ज्ञानार्णव - श्लोक 1518: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
बाह्यात्मानमपास्यैवमंतरात्मा ततस्त्यजेत्।
प्रकाशयत्ययं योग: स्वरूपं परमेष्ठिन:।।1518।।
इस प्रकार बाह्य शरीर में आत्मबुद्धि को छोड़कर अंतरात्मा होता हुआ इंद्रिय के विषयों में आत्मबुद्धि को छोडूँ। पहिले तो वैभव में ममता का परित्याग करें। यह धनवैभव में नहीं हूँ, ये मेरे नहीं हैं, फिर उनसे हटकर जो और चेतन कुटुंब आदिक द्रव्य हैं उनसे ममता बुद्धि त्यागें। फिर इस शरीर से आत्मबुद्धि को छोड़ें कि यह देह मैं नहीं हूँ, यह देह पौद्गलिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श वाली है और मैं आत्मा इस देह से निराला एक ज्ञानमात्र हूँऐसा इसमें भेद जानें फिर इंद्रिय के विषयों में भी आत्मबुद्धि त्यागें। एक तो बाह्य होती हैं। बाह्य में उसकी बात तो पहिले कह दी। जो रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले पुद्गल हैं, जैसे चखा जाना, सूँघा, देखा वे विषय तो बाह्य विषय हैं। पर उन विषयों के आलंबन से जो इंद्रियाँअपना अंत: उपभोग करती हैं, मौज मानती हैं, जो अंत: विकल्प होते हैं वह इंद्रियों का अंतर्विषय है। तो अब उस विषय को भी अपने को हटाएँ अर्थात् इंद्रिय द्वारा जो विकल्प बन रहे हैं उन विकल्पों में भी आत्मबुद्धि न करें। ये विकल्प भी पर हैं, इनसे निराला ज्ञानानंदस्वरूपमात्र मैं आत्मा हूँ। इस प्रकार से पर से छूट-छूटकर अपने निकट आयें। यह एक अध्यात्मयोग है और यह परमेष्ठी के स्वरूप का प्रकाश करता है अर्थात् योग के द्वारा परमेष्ठित्व प्रकट होता है, परमात्मत्व का विकास होता है। जिसे भी शांति चाहिए हो वह अपने से भिन्न जितने भी पदार्थ हैं, तत्त्व है, उनका ख्याल छोड़कर अपने आपके स्वरूप में मग्न होने का यत्न करे। अध्यात्मयोग का हद पाने वाले अरहंतदेव ने बताया है असहयोग और सत्याग्रह। जो मेरे लिए नहीं हैं उनका तो असहयोग कर लें, यथार्थ जान जायें, ममता न करें, किसी का कुछ भी परिणमन हो रहा हो जान जायें।कुटुंब में कोई चिंता हो, शोक हो, शारीरिक वेदना हो उसमें इलाज तो करें, पर अंत: ऐसी ममता न रखें कि हाय अब क्या होगा? अरे जो होना है सो होगा। हमारा जितना कर्तव्य है सो करते रहें, अपने आपकी की ओर आयें और अपने को पर से हटायें― ये दो बातें चाहिए। यह तो हुआ असहयोग। कोई परपदार्थ को हम सहयोग नहीं दे रहे। और असहयोग करके फिर जो अपने में चैतन्यस्वरूप है अर्थात् अपने आपकी उपेक्षा न रखकर केवल सत् में जो बात होती है उसे सत्य कहते हैं। ऐसा सत्य क्या है? एक चित्प्रकाश चैतन्यतत्त्व। उस चैतन्यभाव का आग्रह करें, यह मैं हूँ, यही मेरा सर्वस्व है, ऐसा उस चैतन्यतत्त्व का आग्रह है।