ज्ञानार्णव - श्लोक 1274: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
एता मुनिजनानंदसुधास्यंदैकचंद्रिका:।
ध्वस्तरागाद्युरुक्लेशा लोकाग्रपथदीपिका:।।1274।।
इस प्रकार जो ये चार भावनाएँ कहीं, वे मुनिजनों को आनंदरूपी अमृत के झराने में चंद्रमा की चाँदनी के समान हैं। लोक में यह सिद्धि है कि जब चंद्र की चाँदनी फैलती है तो यह चंद्र अमृत बरसाता है, इतना तो होता ही है कि आताप संताप कम हो जाता है। जैसे आषाढ़ के महीने में कृष्ण पक्ष में देखो कितनी गर्मी लगती है और शुक्ल पक्ष की रातें अपेक्षाकृत शीतल रहती हैं। शुक्लपक्ष में चंद्र रहता है रात्रि को तो एक संताप मिट जाता है। तो चंद्र की किरणों में एक ऐसी अद्भुत छटा है कि वहाँ बसकर लोगों का संताप कम हो जाता है। तो जैसे अमृत बरसाने वाले चंद्र की चाँदनी है इसी प्रकार ये चार भावनाएँ मुनि जनों के आनंदरूप अमृत को बरसाने वाली हैं। जो इन चारों भावनाओं का उपयोगी होगा वह इन भावनाओं के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति रखेगा, ऐसे संतजनों को शाश्वत आनंद प्रकट होता है। तो ये चार भावनाएँ मुनिजनों के चित्त को आनंदामृत बरसाने में चंद्र की चाँदनी की तरह हैं। और इन भावनाओं से रागादिक के बड़े क्लेश ध्वस्त हो जाते हैं। क्लेश मात्र इतना ही है। सबके क्लेश हो रहे हैं किसी न किसी रूप में। उन सब क्लेशों में यही बात पायी गयी है कि किसी पदार्थ में राग है तब यह क्लेश बना। जैसे तत्त्वज्ञान विशुद्ध दृढ़ हो जाय, किसी भी परपदार्थ में राग न रहे तो उसको क्लेश क्या? समग्र परवस्तुवों को पर जान लिया जाय तो फिर क्लेश किसका नाम है यहाँ के वैभव को अपना मानो तो न रहेगा, न मानो तो न रहेगा। यदि सत्य बात समझ में आ जाय कि यह वैभव मेरे से अत्यंत भिन्न है, अहित रूप है तो फिर उसमें क्लेश की क्या बात रही? इष्ट का वियोग होना, मनोवांछित कार्यों की सिद्धि न होना इनको ही लोग क्लेश की बात मानते हैं। ज्ञानी जीव ज्ञानीबल से अपने आपको उनसे हटा लें और निज सहज ज्ञानस्वरूप में उपयोग रमा लें तो फिर बतावो कि उस समय उसके क्लेश है क्या? रागादिक भावों का उत्पन्न होना यही महान क्लेश है। इन चार भावनाओं के प्रसाद से रागादिक के क्लेश समस्त ध्वस्त हो जाते हैं। ये चार भावनाएँ लोगों को आगे-आगे अग्रपथ को दिखाने में दीपिका के समान हैं। जैसे कोई दीपक लेकर चले तो आगे-आगे पथ दिखता जाता है और तब चलने वाला नि:शंक होकर आगे बढ़ता चला जाता है। ऐसे ही जो मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ― इन चार भावनाओं को करता है और इन भावनाओं के अनुरूप अपनी प्रवृत्ति रखता है वह पुरुष क्लेश से रहित है और ये भावनायें उसे आगे-आगे कल्याणपथ दिखाती जाती हैं। फिर यह पुरुष उस ही रास्ते में प्रवृत्ति करता है ऐसे ही ये चार भावनायें आगे-आगे शांति के पथ को दिखाती जाती हैं और आत्मा उन पर चलकर सदा के लिए संकटों से मुक्त हो जाता है। इन चार भावनाओं को तत्त्वज्ञानी पुरुष भाते हैं और अपने दुष्कृतों का उच्छेद करते हैं।