ज्ञानार्णव - श्लोक 1307: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
उपसर्गैरपि स्फीतैर्देवदैत्यारिकल्पितै:।
स्वरूपालंबितं येषां न चेतश्चाल्यते क्वचित्।।1307।।
जो पूर्वकाल में महापराक्रमी थे, उनका स्वरूप उन देव दैत्य आदिक से बढ़े हुए उपसर्गों से कदापि चलित न होता था। मुख्य बात है चित्त का स्वरूप में आलंबन लेना। उसमें ऐसा महान बल है कि उपसर्गों के होने पर भी चलित नहीं होते, और भीतर में चित्त की, मग्नता की स्थिति न हो तो कितना ही कोई पहलवान हो पर उपसर्गों से चलित हो जायगा। उपसर्गों से चलित होने में मुख्य कारण तो मन है। खूब दृढ़ हैं, हट्टे-कट्टे हैं, पर किसी मनुष्य का कुछ थोड़ा सा भी काम करने को मन नहीं चाहता और उस समय किसी विवश स्थिति में करना पड़े तो वह उसे भी उपद्रव समझता है। यदि मन नियंत्रित न हो तो उपसर्ग उपद्रव अधिक मालूम होते हैं और जिसका मन नियंत्रित हो और वज्रकाय हो उसे वह बल प्रकट होता कि ऐसे-ऐसे उपसर्ग जो देव, दैत्य, शत्रु आदिक द्वारा किए गए हों, उन उपसर्गों से भी वह कभी आत्मध्यान से विचलित नहीं होता। परिणामों की बड़ी विचित्रता है। एक मुनिराज पूर्वकाल में ऐसे हुए जो कि छोटी उम्र के थे, राजघराने में सबसे बड़े प्रिय थे, वन में जाकर साधु हो गए। तो राजा ने कुछ सैकड़ा सेना के लोग ऐसे भेज दिये वन में कि बहुत दूर तक तुम पहरा देते रहना, इस पर कोई उपद्रव न कर सके। खर्च करने के लिए खर्च बाँध दिया और सैकड़ों सुभट वहाँ लगा दिया इसलिए कि कोई उसे सता न सके। कुछ दिन चलते रहे और कुछ ही समय बाद राजा का ऐसा चित्त बिगड़ा कि सेना को तो हटा ही दिया और फिर ऐसा उपसर्ग किया उस पर कि जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चाकू से उसके शरीर का चमड़ा छीला और उस पर नमक छिड़कवाया। पर जिनका चित्त स्वरूप में अवलंबित हो जाता उनको उपसर्ग नहीं जँचते। स्वरूप की ऐसी पकड़ है कि उन्हें यह शरीर भी इस तरह लगता कि जैसे दूसरे के शरीर। एक साधना है, वास्तविकता है, बैठती नहीं बात मन में। जैसे कंजूस को कई करोड़ का दान करने वाला धनिक हो तो उसके चित्त में उसकी बात नहीं बैठती। अजी गप्पें हैं, लिखा है शास्त्रों में, ऐसी बात हो कैसे सकती? तो जैसे कंजूसों के चित्त में धनिक दानी कुबेरों की बातें घर नहीं करती और कभी समझ भी लें कि हाँ होते भी हैं ऐसे तो उन्हें बेवकूफ समझेंगे। उनकी बुद्धि में यह बैठ ही नहीं सकता कि उन लोगों ने यह अच्छा किया। ऐसे ही मोही पुरुषों के चित्त में यह बात नहीं बैठ पाती कि ऐसे भी ज्ञानी विरक्त संत होते हैं कि जिनके शरीर को चाकू से छीलकर नमक छिड़कें, ऐसी दारुण वेदना करें तिस पर भी वे अपने स्वरूप से चलित नहीं होते। स्यालिनियों ने खाया तीन दिन सुकुमाल का शरीर, यह तो प्रसिद्ध कथा है। सुकौशल की माता का जीव शेरनी बनकर सुकौशल के शरीर का भक्षण किया यह भी प्रसिद्ध बात है। अनेक मुनियों को राजा ने कोल्हू में पेला, दंडक वन की बात थी, यह भी कथावों में प्रसिद्ध है। ऐसे-ऐसे दारुण उपसर्ग हुए और उनसे चलित नहीं हुए, तो सोचो ऐसी स्थिति बनने के लिए भीतर में कितनी ऊँची तैयारी होना चाहिए? तो उनको आत्महित की धुन थी और समझ लिया था कि हित इसमें है। जिसमें हित है उससे विचलित न होना चाहिए। उन्होंने हित समझा था इस ज्ञानस्वरूप आत्मा में अपने ज्ञान को लगाये रहने में, और इस स्थिति में जो अद्भुत आनंद प्रकट होता है उस आनंद के सामने फिर ये शरीर आदिक कैसे उपेक्ष्य न बन जायेंगे?
जैसे कोई व्यापारी बड़ा लाभ होने के प्रसंग में छोटे लाभ की उपेक्षा कर देता है, उस ओर ध्यान भी नहीं देता, ऐसे ही जिसको विशुद्ध आनंद के लाभ का अवसर मिला है वह इस बड़े लाभ के सामने शरीर आदिक का कुछ ख्याल नहीं करता, वचनालाप की छोटी-छोटी बातों का ख्याल नहीं करता। यह बात जब बन जाती है तब ये सब सुगम हो जाते हैं। यहाँ की भी कुछ वर्ष पहिले की कहानी है कि देश की स्वतंत्रता के आंदोलन के समय कुछ क्रांतिकारी लोगों को उस समय की सरकार ने बहुत वेदना दी, और बहुत वेदना देकर पूछा कि तुम्हारे इस क्रांति में कौन-कौन सम्मिलित हैं? और यहाँ तक कि उनकी अँगुली आग से जलायी, बहुत बड़ी मोमबत्ती जला दी और उसी आग पर उनकी अँगुली रख दी, अँगुली आग में जलकर गिरने लगी, इतनी वेदना को सहकर भी वे आनंद में ही थे, जो उनका लक्ष्य था उसी बात पर वे डटे रहे। तो फिर इस विशुद्ध ज्ञानानंद लाभ के होने पर तो फिर ये बातें सह लेना सब एक बहुत छोटी सी बातें हो जाती हैं। अभी यहाँ देख लो, अच्छा जितने भी मनुष्य हैं ये सब मरेंगे या नहीं? अरे मरण तो सभी का होगा। तो उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो मरण से घबड़ाने वाले होंगे, कुछ हिम्मत करने वाले होंगे और कुछ ऐसे दृढ़ होंगे कि क्या है, कल मरण होना हो तो आज हो जाय। हुए नहीं क्या ऐसे लोग? अभी निकट पूर्व में जो आंदोलनों में गोली के सामने छाती करके हँसी खुशी गुजरते हैं उनके क्या ऐसी दृढ़ता न थी कि मरना तो है ही कल मरना हे तो आज ही सही। तो जैसे यहाँ भी लोग मृत्यु का नाम सुनकर या मृत्यु की संभावना के समय दृढ़ रहते हैं तो कोई भीतर में विशेषता तो है, बल तो है कोई ऐसा जिसके कारण वे धीर रहा करते हैं। तो जिनका चित्त आत्मस्वरूप में अवलंबिता हुआ है वे कहीं भी किसी भी उपसर्गों से चलायमान नहीं होते।