगाई से निरंतर जो इस अबुद्ध मनुष्य का प्रवर्तन करता है वह पुरुष समीचीन पद से च्युत होने के कारण वह रौद्रध्यान है। असत्य मार्ग में जो दूसरे को लगा दे ऐसा असत्य संभाषण भी रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान में चूँकि जीव आनंद मानता है इस मौज के समय में इस जीव को अपने आपकी सुध नहीं रहती कि मैं कोई पाप कार्य कर रहा हूँ। तो रौद्रध्यान इतना खोटा ध्यान है तभी तो रौद्रध्यानी पुरुष नरकगामी होता है। तो दूसरे को समीचीन मार्ग से हटाकर असत्य मार्ग में लगा दे ऐसा संभाषण करे ऐसा पुरुष रौद्रध्यानी है।